भारत-पाक रिश्ते 71 साल बाद भी ‘ठंडे’
punjabkesari.in Wednesday, Aug 15, 2018 - 03:43 AM (IST)
यह 12 अगस्त, 1947 आजादी के तीन दिन पहले की बात है। मेरे पिता, जो डाक्टर के रूप में प्रैक्टिस कर रहे थे, ने हम तीन भाइयों को बुलाया और पूछा कि हमारा कार्यक्रम क्या है? मैंने कहा कि मैं उसी तरह पाकिस्तान में रुकना चाहता हूं जिस तरह भारत में मुसलमान रुक गए हैं।
मेरा बड़ा भाई, जो अमृतसर में मैडीकल की पढ़ाई कर रहा था, ने बीच में ही कहने के लिए दखल दी कि पश्चिम पंजाब में भी मुसलमान हिंदुओं को उसी तरह मकान खाली करने के लिए कहेंगे जिस तरह पूर्वी पंजाब में रहने वालों को चले जाने के लिए कहा जाएगा। मैंने कहा कि यह कैसे संभव है अगर हिंदू जाने के लिए तैयार नहीं हुए। उसने कहा कि हमें जबरदस्ती निकाल दिया जाएगा।
ठीक वैसा ही हुआ। आजादी के दो दिन बाद, 17 अगस्त को कुछ मुस्लिम सज्जन आए और उन्होंने हमसे मकान छोडऩे का आग्रह किया। उनमें से एक से मैंने पूछा कि हम कहां जाएं? उसने जालंधर के अपने घर की चाबी दी और कहा कि उसका मकान पूरी तरह सुसज्जित है और इसमें तुरंत रहना शुरू किया जा सकता है। हमने ऑफर को अस्वीकार कर दिया। लेकिन उनके जाने के बाद हम लोग भविष्य के बारे में विचार करने के लिए खाने की मेज के चारों ओर बैठ गए। मैंने कहा कि मैं रुक रहा हूं और उन्होंने बताया कि वे लोग अमृतसर जाएंगे और जब गड़बड़ी खत्म हो जाएगी तब वापस लौट आएंगे। हम सबकी राय थी कि हालात कितने भी निराशाजनक क्यों न हों, वापस सामान्य हो जाएंगे, ज्यादा से ज्यादा एक महीने में।
घर में ताला लगाते वक्त मेरी मां ने कहा कि उसे अजीब महसूस हो रहा है मानो हम वापस यहां नहीं आने वाले हैं। मेरे बड़े भाई ने उसके साथ सहमति जाहिर की। मैंने कैनवस के नीले थैले में एक पतलून और एक कमीज रख ली तथा यह कह कर निकल गया कि हम दरियागंज में मौसा के घर मिलेंगे। मेरी मां ने मुझे दिल्ली पहुंचने तक अपना खर्च चलाने के लिए 120 रुपए दिए। मेरे पिता ने मेरी यात्रा को आसान बना दिया था। उन्होंने एक ब्रिगेडियर से हम तीन भाइयों को सरहद पार ले जाने के लिए कहा था। उसने कहा कि उसकी जीप में जगह नहीं है और वह सिर्फ एक आदमी को ले जा सकता है। दूसरे दिन सुबह, मुझे उसकी गाड़ी में ठेल दिया गया। मैं अपने आंसू रोक नहीं पाया और मुझे संदेह हो रहा था कि हम दोबारा मिल पाएंगे।
सियालकोट से संबरावल के बीच की यात्रा सामान्य थी लेकिन वहां से लोगों का कारवां दो विपरीत दिशाओं में जाता दिखाई दे रहा था-हिंदू भारत की ओर जा रहे थे और मुसलमान पाकिस्तान की ओर आ रहे थे। अचानक हमारी जीप रोक दी गई। एक बूढ़ा सिख रास्ते के बीच में खड़ा हो गया था और उसने अपने पोते को भारत ले जाने की विनती की। मैंने विनम्रता से उसे कहा कि मैं अभी भी अपनी पढ़ाई कर रहा हूं और उसकी विनती कितनी भी उचित क्यों न हो, उसके पोते को ले नहीं जा सकता। उस अत्यंत बूढ़े आदमी ने कहा कि उसका परिवार खत्म हो चुका है और सिर्फ उसका यही पोता बचा है। वह चाहता था कि उसका पोता जिंदा रहे। मुझे अब भी उसका आंसू भरा चेहरा याद है लेकिन मैंने उसे वास्तविकता बता दी थी। मेरे अपने भविष्य का ही पता नहीं था तो मैं उसके पोते को कैसे पालता? हम लोग आगे बढ़ गए। आगे की यात्रा में हमने बिखरे सामान देखे लेकिन लाशें उस समय तक हटाई जा चुकी थीं। हालांकि हवा में बदबू जरूर बची हुई थी।
