बाढ़ के भंवर में फंसा देश

punjabkesari.in Tuesday, Aug 14, 2018 - 03:45 AM (IST)

अत्यधिक बारिश के कारण पहाड़ों से मैदानों तक कई राज्यों में आई बाढ़ के चलते हालात बदतर हो गए हैं। केरल समेत देश के कई हिस्सों में बाढ़ के कारण जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। अत्यधिक बारिश के कारण देश की अनेक नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। यही कारण है कि देश के अनेक भागों में हाई अलर्ट जारी किया गया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हमारे देश में कई स्थान ऐसे हैं जहां एक ही इलाके को बारी-बारी से सूखे और बाढ़ का सामना करना पड़ता है। 

विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए जिस तरह से जंगलों को नष्ट किया गया और पेड़ों की कटाई की गई, उसने स्थिति को और भयावह बना दिया। इस भयावह स्थिति के कारण मानसून तो प्रभावित हुआ ही, भू-क्षरण एवं नदियों द्वारा कटाव किए जाने की प्रवृत्ति भी बढ़ी। इस समय जहां एक ओर बाढ़ के कारण आम जनता संकट का सामना कर रही है वहीं दूसरी ओर बाढ़ पर राजनीति भी शुरू हो गई है। 

बाढ़ और सूखा पुराने जमाने से ही हमारे जीवन को परेशानी में डालते रहे हैं। बाढ़ और सूखा केवल प्राकृतिक आपदाएं भर नहीं हैं बल्कि ये एक तरह से प्रकृति की चेतावनियां भी हैं। सवाल यह है कि क्या हम पढ़-लिख लेने के बावजूद प्रकृति की इन चेतावनियों को समझ पाते हैं? यह विडम्बना ही है कि पहले से अधिक पढ़े-लिखे समाज में प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाकर जीवन जीने की समझदारी अभी भी विकसित नहीं हो पाई है। बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं पहले भी आती थीं लेकिन उनका अपना एक अलग शास्त्र और तंत्र था। इस दौर में मौसम विभाग की भविष्यवाणियों के बावजूद हम बाढ़ का पूर्वानुमान नहीं लगा पाते हैं। 

दरअसल प्रकृति के साथ जिस तरह का सौतेला व्यवहार हम कर रहे हैं उसी तरह का सौतेला व्यवहार प्रकृति भी हमारे साथ कर रही है । पिछले कुछ समय से भारत को जिस तरह से सूखे और बाढ़ का सामना करना पड़ा है वह आई.पी.सी.सी. की जलवायु परिवर्तन पर आधारित उस रिपोर्ट का ध्यान दिलाती है जिसमें जलवायु परिवर्तन के कारण देश को बाढ़ और सूखे जैसी आपदाएं झेलने की चेतावनी दी गई थी। आज ग्लोबल वार्मिंग जैसा शब्द इतना प्रचलित हो गया है कि इस मुद्दे पर हम एक बनी-बनाई लीक पर ही चलना चाहते हैं । यही कारण है कि कभी हम आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट को सन्देह की नजर से देखने लगते हैं तो कभी ग्लोबल वार्मिंग को अनावश्यक हौवा मानने लगते हैं। यह विडम्बना ही है कि इस मुद्दे पर हम बार-बार सच से मुंह मोडऩा चाहते हैं। 

दरअसल प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा जलवायु परिवर्तन के किस रूप में हमारे सामने होगा, यह नहीं कहा जा सकता। जलवायु परिवर्तन का एक ही जगह पर अलग-अलग असर हो सकता है । यही कारण है कि हम बार-बार बाढ़ और सूखे का ऐसा पूर्वानुमान नहीं लगा पाते जिससे कि लोगों के जान-माल की समय रहते पर्याप्त सुरक्षा हो सके । शहरों और कस्बों में होने वाले जल-भराव के लिए काफी हद तक हम भी जिम्मेदार हैं। पिछले कुछ वर्षों में कस्बों और शहरों में जो विकास और विस्तार हुआ है, उसमें पानी की समुचित निकासी की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। गन्दे नालों की पर्याप्त सफाई न होने से उनकी पानी बहाकर ले जाने की क्षमता लगातार कम हो रही है। यही कारण है कि देश के अधिकतर कस्बों और शहरों में थोड़ी बारिश होने पर ही सड़कों पर पानी भर जाता है। 

गौरतलब है कि 1950 में हमारे यहां लगभग अढ़ाई करोड़ हैक्टेयर भूमि ऐसी थी जहां पर बाढ़ आती थी लेकिन अब लगभग सात करोड़ हैक्टेयर भूमि ऐसी है जिस पर बाढ़ आती है। इसकी निकासी का कोई समुचित तरीका भी नहीं है। हमारे देश में केवल चार महीनों के भीतर ही लगभग अस्सी फीसदी पानी गिरता है। उसका वितरण इतना असमान है कि कुछ इलाके बाढ़ और बाकी इलाके सूखा झेलने को अभिशप्त हैं। इस तरह की भौगोलिक असमानताएं हमें बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हैं। पानी का सवाल हमारे देश की जैविक आवश्यकता से भी जुड़ा है। 2050 तक हमारे देश की आबादी लगभग 180 करोड़ होगी। ऐसी स्थिति में पानी के समान वितरण की व्यवस्था किए बगैर हम विकास के किसी भी आयाम के बारे में नहीं सोच सकते हैं। हमें यह सोचना होगा कि बाढ़ के पानी का सदुपयोग कैसे किया जाए। 

गौरतलब है कि पूरे देश में बाढ़ से होने वाले नुक्सान का लगभग 60 फीसदी नुक्सान उत्तर प्रदेश , उत्तराखंड, बिहार और आन्ध्र प्रदेश में आई बाढ़ के माध्यम से होता है। बाढ़ पर राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में बाढ़ के कारण हर साल लगभग एक हजार करोड़ रुपए का नुक्सान होता है। यह नुक्सान लगातार बढ़ता ही जा रहा है। पूरे विश्व में बाढ़ से होने वाली मौतों में 5वां हिस्सा भारत का है। बाढ़ केवल हमारे देश में कहर नहीं ढा रही है बल्कि चीन, बंगलादेश, पाकिस्तान और नेपाल जैसे देश भी इसी तरह की समस्या से जूझ रहे हैं। बाढ़ और सूखे की समस्या से जूझने के लिए कुछ समय पहले नदियों को आपस में जोडऩे की योजना अस्तित्व में आई थी लेकिन वह आगे नहीं बढ़ सकी। 

पर्यावरणीय कारणों से कुछ पर्यावरणविदों ने भी इस परियोजना पर अपनी आपत्ति जताई थी। बहरहाल नदियों को जोडऩे की परियोजना पर अभी व्यापक बहस की गुंजाइश है। हालांकि हमारे देश में सूखे और बाढ़ से पीड़ित लोगों के लिए अनेक घोषणाएं की जाती हैं लेकिन मात्र घोषणाओं के सहारे ही पीड़ितों का दर्द कम नहीं होता है। सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि इन घोषणाओं का लाभ वास्तव में पीड़ितों तक भी पहुंचे।-रोहित कौशिक


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Pardeep

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