तेल पर ही निर्भर हो गया लगता है सरकार का राजस्व

punjabkesari.in Sunday, Sep 16, 2018 - 03:24 AM (IST)

महीने दर महीने आंकड़े ऊपर-नीचे होते रहते हैं इसलिए अर्थशास्त्री तथा समीक्षक किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले तिमाही अथवा आधे वर्ष तक रुझानों को देखते हैं। मध्यावधि के लिए आंकड़ों पर नजर मारने के बाद ऐसा दिखाई देता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की मैक्रो-इकोनॉमिक स्थिरता का आधार कमजोर हो रहा है। इस रुझान को अभी भी पलटा जा सकता है और एक चिंतित नागरिक होने के नाते मैं आशा करता हूं कि ऐसा होगा। 

हम भेद्यता के स्रोतों पर नजर डालते हैं जो चिंता का कारण बन रहे हैं। पहले कच्चे तेल की कीमत। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रारम्भिक वर्षों में सरकार ने खूब कमाई की। राजग सरकार द्वारा सत्ता सम्भालने के कुछ ही समय बाद जून 2014 में कच्चे तेल की इंडियन बास्केट के दाम 109 डालर प्रति बैरल थे। जुलाई से कीमतें गिरनी शुरू हो गईं और जनवरी 2015 में 46.6 डालर प्रति बैरल तक पहुंच गईं। जनवरी 2015 से अक्तूबर 2017 तक (मई तथा जून 2015 के अतिरिक्त) कीमतें कभी भी 60 डालर से पार नहीं गईं। वह अविश्वसनीय रूप से कम कीमतें थीं। अकेले इस कारक ने मैक्रो-इकोनॉमिक सूचकों में सुधार करने में बड़ा योगदान डाला। 

यदि कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट के अनुसार पैट्रोल, डीजल तथा एल.पी.जी. की कीमतों में कमी की जाती तो इससे उपभोक्ताओं को काफी लाभ पहुंचता। सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया और पैट्रोलियम उत्पादों पर कर बढ़ा दिए जिससे कम कीमतों के लाभ से आम लोगों तथा व्यवसायों को वंचित रहना पड़ा। परिणामस्वरूप सरकार का राजस्व तेल पर निर्भर हो गया है, सरकार आसानी से मिलने वाले राजस्व को छोडऩे की अनिच्छुक दिखाई देती है और लोगों में गुस्सा बढ़ रहा है क्योंकि पैट्रोल-डीजल तथा एल.पी.जी. की कीमतें प्रतिदिन आसमान की ओर जा रही हैं। 

कच्चे तेल ने मजा किरकिरा किया 
मेरे अनुमान के अनुसार 12 महीनों के समय (दिसम्बर 2014 से नवम्बर 2015) में खर्चों में बचत तथा अतिरिक्त राजस्व के साथ लाभ लगभग 1,40,000 करोड़ रुपए था। इसके बाद के 2 वर्षों (2016 तथा 2017)में लाभ इतना ही अधिक होना चाहिए था। इसके बावजूद सरकार वित्तीय मजबूती के रोड मैप का पालन करने में सफल नहीं रही। राजग सरकार के चार वर्षों में वित्तीय घाटा क्रमश: 4.1, 3.9, 3.5 तथा 3.5 प्रतिशत रहा और इसके 2018-19 में 3.3 प्रतिशत होने का अनुमान है। मेरा मानना है कि 3.3 प्रतिशत का अनुमान इस आकलन पर आधारित है कि कच्चे तेल की कीमतें 70 डालर के नीचे रहेंगी। यह सम्भावना नहीं दिखाई देती और ब्रेंट की कीमत 80 डालर के करीब है। इसलिए तनाव का पहला बिंदू वित्तीय घाटा है। 

दूसरा, हर महीने आयात के मुकाबले निर्यात कम है, जिससे व्यापार खाते में घाटा रह जाता है मगर यह असामान्य नहीं है। हालांकि निर्यात की विकास दर अभी भी आयात की विकास दर से कहीं पीछे है और इसमें सुधार किया जा सकता है। कुछ भी उपयुक्त नहीं किया गया और निर्यात चार वर्षों तक 310 अरब डालर के नीचे स्थिर रहा। इसका शुद्ध असर यह है कि चालू खाते का घाटा (कैड)बढ़ गया है और इसके 2017-18 में 1.87 प्रतिशत से बढ़कर 2018-19 के अंत तक 2.5-3 प्रतिशत तक पहुंचने की आशंका है। यह तनाव का दूसरा बिंदु है। 

