Kundli Tv- भगवान की भक्ति में नहीं शामिल ये चीज़, तो कभी न होगी ईश्वर प्राप्ति

punjabkesari.in Thursday, Aug 02, 2018 - 04:17 PM (IST)

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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद 
अध्याय 9: परम गुह्य ज्ञान

श्लोक-
अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवत्र्मनि॥ 3॥
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अनुवाद एवं तात्पर्य
हे परन्तप! जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते। अत: वे इस भौतिक जगत में जन्म-मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं। श्रद्धाविहीन के लिए भक्तियोग पाना कठिन है, यही इस श्लोक का तात्पर्य है। श्रद्धा तो भक्तों की संगति से उत्पन्न की जाती है। महापुरुषों से वैदिक प्रमाणों को सुनकर भी दुर्भाग्यपूर्ण लोग ईश्वर में श्रद्धा नहीं रखते। वे झिझकते रहते हैं और भगवद भक्ति में दृढ़ नहीं रहते। इस प्रकार कृष्णभावनामृत की प्रगति में श्रद्धा मुख्य है।


चैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि श्रद्धा तो यह पूर्ण विश्वास है कि परमेश्वर श्रीकृष्ण की ही सेवा द्वारा सारी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। यही वास्तविक श्रद्धा है।


श्रीमद्भागवत (4.31.14)में कहा गया है:-
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कंधभुजोपशाखा:
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या॥


‘‘वृक्ष की जड़ को सींचने से उसकी डालें, टहनियां तथा पत्तियां तुष्ट होती हैं और आमाशय को भोजन प्रदान करने से शरीर की सारी इंद्रियां तृप्त होती हैं। इसी तरह भगवान की दिव्य सेवा करने से सारे देवता तथा अन्य समस्त जीव स्वत: प्रसन्न होते हैं।’’ 

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अत: गीता पढ़ने के बाद मनुष्य को चाहिए कि गीता के ही इस निष्कर्ष को प्राप्त हो-मनुष्य को अन्य सारे कार्य छोड़ कर भगवान कृष्ण की सेवा करनी चाहिए। यदि वह इस जीवन-दर्शन से तुष्ट हो जाता है तो यही श्रद्धा है।


इस श्रद्धा का विकास कृष्णभावनामृत की विधि है। कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की तीन कोटियां हैं। तीसरी कोटि में वे लोग आते हैं जो श्रद्धाविहीन हैं। यदि ऐसे लोग ऊपर-ऊपर भक्ति में लगे भी रहें तो भी उन्हें सिद्ध अवस्था प्राप्त नहीं हो पाती। संभावना यही है कि वे लोग कुछ काल के बाद नीचे गिर जाएं। वे भले ही भक्ति में लगे रहें, किंतु पूर्ण विश्वास तथा श्रद्धा के अभाव में कृष्णभावनामृत में उनका लगा रह पाना कठिन है। कुछ लोग आते हैं और किन्हीं गुप्त उद्देश्यों से कृष्णभावनामृत को ग्रहण करते हैं। किंतु जैसे ही उनकी आर्थिक दशा कुछ सुधर जाती है वे इस विधि को त्यागकर पुन: पुराने ढर्रे पर लग जाते हैं।


कृष्णभावनामृत में केवल श्रद्धा के द्वारा ही प्रगति की जा सकती है। जहां तक श्रद्धा की बात है, जो व्यक्ति भक्ति साहित्य में निपुण है और जिसने दृढ़ श्रद्धा की अवस्था प्राप्त कर ली है, वह कृष्णभावनामृत का प्रथम कोटि का व्यक्ति कहलाता है। दूसरी कोटि में वे व्यक्ति आते हैं जिन्हें भक्ति-श्लोकों का ज्ञान नहीं है किंतु स्वत: ही उनकी दृढ़ श्रद्धा है कि कृष्णभक्ति सर्वश्रेष्ठ मार्ग है, अत: वे इसे ग्रहण करते हैं। इस प्रकार वे तृतीय कोटि के उन लोगों से श्रेष्ठतर हैं जिन्हें न तो शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान है और न ही श्रद्धा है, अपितु संगति तथा सरलता के द्वारा वे उसका पालन करते हैं।

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तृतीय कोटि के वे व्यक्ति कृष्णभावनामृत से च्युत हो सकते हैं, किंतु द्वितीय कोटि के व्यक्ति च्युत नहीं होते। प्रथम कोटि के लोगों के च्युत होने का तो प्रश्र ही नहीं उठता। प्रथम कोटि के व्यक्ति निश्चित रूप से प्रगति करके अंत में अभीष्ट फल प्राप्त करते हैं। तृतीय कोटि के व्यक्ति को यह श्रद्धा तो है कि कृष्ण की भक्ति उत्तम होती है किंतु भागवत तथा गीता जैसे शास्त्रों से कृष्ण का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। कभी-कभी इस तृतीय कोटि के व्यक्तियों की प्रवृत्ति कर्मयोग तथा ज्ञानयोग की ओर रहती है और कभी-कभी वे विचलित होते रहते हैं किंतु ज्यों ही उनसे ज्ञान तथा कर्मयोग का संदूषण निकल जाता है, वे कृष्णभावनामृत की द्वितीय कोटि या प्रथम कोटि में प्रविष्ट होते हैं। कृष्ण के प्रति श्रद्धा भी तीन अवस्थाओं में विभाजित है और श्रीमद्भागवत में इनका वर्णन है। जो लोग श्रीकृष्ण के विषय में तथा भक्ति की श्रेष्ठता को सुनकर भी श्रद्धा नहीं रखते और यह सोचते हैं कि यह मात्र प्रशंसा है, उन्हें यह मार्ग अत्यधिक कठिन जान पड़ता है। भले ही वे ऊपर से भक्ति में रत क्यों न हों। उन्हें सिद्धि प्राप्त होने की बहुत कम आशा है। इस प्रकार भक्ति करने के लिए श्रद्धा परमावश्यक है।
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Jyoti

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