बुजुर्गों की अनदेखी : आजकल ‘संस्कार’ नाम की कोई चीज नहीं रह गई

punjabkesari.in Tuesday, Jun 19, 2018 - 03:11 AM (IST)

अभी पिछले सप्ताह ही बालीवुड की विख्यात अभिनेत्री गीता कपूर का एक वृद्धाश्रम में निधन हो गया। यह इतनी उदासी भरी खबर मैंने लंबे समय बाद सुनी थी। अभिनेत्री के रूप में उन्होंने फिल्म ‘पाकीजा’ में काम किया था। अभी वह 67 वर्ष की थीं लेकिन देखने में 80 से कम नहीं लगती थीं। वह पिछले कुछ समय से अपने बच्चों पर निर्भर नहीं थीं। अपने बच्चों को उन्होंने बेहतरीन शिक्षा, अमीरी और ख्याति दी। लेकिन जब उनकी सेवा कराने की उम्र हो गई तो उनका बेटा और बेटी उन्हें अस्पताल में बीमारी की अवस्था में अकेली छोड़कर चल दिए ताकि उन्हें इनके इलाज का खर्च न देना पड़े। 

अस्पताल ने वृद्ध अभिनेत्री का इलाज तो कर दिया लेकिन उन्हें स्थायी तौर पर अपने यहां नहीं रख सकता था इसलिए उन्हें वृद्धाश्रम में भेज दिया गया। क्या आप यह परिकल्पना कर सकते हैं कि 67 वर्ष की जानी-मानी अभिनेत्री का उनके अपने ही बच्चों द्वारा परित्याग कर दिया जाए और उसके पास जाने के लिए कोई जगह न हो? यह प्रसिद्ध अभिनेत्री बहुत निम्र दर्जे के एक मध्यमवर्गीय वृद्धाश्रम के रहमोकरम पर बिल्कुल तन्हाई में रह रही थी। मैं आश्चर्यचकित होकर सोचती हूं कि यदि उसके बेटे के अंदर अंत:करण नाम की कोई चीज होती तो वह आज क्या सोच रहा होता? स्पष्ट बात तो यह है कि उसके अंदर ऐसी कोई चीज है ही नहीं। क्योंकि यदि ऐसा होता तो वह अपनी मां को उस समय अस्पताल में छोड़कर जाने की हिमाकत न करता जब उसे अपने बेटे की सबसे अधिक जरूरत थी। 

गीता की बेटी एक परिचारिका है और स्पष्ट है कि वह काफी अच्छी कमाई करती है तथा अपनी मां की सेवा-संभाल बढिय़ा ढंग से कर सकती है। लेकिन खेद की बात है कि उसने भी ऐसा नहीं किया। सबसे चिंता की बात तो यह है कि ऐसी घटनाएं अब लगातार बढ़ती जा रही हैं। माता-पिता अपना सब कुछ दाव पर लगाकर अपने बच्चों का जीवन संवारते हैं। वे अपनी जवानी और अधेड़ आयु बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए बलिदान कर देते हैं। वे अपने बच्चों को बेहतरीन शिक्षा, कपड़े, भोजन के साथ-साथ जीवन में आगे बढऩे की हर सुविधा देते हैं। अब तो ऐसा लगता है कि बच्चों का पालन-पोषण केवल ‘वन-वे’ बनकर रह गया है जहां अभिभावक तो अपनी संतानों की देखभाल करते हैं लेकिन संतानें उनके प्रति अपने दायित्व से मुंह फेर रही हैं। आज की यह पीढ़ी स्वार्थी होने के साथ-साथ नैतिकता-शून्य महत्वाकांक्षाओं से भरी हुई है। 

मैं तो इस कल्पना मात्र से कांप उठती हूं कि इस वृद्धा को किस यातना में से गुजरना पड़ा होगा। मैं यह जानती हूं कि आजकल के बच्चों को एक-एक पैसा बचाने के लिए किस तरह जीवन से संघर्ष करना पड़ता है। उनके भी परिवार होते हैं और उनके प्रति उनके दायित्व भी होते हैं। उनकी पत्नी और बच्चे होते हैं और मैं निश्चय से कह सकती हूं कि उनके बच्चे भी उनके साथ एक न एक दिन ऐसा ही व्यवहार करेंगे क्योंकि आजकल संस्कार नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। माता-पिता के प्रति श्रद्धा भाव पता नहीं कहां गायब हो गया है। मुझे महसूस होता है कि संयुक्त परिवारों की हमारी पुरानी परम्परा कई गुना बेहतर थी। 

