जी.एस.टी. दरों में कटौती के लिए अब और कितना इंतजार होगा

punjabkesari.in Monday, Jun 11, 2018 - 10:53 AM (IST)

नेशनल डेस्कः वस्तु एवं सेवाकर (जी.एस. टी.) के अंतर्गत राजस्व  के जो आंकड़े मई 2018 में हासिल हुए हैं उन्होंने इसकी उगाही में मंदी आने की चिंताएं जगा दी हैं। वैसे इस तरह के डर निर्मूल हैं। मई माह में राजस्व वसूली का आंकड़ा 0.94 ट्रिलियन रुपए रहा था और केवल एक विशेष महीने की उगाही के आंकड़ों में आई छोटी सी गिरावट के बूते कोई निष्कर्ष निकालना उतना ही त्रुटिपूर्ण है जितना राजस्व वसूली में आने वाले मौसमी उछाल पर बांछें खिलाना। दोनों ही मामलों की दृष्टि से गत सप्ताह जारी हुए जी.एस.टी. राजस्व के आंकड़े टैक्स वसूली में स्वस्थ और दमदार वृद्धि का संकेत देते हैं।

स्मरण रहे कि ये आंकड़े वित्तीय वर्ष के प्रथम महीने यानी कि अप्रैल की टैक्स वसूली से संबंधित हैं। गत 5 वर्षों के लिए  वित्त मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि राजस्व और सेवाकर की सबसे कम वसूली अप्रैल माह में ही होती है यानी कि पूरे वर्ष की टैक्स वसूली के मात्र 7 प्रतिशत के आसपास। इसके विपरीत मार्च माह में वसूली सबसे अधिक होती है और वाॢषक टैक्स वसूली के 11 प्रतिशत तक भी चली जाती है।

वैसे अप्रैल माह में जी.एस.टी. के अंतर्गत हुई 0.94 ट्रिलियन रुपए की वसूली मार्च माह की 1 ट्रिलियन वसूली से कम है। लेकिन यह गिरावट उतनी नहीं है जितनी गत वर्षों में इसी अवधि दौरान आती रही है।

एक अन्य कोण से दृष्टिपात करें तो अप्रैल 2018 की कारगुजारी  कहीं अधिक प्रभावशाली सिद्ध होगी। 2018-19 के पूरे वर्ष के लिए जी.एस.टी. के अंतर्गत टैक्स वसूली का बजटीय अनुमान 7.44 ट्रिलियन रुपए लगाया गया है। पिछली टैक्स वसूलियों में आने वाले मौसमी उतार-चढ़ावों की दृष्टि से देखा जाए तो अप्रैल माह में वसूली 0.52 ट्रिलियन के आसपास रहनी चाहिए थी जोकि पूरे वर्ष के लिए अपनाए गए लक्ष्य का 7 प्रतिशत बनता है। लेकिन वास्तविक वसूली 0.94 प्रतिशत ट्रिलियन है जोकि सम्पूर्ण  वर्ष के लिए बजटीय अनुमान के 12 प्रतिशत से भी ऊपर है।

यह वृद्धि काफी असाधारण है और यह  इस कारण संभव हुई है कि जी.एस.टी. प्रणाली के अंतर्गत कर का दायरा बढऩे से करदाताओं की संख्या में 53 प्रतिशत बढ़ौतरी हुई है और यह अर्थव्यवस्था की बढ़ी हुई औपचारिकता का संकेत है जिसके फलस्वरूप अधिक इकाइयां  टैक्स के दायरे में आई हैं। यह सरकार की वित्तीय सुदृढ़ीकरण की योजना के लिए बहुत शुभ संकेत है। बशर्ते कि अपनिवेश जैसे इसके अन्य राजस्व  प्रवाह पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े और न ही सरकार के अपने खर्चे पर कोई अतिरिक्त बोझ पड़े।

जी.एस.टी. वसूली में इस शानदार वृद्धि से राज्यों को भी लाभ पहुंचेगा।  अधिकतर राज्यों ने अपने 2018-19 के बजटों में पहले ही जी.एस.टी. की बदौलत अपने टैक्स राजस्व के अनुमानों में काफी बढ़ौतरी की हुई है। कम से कम 16 राज्य ऐसे हैं जिन्होंने 2018-19 के दौरान टैक्स राजस्व में 50 प्रतिशत या इससे अधिक वृद्धि का अनुमान लगाया है

गत सप्ताह जारी किए गए जी.एस.टी. राजस्व आंकड़ों में से बहुत बड़ा हिस्सा तो राज्यों को क्षतिपूर्ति के रूप में हस्तांतरित हो जाएगा क्योंकि जी.एस.टी. लागू होने से राज्यों का राजस्व प्रभावित हुआ था। 2017-18 के सम्पूर्ण वर्ष के लिए केन्द्र सरकार ने राज्यों को टैक्स क्षतिपूर्ति के रूप में 0.48 ट्रिलियन रुपए आबंटित किए हैं जोकि इस वर्ष के दौरान की जाने वाली क्षतिपूर्ति का केवल तीन चौथाई भाग बनती है।

