2019 के चुनावों में भाजपा को नुक्सान पहुंचा सकती है इसकी ‘दलित विरोधी छवि’

punjabkesari.in Tuesday, Jun 19, 2018 - 02:51 AM (IST)

महाराष्ट्र में भाजपा सरकार ने अगले चुनावी वर्ष से पहले ही दलितों का दिल जीतने के लिए विशालाकार अम्बेदकर स्मारक के काम में तेजी लाने के साथ-साथ गरीब और बे-जमीने अनुसूचित जाति श्रमिकों को कृषि भूमि खरीदने के लिए 100 प्रतिशत सबसिडी देने की घोषणा की है। 

फिर भी दलितों में भाजपा के दलित विरोधी पार्टी होने की अवधारणा काफी हद तक जस की तस बनी हुई है-सामुदायिक नेताओं तथा राजनीतिक विश्लेषकों का ऐसा ही मानना है। दलित समुदाय में व्हाट्सएप एवं अन्य सोशल नैटवर्कों के माध्यम से जो संदेश फैलाए जा रहे हैं उनका स्वर भी इसी अनुगूंज से भरा हुआ है। भीमा-कोरेगांव दंगों जैसी हाल ही की घटनाओं से केवल इस दृष्टिकोण की पुष्टि ही होती है। 

सरकार के लिए काम करने वाले एक दलित ठेकेदार ने अपना नाम उजागर न करने की शर्त पर कहा: ‘‘भाजपा एक ब्राह्मणवादी पार्टी है। हमने 2014 में इसे एक मौका दिया था लेकिन भीमा-कोरेगांव हिंसा के मामले में इसकी कारगुजारी तथा दलित उत्पीडऩ अधिनियम की धाराओं को कमजोर किए जाने से यह सिद्ध होता है कि भाजपा दलितों के प्रति न्यायप्रिय नहीं है।’’ भीमा-कोरेगांव प्रकरण ने महाराष्ट्र के दलित समुदाय को काफी आहत किया है। 1818 के एक युद्ध में उच्च जाति पेशवाओं की सेना पर दलित समुदाय के ब्रिटिश सैनिकों की जीत की याद मना कर लौट रहे लोगों पर कथित तौर पर हल्ला बोला गया जिससे दंगे भड़क उठे। 

दलित समूहों का दावा है कि इन दंगों की योजना भाजपा और आर.एस.एस. से संबंधित 2 व्यक्तियों सम्भाजी भिड़े तथा मिलिन्द एकबोते ने तैयार की थी। सरकार ने कहा है कि भिड़े के विरुद्ध कोई साक्ष्य नहीं मिला, लेकिन एकबोते को गिरफ्तार कर लिया गया और अब वह जमानत पर रिहा हो चुका है। भीमा-कोरेगांव दलित मार्च के एक संयोजक की गत माह गिरफ्तारी के बाद दलित समुदाय में काफी आक्रोश भड़का हुआ है जबकि पुलिस का कहना है कि सुधीर दामले नामक इस व्यक्ति ने नक्सलवादियों के साथ मिलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रची थी। 

दलित लेखक एवं एक्टिविस्ट आनंद तेलतुम्बले जैसे लोग धावले की गिरफ्तारी को दंगों के असली दोषियों को बचाने का प्रयास करार दे रहे हैं। तेलतुम्बले ने कहा, ‘‘जो कुछ हो रहा है वह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और स्पष्ट रूप में यह संदेश दिया जा रहा है कि जब भी दलित अपनी आवाज उठाएंगे तो उन्हें मसलकर रख दिया जाएगा और सरकार यही काम कर रही है। जो लोग खुलेआम दंगों में सम्मिलित थे वे स्वतंत्र घूम रहे हैं और जनता का ध्यान भटकाने के लिए सरकार नक्सलवाद का हौवा खड़ा कर रही है।’’ 

रविवार की जिस घटना में दो दलित युवकों को कथित तौर पर नंगा करके पीटा गया था क्योंकि उन्होंने उच्च जाति के एक व्यक्ति के कुएं में निर्वस्त्र होकर स्नान किया था, उससे भाजपा के विरुद्ध संदेह और भी पुख्ता हुआ है। तेलतुम्बले ने आगे बताया, ‘‘दलित समुदाय में प्रत्यक्ष रूप में आक्रोश दिखाई दे रहा है। हमारी आवाज को दबाते हुए एक प्रतिमा लगाने या कोई स्कीम शुरू करने की घोषणा से कुछ संवरने वाला नहीं है।’’ लेखक, शोधकत्र्ता एवं राजनीतिक विश्लेषक नीलू दामले का कहना है: ‘‘दलित कभी भी भाजपा और आर.एस.एस. के प्रति दीवाने नहीं रहे क्योंकि उनका मानना है कि दोनों ही संगठन ब्राह्मणवादी हैं। आर.एस.एस. को कुछ जल्दी ही इस बात की अनुभूति हो गई थी इसलिए 1977 में ही उसने विभिन्न समुदायों के लोगों को अपने संगठन में लाना शुरू कर दिया था ताकि यह दिखा सके कि वह कितना सर्वसमावेशी है।’’ 

वह आगे कहते हैं: ‘‘महाराष्ट्र में भाजपा की कोई आर्थिक जड़ें नहीं हैं क्योंकि चीनी और कपड़े की जो मिलें रोजगार प्रदान करती थीं वे कांग्रेस द्वारा नियंत्रित थीं। यानी कि दलितों में भाजपा के प्रति झुकाव न होने का एक कारण यह भी था कि उन्हें रोजगार प्रदान करने में भाजपा की कोई भूमिका नहीं थी।’’ लेकिन नरेंद्र मोदी के राजनीतिक पटल पर उभरते ही 2014 में स्थितियां बदलनी शुरू हो गईं। दामले कहते हैं: ‘‘दलितों को लगने लगा कि वह एक ऐसे नेता हैं जो जाति की अनदेखी करते हुए रोजगार सृजन करेंगे और इसलिए उन्होंने उनके पक्ष में मतदान किया। लेकिन दलितों के साथ किया गया वायदा पूरा नहीं हुआ। ग्रामीण अर्थव्यवस्था बदहाल है और कोई रोजगार पैदा नहीं हो रहे हैं। ऊपर से भीमा-कोरेगांव तथा दलित उत्पीडऩ कानून में लाई गई नरमी से स्थितियां और भी बिगड़ गई हैं।’’ 

महाराष्ट्र में दलित जनसंख्या लगभग 11.81 प्रतिशत है और कुछ पट्टियों में उनकी इतनी सघनता है कि वे कई सारी सीटें जीत सकते हैं। दलित आक्रोश मतदान के रूप में कौन-सा रुख अपनाएगा इस बारे में दामले निश्चय से कुछ नहीं बता पाए लेकिन उन्होंने यह बात अवश्य कही कि ‘‘कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही दलितों के लिए कुछ नहीं किया। सोशल नैटवर्कों पर होने वाली चर्चा से कुछ फर्क अवश्य पड़ेगा फिर भी यह निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि वे मुख्य रूप में किसके पक्ष में मतदान करेंगे।’’-टी. कृष्णा


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