रोजगार का वरदान ‘स्वच्छता अभियान’

punjabkesari.in Saturday, Sep 15, 2018 - 04:55 AM (IST)

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 15 सितम्बर को स्वच्छता ही सेवा जन आन्दोलन शुरू कर रहे हैं। इसे 2 अक्तूबर को स्वच्छ भारत अभियान की चौथी वर्षगांठ और बापू गांधी की 150वीं जयंती की शुरूआत से जोड़ा गया है। इस एक वर्ष के कार्यक्रम को देश को पूर्ण रूप से खुले में शौच से मुक्ति, साफ-सफाई से रहने की आदत डालने और कूड़े-कचरे के निपटान के ठोस उपायों को व्यावहारिक रूप देने की प्रक्रिया के रूप में देखा जा रहा है। उद्देश्य अच्छा है और कदाचित वर्तमान सरकार की उपलब्धियों में स्वच्छता अभियान सबसे ऊपर रहेगा। अब इसे जन-आंदोलन बनाने की तैयारी चल रही है जो अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन यदि इसे रोजगार से मजबूती और नियोजित ढंग से जोड़ दिया जाए तो यह देश की कायापलट करने का सामथ्र्य रखता है। 

सरकार का यह दावा काफी हद तक सही है कि देश में इन 4 वर्षों में 9 करोड़ के लगभग शौचालय बनाए गए हैं। 90 प्रतिशत जनसंख्या इनका इस्तेमाल करती है जबकि 2014 में 40 प्रतिशत से भी कम करते थे। आंकड़ों के मुताबिक सवा 4 लाख गांव, 430 जिले, 2800 शहर और कस्बे, 19 राज्य खुले में शौच से पूर्णतया मुक्त हो चुके हैं। जयपुर और गाजियाबाद जैसे गंदगी का पर्याय माने जाने वाले शहर स्वच्छता के मामले में कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। इधर-उधर जहां जगह मिली कूड़ा डालने पर अब जुर्माना लगाने से लोगों की आदत बदल रही है और वे गंदगी से होने वाली बीमारियों के प्रति सचेत हो रहे हैं। यदि तुलना करें तो सन् 2000 में शुरू किए गए सम्पूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम और 2012 में इसे निर्मल भारत अभियान का स्वरूप देने के मुकाबले 2014 का स्वच्छता अभियान बहुत कम समय में तेजी से आगे बढ़ा है।

आर्थिक विकास में योगदान: अब तक जितने शौचालय बने हैं, उनका योगदान रोजगार और व्यापार दोनों को बढ़ाने में रहा है। इनमें लगने वाली सामग्री जैसे कि टाइल, पॉट, दरवाजे, खिड़की जैसी वस्तुओं के निर्माण में तेजी आई। एक शौचालय बनाने में 10 बोरी सीमैंट लगने से 10 करोड़ बैग की मांग हुई। इसी तरह दूसरी सामग्री की जरूरत पड़ी तो उससे व्यापार बढ़ा। मान लीजिए एक शौचालय बनाने में 5 कामगार 5 दिन तक लगे तो 5 करोड़ कार्य दिवस के रोजगार का सृजन हुआ। इस अभियान से जो अपरोक्ष फायदे हुए उनमें विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार गंदगी से होने वाली मौतें अब 3 लाख कम होंगी और जो 6-7 हजार रुपए हर साल गंदगी से होने वाली बीमारियों से बचाव के लिए प्रत्येक परिवार द्वारा खर्च होते थे, उसकी बचत हुई। 

यहां तक पहुंचने के बाद अब जिस चीज की जरूरत है, वह यह कि इन शौचालयों और घरों से निकलने वाले सॉलिड और लिक्विड वेस्ट का यदि सही ढंग से प्रबंधन नहीं किया गया तो सब किए-कराए पर पानी फिर सकता है। हमारा देश पहले ही कूड़े के सही ढंग से निपटान की समस्या से किसी ठोस नीति के अभाव में बुरी तरह जूझ रहा है। यह चौंकाने वाली बात नहीं तो क्या है कि हमें हर साल 1240 हैक्टेयर जमीन अर्थात् 425 किलोमीटर भूमि केवल कूड़ा रखने के लिए चाहिए। यह धरती का दुरुपयोग ही तो है कि इस कूड़े को निपटाने से प्राप्त होने वाली हजारों मैगावाट ऊर्जा और दूसरे पदार्थों से हम वंचित हैं, जिसकी वजह यह है कि दुनिया में क्षेत्रफल के हिसाब से सातवें और आबादी के हिसाब से दूसरा देश होने के बावजूद हमारे यहां कूड़ा निपटान के केवल आधा दर्जन प्लांट हैं। इसके विपरीत चीन में इनकी संख्या 300 से अधिक है। 

