शहीद सैनिकों का सम्मान करना सीखें

punjabkesari.in Saturday, Aug 11, 2018 - 05:10 AM (IST)

गत 7 अगस्त को समाचार पत्रों में छपा कि कश्मीर के गुरेज सैक्टर में एक भारतीय मेजर और 3 सैनिक पाकिस्तानी घुसपैठियों की कोशिश असफल करते हुए शहीद हुए। कुछ समाचार पत्रों में शहीद सैनिकों के नाम छापे गए-मेजर कौस्तुभ राणे, गनर विक्रमजीत सिंह, राइफलमैन मनदीप सिंह और राइफलमैन हमीर सिंह। कुछ ने तो केवल दो-तीन पंक्तियों में पूरा विषय ऐसे निपटा दिया मानो भारतीय शहीद सैनिकों के नाम छापे जाने की आवश्यकता ही नहीं है। कुछ ने पूरे नाम नहीं छापे, आधे ही छाप कर विषय कश्मीर के अन्य मुद्दों पर ले गए जैसे...अमरनाथ यात्रा। 

भारत के चार बेटे भारत की सुरक्षा के लिए जान दे देते हैं लेकिन देश में इसे अब कोई असाधारण और राष्ट्र के मर्म को चोट पहुंचाने वाली घटना के रूप में नहीं लेता बल्कि अब सरहद पर सैनिकों की शहादत रोज की उन आम खबरों में शामिल हो गई है जैसे संसद में शोर, महंगाई, बाढ़ और मौसम का उतार-चढ़ाव। जब शहीद सैनिकों के पार्थिव शरीर उनके पैतृक स्थान ले जाए जाते हैं और उनका अंतिम संस्कार होता है तो वहां भी सामान्य व्यवस्था में जिला प्रशासन पूर्णत: अनुपस्थित रहता है, कोई स्थानीय नेता, जिसके पास संयोगवश फुर्सत हो तो वह उस मार्मिक एवं हृदयविदारक अवसर पर आकर श्रद्धांजलि दे देता है, वरना शहीद के परिजन और मित्र ही इस अवसर पर दिखते हैं। 

इसके विपरीत विडम्बना है कि राजनीति में सक्रिय छोटे-बड़े, सही-गलत, लोकप्रिय अथवा अन्य लोग शासन-प्रशासन और मीडिया में अपने सामाजिक योगदान और गुणवत्ता से कई गुना अधिक महत्व एवं सम्मान पा जाते हैं। उनका देहांत हो जाए तो शहर की सबसे शानदार और महत्वपूर्ण जगह उनके अंतिम संस्कार के लिए नि:शुल्क दी जाती है। राष्ट्रीय झंडा भी देश-प्रदेश स्तर पर झुका दिया जाता है। उनके बारे में हर स्तर के व्यक्ति और नेता का बयान आता है। शहर में उन सज्जन के शोकाकुल लोगों द्वारा श्रद्धांजलि के पोस्टर, बैनर लगाए जाते हैं। शहर के बड़े सभागृह में उनके लिए श्रद्धांजलि के कार्यक्रम होते हैं। 

क्या आपने कभी सुना कि किसी गांव, शहर या महानगर में कभी वहां के शहीद सैनिक की याद में स्थानीय गण्यमान्य नागरिकों, वरिष्ठ अधिकारियों तथा सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की संयुक्त सभा का आयोजन किया गया हो, जिसमें सबने अपने आपसी एवं दलीय मतभेद भुलाकर शहीद के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की हो और शहीद के माता-पिता एवं परिजनों का सम्मान किया हो? जब शहीद का पार्थिव शरीर नगर में पहुंचता है तो क्या विद्यालयों के बच्चों को स्थानीय शिक्षा अधिकारी द्वारा उसकी जीवन कथा के बारे में बताया जाता है? क्या यह कहा जाता है कि उस सैनिक की शहादत से उस नगर और प्रदेश का गौरव बढ़ा है? क्या वे छात्र-छात्राएं व कॉलेज और विश्वविद्यालयों के छात्र नेता, जो कैंटीन की व्यवस्था या राष्ट्रीय राजनीति के किसी मुद्दे पर आए दिन हंगामा, हड़ताल करते हैं, उनमें से कभी किसी ने स्थानीय शहीद सैनिक के गांव में कोई छात्र प्रेरणा सभा या शहीद के सम्मान में अपने कॉलेज और विश्वविद्यालय में कोई कार्यक्रम आयोजित किया है? 