तीसरे, उभर रहे बाजारों का जोश खत्म हो गया दिखाई देता है और वैश्विक निवेशक अपने पोर्टफोलियोस को पुन: संतुलित करते नजर आते हैं। जहां अमरीकी ब्याज दरें सख्त हो रही हैं, विदेशी पोर्टफोलियो इंवैस्टर्स (एफ.पी.आइज) बिकवाली पर हैं जिससे भारत से शुद्ध निकासी बढ़ रही है। इस वर्ष अब तक एफ.पी.आइज द्वारा इक्विटी, ऋण तथा हाईब्रिड सहित शुद्ध निकासी 47,891 करोड़ रुपए रही है। यह कहना अत्यंत जल्दबाजी होगी मगर 2018-19 में इसके 2008-09 (अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट का वर्ष) के बाद से सबसे बड़ी निकासी रहने की आशंका है। 

रुपया गिर रहा है, प्राप्तियां बढ़ रही हैं
चौथे, इन कारकों के कारण रुपया कमजोर हो रहा है। डालर के खिलाफ इसकी रूपांतरण दर 2018 में 12.65 प्रतिशत गिरी है। चार दिन पूर्व सरकार ने एक वक्तव्य दिया था कि ‘‘सरकार तथा रिजर्व बैंक यह सुनिश्चित करने के लिए सब कुछ करेंगे कि रुपया अताॢकक स्तरों तक  न फिसले।’’ ऐसे  आश्वासन सीधे निवेशकों तथा समीक्षकों को चोट पहुंचाते हैं जो आश्वासन वाले शब्दों की बजाय महत्वपूर्ण संख्याओं पर अपना ध्यान केन्द्रित रखते हैं-एफ.डी., कैड, बांड्स की कीमतें, मुद्रास्फीति आदि। ‘‘सुनिश्चित करने के लिए सब कुछ...’’ के दावे के बावजूद अवमूल्यन को रोकने के लिए रिजर्व बैंक जो केवल एक चीज कर सकता है, वह है डालरों को बेचना, मगर इस तरह के दखल की भी सीमाएं हैं। अंतत: अंतिम वर्ष में 10 वर्षीय सरकारी बांड में लाभ 1.5 प्रतिशत बढ़ गए हैं। जैसा कि मैंने लिखा है, लाभ 8.13 प्रतिशत को छू गया है। यह दर भारत में निवेश करने की पूर्वानुमति जोखिम का एक परिमाण है। अवमूल्यन होते रुपए के साथ मिलकर यह दर संकेत देती है कि बाजार देश में मैक्रो-इकोनॉमिक स्थिरता को लेकर चिंतित है। 

मुद्दा न गंवाएं
रिजर्व बैंक सम्भवत: अंतिम शब्द मौद्रिक नीति वक्तव्य में कहेगा जो अक्तूबर में जारी होना है। यदि आर.बी.आई. एक बार फिर रेपो रेट में वृद्धि करता है तथा उधार वापसी बारे अपने रवैये में बदलाव लाता है तो इसका कारण यह होगा कि आर.बी.आई. भी मैक्रो-इकोनॉमिक स्थिरता को लेकर चिंतित है। उपरोक्त में से कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है। हमने ऐसी स्थिति का सामना 1997, 2008 तथा 2013 में किया है, कारण चाहे कोई भी रहा हो। ऐसी स्थिति में किसी विशेष दिन सैंसेक्स में छोटी-सी वृद्धि बांड से होने वाले लाभ में गिरावट अथवा एक ‘स्थिर’ आई.आई.पी. या सी.पी.आई. में मामूली-सी गिरावट जश्र मनाने का कारण नहीं होना चाहिए। यही संख्याओं का वह उतार-चढ़ाव है जिसका जिक्र मैंने प्रारम्भ में किया था। इसकी बजाय सरकार को अपना ध्यान अवरोध हटाने तथा निवेश बढ़ाने, बैंक ऋणों में वृद्धि करने (विशेषकर उद्योगों को) तथा खर्चे पर कड़ा नियंत्रण रखने पर केन्द्रित करना चाहिए।-पी. चिदम्बरम


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Pardeep

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