अगर दूसरे देशों की बात करें तो यूरोप में जहां फ्रांस, स्विट्जरलैंड, जर्मनी जैसे देशों में गंदगी देखने को नहीं मिलती, वहीं इटली में घरों और सड़कों की हालत भारत से मिलती-जुलती है। इसी तरह एशिया में जहां सिंगापुर, हांगकांग और शंघाई स्वच्छता के प्रतीक हैं, वहीं थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे इलाके हैं जो साफ-सफाई के मामले में लगभग भारत जैसे ही हैं। इन देशों में आर्थिक विकास की दर भी स्वच्छता के पैमानों पर आंकी जाए तो विशाल अंतर है। यह पर्यटन से लेकर रहन-सहन और औद्योगिक विकास साफ-सफाई से प्रभावित होता है। अनुमान तो यह है कि यदि भारत में कूड़े-कचरे के निपटान की सही व्यवस्था हो जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था का एक-तिहाई हिस्सा इसी से पूरा हो सकता है। 

रोजगार का साधन : अब हम इस बात पर आते हैं कि स्वच्छता अभियान को रोजगार के वरदान के रूप में कैसे बदला जा सकता है? इस क्षेत्र में व्यापार और रोजगार की कितनी संभावनाएं हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सॉलिड और लिक्विड वेस्ट के कलैक्शन, ट्रांसपोर्टेशन, ट्रीटमैंट, सेफ डिस्पोजल, रिसाइक्ंिलग और उससे प्राप्त विभिन्न वस्तुओं की मार्कीटिंग तथा डिस्ट्रीब्यूशन के लिए बहुत बड़ी तादाद में सुविधाएं और व्यापारिक इकाइयां चाहिएं। इन्हें चलाने के लिए समुचित मात्रा में निवेश और मानव संसाधन चाहिएं। मतलब यह कि धन के साथ-साथ उपयुक्त मैनपावर भी चाहिए। 

अनुमान तो यह है कि इन क्षेत्रों में 1 रुपया लगाने पर 10 रुपए तक प्राप्त हो सकते हैं। भारत में जिस किसी ने भी इस क्षेत्र में हाथ आजमाया उसके आज वारे-न्यारे हो गए हैं। आधुनिक प्लांट्स में कामगारों के लिए जरूरी मोजे, दस्ताने, हैट, बूट जैसी वस्तुओं की कितनी जरूरत है, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं। शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में हाथ के झाड़ू की बजाय सफाई कर्मियों को सफाई मशीनों पर काम करने की ट्रेनिंग देकर उनकी जिंदगी में सार्थक बदलाव लाया जा सकता है। विदेशों में सफाई कर्मचारियों को प्रति घंटे लगभग 10 डालर तक मिल जाते हैं। हमारे यहां पूरे दिन में 3-4 सौ रुपए से अधिक नहीं मिलते। इसकी वजह ठेकेदारी प्रथा, जागरूकता का अभाव और आधुनिक टैक्नोलॉजी का इस्तेमाल न होना है।

इंडियन सैनीटेशन सर्विस बने: सैनीटेशन और वेस्ट डिस्पोजल के क्षेत्र में इतनी अधिक संभावनाएं हैं कि सरकार यदि प्रशासनिक स्तर पर आई.ए.एस. की अलाइड सर्विस के तौर पर इंडियन सैनीटेशन सर्विस की स्थापना कर दे तो जहां एक ओर लाखों लोगों को निरंतर रोजगार मिल सकेंगे, वहीं सबसीडियरी उद्योगों के खुलने की भी राह निकलेगी। इसी तरह सरकारी स्तर पर पब्लिक सैक्टर अंडरटेकिंग की स्थापना होनी चाहिए जो कूड़े से ऊर्जा और दूसरे संसाधन निर्माण करने का कार्य करे। इस क्षेत्र में प्राइवेट सैक्टर के लिए निवेश के बेहतरीन अवसर हैं। सरकारी उद्यम, निजी उपक्रम और पब्लिक प्राइवेट पार्टीसिपेशन के जरिए स्वच्छता अभियान मील का पत्थर साबित हो सकता है। 

जब तेल, गैस, रसायन, उर्वरक, थर्मल, हाईड्रो पावर जैसे क्षेत्रों में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान स्थापित कर चुके हैं तो सैनीटेशन में ही क्यों पीछे रहें? यह केवल सोचने का नहीं बल्कि ठोस नीति बनाकर उसे क्रियान्वित करने का अवसर है। यदि वर्तमान सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस दिशा में बापू गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर देश को यह उपहार देने का संकल्प कर लें तो न केवल वर्तमान पीढ़ी बल्कि आने वाली पीढ़ी भारत को स्वच्छ, सुन्दर बनाए रखने में पीछे नहीं रहेगी।-पूरन चंद सरीन


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Pardeep

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