हम सब जुबानी खर्च करने वाले हैं। शब्द वीर, भाषण वीर और देशभक्ति के पाखंड में शिरोमणि लोग हैं। कभी 50-100 साल बाद किसी राजनेता की कोई संतान फौज में भर्ती होने का दृश्य उपस्थित करे तो इतनी दुर्लभ और असाधारण बात मानी जाती है कि उसे राष्ट्रीय समाचार का रूप दे दिया जाता है। देखो-देखो- देखो, एक राजनेता ने भी अपने बच्चे को फौज में भेज दिया है। राजनेताओं का बच्चा तो राजनेता ही बनेगा। यह बात सामान्य है और सर्वस्वीकार्य भी है। वह अगर फौज में जाता है तो भाई कमाल हो गया...राजनेता ने कितना  बड़ा बलिदान दिया कि अपने बच्चे को फौज में भेज दिया, ऐसी चर्चाएं होती हैं। कौस्तुभ राणे के माता-पिता या विक्रमजीत सिंह, मनदीप सिंह और हमीर सिंह के माता-पिता, भाई-बहन, बेटे-बेटी, पत्नी...कोई तो होंगे जिनकी कोई भावनाएं होंगी, सपने होंगे और शहादत के बाद उन सपनों का बिखरना...। क्या इस देश में भावनाएं और सपने, वेदना और रुदन सिर्फ राजनेता और पैसे वालों तक ही सीमित हैं? 

देहरादून में स्तब्धकारी घटना घटी। इससे पुन: पता चला कि हमारी देशभक्ति का जज्बा सिर्फ सतही है और राजनेता चाहे वह कैसा भी हो, सैनिक से भारी माना जाता है। वहां प्रेम नगर से एक लैफ्टिनैंट कर्नल राजेश गुलाटी दुश्मनों की गोलीबारी में अपने कत्र्तव्य का निर्वाह करते हुए शहीद हुए। उनकी पत्नी और क्षेत्र के लोग बहुत समय तक कोशिश करते रहे कि प्रेम नगर में कर्नल गुलाटी की याद में एक शहीद द्वार बने लेकिन स्थानीय राजनेताओं ने कई लाख रुपए खर्च कर एक नगरपालिका स्तर के व्यक्ति की याद में बड़ा द्वार बनवाया जिसका उद्घाटन भी कुछ समय पहले हुआ। कर्नल गुलाटी के अंतिम संस्कार में सत्ता पक्ष, विपक्ष, प्रशासन से कोई नहीं गया था। सरकार किसी भी रंग की हो, शहीदों का दुख समझने वाले कम ही मिलते हैं। देहरादून में जब मैंने 2.38 करोड़ रुपए की लागत से शौर्य स्थल बनाने का कार्य शुरू करवाया तो उसमें सहयोग की बजाय अड़चन डालने वाले ‘देशभक्त’ राजनेता ही थे। 

अनेक सांसद पूरी ताकत और जी-जान से ‘एक बड़े महान उद्देश्य’ के लिए  सक्रिय रहे कि देश के छावनी क्षेत्रों से सैनिक विशेषाधिकार समाप्त कर वहां आम आवागमन शुरू हो जाए, पर कभी सैनिकों के सम्मान के लिए, उनके माता-पिता की समस्याओं के समाधान हेतु प्रशासन के लिए विशेष निर्देश का प्रावधान बनाने का कानून लाने या संसद और विधानसभाओं का सत्र प्रारम्भ होते समय पिछले सत्र से तब तक की अवधि में शहीद हुए सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित करने की परम्परा शुरू करने के लिए संसद या विधानसभाओं में कभी कोई सक्रियता देखने को नहीं मिली। सैनिकों के प्रति सम्मान नकलीपन से नहीं ओढ़ा जा सकता। यह तो हृदय की वेदना से उपजा कार्य ही हो सकता है। इसमें अभी भारत को बहुत कुछ सीखना है।-तरुण विजय


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Pardeep

Recommended News