जरा इस बात पर ङ्क्षचतन करें कि केन्द्र और राज्यों द्वारा की जाने वाली टैक्स वसूली और जी.एस.टी. प्रणाली के लिए इसके क्या अर्थ होंगे। यदि क्षतिपूर्ति उपकर (सैस) की उगाही का यही रुझान जारी रहता है तो सरकार करदाताओं से वसूल किए गए राजस्व की काफी बड़ी राशि  का सुख ले सकेगी क्योंकि यह राशि जी.एस.टी. क्षतिपूर्ति कोष में काफी समय तक पड़ी रह सकती है।

2018-19 में सरकार क्षतिपूर्ति उपकर के रूप में कुल 0.9 ट्रिलियन रुपए की वसूली की उम्मीद करती है। चूंकि राज्यों का राजस्व बढऩे के फलस्वरूप उनके द्वारा क्षतिपूर्ति कोष में से हिस्से की कम मांग किए जाने के फलस्वरूप यदि 75 प्रतिशत राशि की ही निकासी होती है तो 5 वर्षों की अवधि में बहुत आसानी से क्षतिपूर्ति कोष की राशि एक ट्रिलियन रुपए से ऊपर चली जाएगी।

जी.एस.टी. व्यवस्था में यह प्रावधान किया गया है कि क्षतिपूर्ति  सैस 5 वर्षों तक ही लगाई जाएगी और  जिस राशि पर राज्यों द्वारा कोई दावा नहीं किया जाता वह सरकारी खजाने में भेजी जाएगी और इस राशि  को क्षतिपूर्ति सैस वापस लिए जाने के 5 वर्षों बाद केन्द्र और राज्यों के बीच बराबर-बराबर बांट दिया जाएगा।

ऐसे में टैक्स ढांचे के बारे में निर्णय लेने वाली जी.एस.टी. परिषद को क्या करना चाहिए? एक विकल्प यह है कि क्षतिपूर्ति सैस दर को घटाने पर मंथन करना चाहिए। वर्तमान में यह सैस यानी उपकर बोतलबंद पेयों, सिगरेटों, तम्बाकू उत्पादों और मोटर वाहनों सहित 50 मदों पर लगता है। अब यदि सरकार को राज्यों की क्षतिपूर्ति के लिए इतना अधिक राजस्व जमा करने की जरूरत नहीं तो परिषद को सॉफ्ट ड्रिंक्स एवं मोटर वाहनों जैसे क्षेत्रों पर टैक्स का अकारण बोझ क्यों लादना चाहिए, जबकि राज्यों के अपने राजस्व में तेजी से वृद्धि हो रही है?

जी.एस.टी. के नियमों के अंतर्गत  राज्यों को जी.एस.टी. के कारण हुई राजस्व हानि के लिए हर तीसरे महीने  क्षतिपूर्ति की जानी है। ऐसे में दावों की यथास्थिति बारे में पता होना चाहिए और उनका निपटान भी तत्परता से होना चाहिए ताकि बाद में उठने वाली आशंकाओं का पहले से ही निवारण हो जाए। वैसे इस बात का क्या तुक है कि राजस्व इक_ा किया जाए और उसका ऐसे कोष में संग्रहण किया जाए जिसका आबंटन ही 5 वर्ष बाद किया जाना है? ऐसा होता है तो राज्यों और केन्द्र के खजाने में अचानक ही राजस्व की बाढ़ आ जाएगी जिसके अर्थव्यवस्था के लिए घातक परिणाम हो सकते हैं।

दूसरा विकल्प यह है कि जी.एस.टी. प्रणाली के अंतर्गत राजस्व वृद्धि में आए उछाल की वास्तविकता को पहचाना जाए और 28 प्रतिशत वाली टैक्स स्लैब को घटा कर 18 प्रतिशत करने तथा 5 प्रतिशत वाली स्लैब को ऊंचा उठा कर 12 प्रतिशत करने पर विचार किया जाए। केवल कुछ अति जरूरी मदों को ही इस व्यवस्था से छूट दी जाए। यहां तक कि डीजल और पैट्रोल को जी.एस.टी. तंत्र के अंतर्गत लाने का मुद्दा भी इन दोनों मदों के लिए एक विशेष टैक्स दर से शुरूआत करके परखा जाना चाहिए। वर्तमान में पैट्रोलियम तेलों पर 62 से लेकर 94 प्रतिशत तक टैक्स लगता है और केन्द्र तथा राज्यों के राजस्व को कोई बड़ा झटका दिए बिना पैट्रोल और डीजल पर लगने वाले टैक्स को धीरे-धीरे नीचे लाने के लिए रोड मैप तैयार किया जाए।

संक्षेप में जी.एस.टी. की ऊंची टैक्स उगाही से जो अवसर पैदा हुआ है उसे भाड़ में न गंवाया जाए। जी.एस.टी. के अंतर्गत पैट्रोल और डीजल पर टैक्स घटने के बहुत दूरगामी व सकारात्मक परिणाम होंगे क्योंकि अनेक प्रकार के उद्योग इन दोनों उत्पादों को इनपुट्स के रूप में प्रयुक्त करते हैं। इसके साथ-साथ अन्य कई उत्पादों पर टैक्स कटौती के रूप में वित्तीय प्रोत्साहन  देने से वृद्धि और खपत दोनों को बढ़ावा मिलेगा। सवाल केवल इतना है कि यह काम करने के लिए जी.एस.टी. परिषद कितनी देर तक इंतजार करती रहेगी। (साभार ‘बिजनैस स्टैंडर्ड’) - ए.के. भट्टाचार्य


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