लेकिन अब हम इस बात पर आते हैं कि सरकार और कानून इस मामले में क्या कर सकते हैं। मैंने सुना है कि एक नया कानून बनने जा रहा है जिसके अंतर्गत बच्चों को अनिवार्य तौर पर अपने अभिभावकों की सेवा-सुश्रुषा करनी होगी और यदि वे ऐसा नहीं करते तो अदालत उनके विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करेगी। लेकिन ऐसे कितने अभिभावक होंगे जो अपने बच्चों के विरुद्ध शिकायत दर्ज करवाने की हिम्मत दिखाएंगे? कोई ज्यादा नहीं। मैं निश्चय से कह सकती हूं कि माता-पिता अभी भी पुराने जमाने की दुनिया में जी रहे हैं। 

आज भी उन्हें यह भावना तंग करती है कि यदि उन्होंने अपने बच्चों के विरुद्ध कोई मामला दर्ज करवाया तो दुनिया क्या कहेगी; बच्चों के बच्चे क्या कहेंगे? बच्चे शायद इन बातों को न तो समझ पाएंगे और न ही इन पर विश्वास करेंगे। शायद उनके अंदर भी अंतरात्मा नाम की कोई चीज नहीं होगी। लेकिन मेरे जैसे बुजुर्गों के अंदर तो अभी भी अंत:करण जागृत है। मेरे जैसे अभिभावक अभी भी अपने बच्चों को अदालतों में घसीटना नहीं चाहेंगे। हम उन्हीं की बातें सुनते हैं और जैसा वे चाहते हैं उसी के अनुसार काम करते हैं। सच्चाई यह है कि हम उनके साथ किसी विवाद में नहीं उलझना चाहते और उनके मुंह से निकलने वाली बेहूदा से बेहूदा बातों को भी दिव्य वाक्य मानते हैं। लेकिन क्या अब इस पीढ़ी को सबक सिखाने का उचित समय नहीं आ गया है? 

काश! बहुत सारे समाज सेवी संगठन (एन.जी.ओ.) होते। काश! वृद्धाश्रम भी काफी संख्या में होते। मैं चाहती हूं कि वृद्ध नागरिकों को सुविधापूर्वक जीने के लिए आपस में मिलकर रहना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि नागरिक अभी से अपनी वृद्धावस्था के लिए पैसा बचाना शुरू कर देंगे ताकि उन्हें अपने बच्चों के आगे हाथ न फैलाना पड़े। मैं चाहती हूं कि सरकार वरिष्ठ नागरिकों के लिए और अधिक काम करे व मेरी यह भी इच्छा है कि कानून बनाने वाले इन घटनाक्रमों पर अंकुश लगा सकें। स्कूलों और कालेजों में संयुक्त परिवारों की हमारी पुरातन जीवन शैली के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए और इसे अधिक से अधिक महत्व (लीवरेज) भी दिया जाना चाहिए। ऐसा करने से हमें परिवार में किसी के आगे सहायता के लिए हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा क्योंकि हर कोई एक-दूसरे की सहायता कर रहा होगा। ऐसी अवस्था से ईंधन की बचत होगी, मकानों का किराया कम देना पड़ेगा और बिजली की भी बचत होगी। लेकिन फिर भी मैं यह उम्मीद करती हूं कि हमारे वरिष्ठ नागरिक संयुक्त परिवारों में भी नौकर बन कर न रह जाएं। 

मैं विभिन्न राज्यों के बहुत से वरिष्ठ नागरिकों को जानती हूं जिनके बच्चे उन्हें अपने साथ विदेशों में तो ले गए लेकिन वहां उनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार करते हैं। उन्हें घर के सभी छोटे-मोटे काम करने पड़ते हैं, बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है और यहां तक कि कपड़े भी धोने पड़ते हैं। बेहतर तो यही है कि इस तरह के अभिभावक अकेले अपने दम पर ही जीवन व्यतीत करें। अपने लिए पैसा बचाएं और वृद्धाश्रमों या सर्विस अपार्टमैंटों में मजे से जिंदगी जिएं। हमें इस संबंध में अधिक जागरूकता पैदा करनी होगी। हमें सरकार तथा प्राइवेट कम्पनियों द्वारा बनाए गए ऐसे अधिक वृद्धाश्रमों और सेवालयों की जरूरत है जहां हम अपने भविष्य में निवेश कर सकें। 

ऐसा ही एक बिल्कुल मध्यमवर्गीय वृद्धाश्रम गुडग़ांव में है जबकि देहरादून में धनाढ्य अमीरों के  लिए ‘मैक्स’ कम्पनी ने बहुत ही महंगा वृद्धाश्रम स्थापित किया है और अब हर जगह सर्विस अपार्टमैंट्स अस्तित्व में आ रहे हैं और ये भी काफी महंगे होते हैं। मेरी हार्दिक इच्छा और उम्मीद है कि इन बातों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए तथा सरकार भी इनका अधिक संज्ञान ले। बेचारी गीता कपूर को बेसहारा छोड़ दिया गया था और वह हमें छोड़ गई हैं। आइए उनके लिए प्रार्थना करें।-देवी चेरियन
 


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