मानव विकास :  गिलास आधा भरा या आधा खाली

punjabkesari.in Sunday, Sep 16, 2018 - 03:39 AM (IST)

बात नजरिए की है। गिलास आधा भरा है, हम इस बात पर खुश हो सकते हैं या आधा खाली है हमें दुखी कर सकता है। आस्ट्रेलिया में पौराणिक  पक्षी ‘किल्ली लू’  के बारे में कहा जाता था कि यह पीछे की दिशा में उड़ती है। इसका कारण माना गया कि यह पक्षी इसमें दिलचस्पी नहीं रखती कि वह कहां जा रही है बल्कि इसमें कि वह पहले कहां थी। 

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने वर्ष 2017 का विश्व मानव विकास सूचकांक जारी किया है। इसे हम 2 तरह से देख सकते हैं। सन् 1990 के मुकाबले सन् 2017 में देश जीवन प्रत्याशा (57.9 वर्ष से 68.8 वर्ष), स्कूल में शिक्षा अवधि (7.6 वर्ष से 12.3 वर्ष) और प्रति व्यक्ति आय (अढ़ाई गुना से अधिक बढ़ौतरी) में जबरदस्त वृद्धि हुई यानी 1990 में पैदा होने वाला व्यक्ति जहां औसतन 57.9 वर्ष जीने की आशा रख सकता था, वहीं आज पैदा होने वाला बच्चा 68.8 साल जी सकता है। इस सूचकांक में हमने  0.427 से बढ़ कर 0.638 पर यानी डेढ़ गुना छलांग लगाई है। 

इस साल के शुरूआत में आई विश्व सम्पन्नता रिपोर्ट के अनुसार भी हम दुनिया में छठे नंबर पर हैं और अरबपतियों की संख्या के स्तर पर हम अमरीका और चीन के बाद तीसरे स्थान पर हैं। हम इस बात से भी खुश हो सकते हैं कि पिछले 5 वर्षों में भारतीयों के विदेश जाने पर खर्च 253 गुना बढ़ा है। सकारात्मक सोच के वकील यह भी कह सकते हैं कि खुशी की बात है कि भारत जो सकल घरेलू उत्पाद, (जी.डी.पी.) के आकार के हिसाब से (लगभग 2.6 ट्रिलियन डॉलर या 156 लाख करोड़ रुपए) दुनिया में छठे नंबर पर है, मानव विकास में दुनिया के 189 देशों में एक पायदान ऊपर आकर 130 नंबर पर पहुंच गया है। आज से 27 साल पहले यह 135वें पायदान पर था और लगभग अगले तमाम दशकों तक 135 से 131 के बीच लटका रहा। यानी इन 27 वर्षों में अन्य देश विकास की दौड़ में हमसे आगे भागते रहे या दूसरे शब्दों में जी.डी.पी. के बढऩे का मानव विकास से कोई आनुपातिक रिश्ता नहीं होता इसलिए सरकारें विकास को लेकर उदासीन रही हैं। 

ताज्जुब की बात यह है कि भारत में 70 साल से प्रजातंत्र है यानी प्रजा का शासन। क्या प्रजा विकास नहीं चाहती? क्या प्रजातंत्र दरअसल जन अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं चलता यानी यह शासन पद्धति दोषपूर्ण है? क्या आर्थिक मॉडल में कोई खोट है जिससे देश की जी.डी.पी. तो कुलांचे मारती है पर गरीब के शाश्वत अभाव का इलाज नहीं हो पाता या भ्रष्टाचार इस आर्थिक छलांग को दबोच कर बैठ जाता है ताकि गरीब दवा, शिक्षा या समुचित आय के बगैर मरने को मजबूर होता रहे। एक आंकड़े से समस्या की जड़ तक पहुंच सकते हैं। ऑक्सफेम तथा अन्य विश्व संस्थाओं की रिपोर्ट के अनुसार भारत में सन् 2000 में ऊपर के एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 37 प्रतिशत दौलत होती थी जो 2005 में बढ़ कर 42 प्रतिशत, 2010 में 48 प्रतिशत,  2012 में 52 प्रतिशत और आज इन्हीं एक प्रतिशत के पास 65 प्रतिशत हो गई है। पिछले साल यह 73 प्रतिशत हो गई। सन् 2022 में देश में खरबपतियों की संख्या दोगुनी हो जाएगी। एक सामान्य कंपनी का मुख्य कार्यपालक अधिकारी (सी.ई .ओ.) एक साल में उतनी तनख्वाह पाता है जिसे कमाने में एक कामगार मजदूर को 950 साल लगेंगे। 

समस्या है कहां? इस रिपोर्ट को जारी करते हुए यू. एन.डी.पी. के निदेशक ने कारण भी बताया और एक तरह से आगाह भी किया। इस संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के पुरोधाओं को समझ में आ गया था कि अधिकतर मामलों में प्रजातांत्रिक मुल्कों में भी आर्थिक विकास यानी प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि से असली मानव विकास का रिश्ता नहीं है जैसे कि भारत में। लिहाजा सन् 2010 में असमानता-समायोजित मानव विकास सूचकांक शुरू किया गया। असमानता ! आर्थिक, शैक्षणिक व अवसर-संबंधी असमानता की वजह से हमारा मानव विकास ऊपर नहीं उठ रहा है। उदाहरण के तौर पर इसी साल इस असमानता-समायोजित विकास सूचकांक पर भारत 26.9 प्रतिशत नीचे गिर गया, जबकि वैश्विक स्तर पर यह गिरावट मात्र 20 प्रतिशत हुई है यानी भारत और नीचे के पायदान पर पहुंच जाएगा। आज अगर भारत मात्र एक पायदान ऊपर (एच.डी. आई. में) बड़ा भी है तो वह अमीर के बच्चे की बेहतर शिक्षा, अमीर की आय में इजाफा और स्वास्थ्य के सभी बेहतर साधनों पर संभ्रांत वर्ग का अधिकार होने से। 

इसी तरह प्रति व्यक्ति आय भी सकल राष्ट्रीय आय को आबादी से भाग देकर निकाली जाती है यानी ऊपर के एक प्रतिशत की आय और नीचे के 99 प्रतिशत की आय, सब बराबर समझ कर। जाहिर है आय सूचकांक बढ़ जाएगा, नतीजतन विकास सूचकांक भी। ऐसा नहीं कि जनता विकास को गौण विषय समझती है। सरकारें विकास चाहती नहीं हैं, यह भी कहना गलत होगा। लेकिन ट्रांसपेरैंसी इंटरनैशनल की रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल भारत भ्रष्टाचार सूचकांक में एक पायदान और नीचे खिसक गया यानी नीचे के स्तर पर भ्रष्टाचार पर नियंत्रण न हो पाने से तमाम जनोपदेय योजनाओं का लाभ गरीबों तक पहुंचने की जगह भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों की जेब  में चला जा रहा है और फर्जी आंकड़े तसल्ली के लिए संसद से लेकर सड़क तक हमारी जन-विमर्श का हिस्सा बन जाते हैं! समाधान एक ही है, बढ़ती गरीब-अमीर की खाई को पाटना और इसके लिए सबसे कारगर तरीका, जो ब्राजील सहित कई देशों ने अपनाया और आज भारत भी इसी व्यवस्था को लागू कर रहा है, सीधे डिलीवरी यानी नकद को खाते में पहुंचाना। भ्रष्टाचार पर जबरदस्त अंकुश लग सकता है और डिजीटल पेमैंट, वह भी खाते में, इसका बेहतर उपचार है।-एन.के. सिंह


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Pardeep

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