उसी समय, मैंने प्रतिज्ञा की कि मैं दोनों मुल्कों के बीच अच्छे रिश्ते को बढ़ावा दूंगा। यही वजह थी कि मैंने वाघा सीमा पर मोमबत्ती जलाना शुरू किया। यह कार्यक्रम करीब 20 साल पहले शुरू हुआ था। यह एक छोटा आंदोलन था जो 15-20 लोगों को लेकर शुरू हुआ था। अब इस पार एक लाख लोग और पाकिस्तान से, सीमित संख्या में ही सही, इस मुहिम में शामिल होते हैं। लोगों के उत्साह की सीमा नहीं होती। मेरी तमन्ना है कि सरहद को नरम बनाया जाए और अमन के हालात हों ताकि दुश्मनी दूर की जा सके। मैं उस बस में था जिसमें चढ़ कर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर गए थे। दोनों ओर खुशमिजाजी का माहौल था और मुझे लगा कि इस यात्रा से दोनों देशों के बीच आपसी व्यापार, संयुक्त कारोबार और लोगों के बीच संपर्क नियमित हो जाएंगे।
लेकिन सरहद के दोनों ओर कंटीली तार और वीजा की पाबंदियों के जरिए लोगों को इस मुल्क से उस मुल्क में ले जाने से रोकता हुआ देख कर मुझे निराशा होती है। पहले बुद्धिजीवी, संगीतकार और कलाकार आपस में मिल सकते थे और संयुक्त कार्यक्रम कर सकते थे लेकिन वीजा देने में सरकारों की ओर से अपनाई जाने वाली कठोरता के कारण यह भी रुक गया है। करीब-करीब, आधिकारिक और गैर-आधिकरिक संपर्क भी नहीं रह गया है। नवनियुक्त प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक इंटरव्यू में कहा है कि वह व्यापार और वाणिज्य सुनिश्चित करेंगे।
मेरी एक ही चिंता है कि सेना से उनकी नजदीकी शायद उन्हें अपने वायदे पूरे नहीं करने दे लेकिन हो सकता है कि सेना वाली बात बढ़ा-चढ़ा कर कही जा रही हो। वह भी शांति चाहती है क्योंकि उसके लोग ही युद्ध लड़ते हैं और इससे जुड़ी बाकी चीजें भी उन्हें झेलनी पड़ती हैं। बाधा पैदा करने वाली बात यह है कि भारत में फैसला चुने हुए प्रतिनिधि लेते हैं और यह पाकिस्तान के विपरीत है जहां अंतिम फैसला फौज के हाथ में है। यह कल्पना करना कठिन है कि इमरान फौज के आला अफसरों को समझा पाते हैं या नहीं। नई दिल्ली को कोशिश करनी चाहिए लेकिन इसने कठोर रवैया अख्तियार कर लिया है कि जब तक इस्लामाबाद आतंकवादियों को पनाह देना बंद नहीं करता और मुंबई धमाकों के दोषियों को सजा नहीं देता, तब तक वह वार्ता नहीं करेगा। दोनों देशों के बीच अच्छे संबंधों के लिए भारत की मांग को ध्यान में रख कर इमरान खान को पहल करनी चाहिए।-कुलदीप नैय्यर
सबसे ज्यादा पढ़े गए
Recommended News
Recommended News
Shukrawar Upay: कुंडली में शुक्र है कमजोर तो कर लें ये उपाय, कष्टों से मिलेगा छुटकारा
Bhalchandra Sankashti Chaturthi: आज मनाई जाएगी भालचंद्र संकष्टी चतुर्थी, जानें शुभ मुहूर्त और महत्व
Rang Panchami: कब मनाया जाएगा रंग पंचमी का त्योहार, जानें शुभ मुहूर्त और पूजा विधि
प्रदेश कांग्रेस प्रभारी राजीव शुक्ला ने कार्यकारी अध्यक्ष संजय अवस्थी व चंद्रशेखर को सौंपा ये दायित्व