हर किसी में होना चाहिए ये Art

punjabkesari.in Sunday, Jun 10, 2018 - 09:24 AM (IST)

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यदि हम संसार में रहना सीख जाएं, तो हमारी मुक्ति हो जाए। संसार में रहना एक कला है। संसार में रहने की कला क्या है- इस पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। जैसे हम हैं और हमारे माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई-भाभी आदि हैं, तो हम उनके साथ केवल उनके हित के लिए व्यवहार करें। केवल उनकी सेवा करें, उनको सुख पहुंचाएं और अपने सुख की जरा भी इच्छा न करें। यदि हम अपने सुख की इच्छा करते हैं तो हमें संसार में रहना आया ही नहीं।

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हम अपने कुटुम्ब में रहते हैं, तो कुटुम्ब की सेवा करते हैं, पर जब बाहर चले जाते हैं तब वहां सेवा नहीं करते, बल्कि सेवा लेते हैं। कोई हमें मार्ग बता दे, हमारी सहायता कर दे, हमें रहने की जगह दे दे, हमें ऐसा कुछ दे दे, जिससे हम अपनी यात्रा ठीक तरह से कर सकें- इस प्रकार सेवा चाहते हैं जबकि इससे हमारा कल्याण नहीं होता।

 
हम किसी से कुछ भी चाहते हैं तो हम पराधीन हो जाते हैं- यह पक्का सिद्धांत है लेकिन जहां हम किसी से कुछ भी नहीं चाहते वहां हम बिल्कुल पराधीन नहीं होते बल्कि स्वाधीन होते हैं। संसार में कुछ भी चाहना अपने आप को पराधीन बनाना है। अत: अपनी चाहना तो रखें नहीं और दूसरों की न्याययुक्त चाहना अपनी शक्ति के अनुसार पूरी कर दें, तो हम स्वाधीन हो जाएंगे।


अब प्रश्र यह है कि जब हम दूसरों से कुछ भी नहीं चाहते तो फिर उनकी चाहना पूरी क्यों करें? इसका उत्तर यह है कि उनकी चाहना पूरी करने से अपनी चाहना के त्याग की सामर्थ्य आ जाएगी। यदि हम अपनी चाहना पूरी करने में ही लगे रहें तो अपनी चाहना के त्याग की सामर्थ्य नष्ट हो जाएगी और हम सर्वथा पराधीन हो जाएंगे, पतित हो जाएंगे। यदि हम उनकी सेवा करते रहेंगे तो हम स्वतंत्र हो जाएंगे, संसार में रहकर संसार से ऊंचे उठ जाएंगे। इसी को मुक्ति नाम दिया जाता है।

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भगवान कहते हैं कि जिनका मन साम्यावस्था में स्थित हो गया है, उन पुरुषों ने जीवित अवस्था में ही संसार को जीत लिया है। यह साम्यावस्था क्या है? जो भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति मिले, उसमें सुख-दुख, हर्ष-शोक न हो। संसार की परिस्थिति हमें कभी डिगा न सके तो हमने विजय प्राप्त कर ली। यदि संसार की अनुकूलता और प्रतिकूलता से हम प्रभावित हो गए तो हम हार गए। अनुकूलता-प्रतिकूलता कब हमें प्रभावित नहीं करेगी? जब हम संसार में अपने लिए नहीं बल्कि संसार के लिए ही संसार में रहेंगे। इस प्रकार रहने से हम संसार से ऊंचे उठ जाएंगे।
 

हमारे माता-पिता हैं तो हम माता-पिता की सेवा करें और उनसे कोई चाहना न रखें। उनसे चाहना क्यों नहीं रखें? उनका दिया हुआ ही शरीर है, सामर्थ्य है। हमें जो कुछ मिला है उन लोगों से ही मिला है। अत: उनसे मिले हुए शरीर, सामर्थ्य, समझ, सामग्री आदि के द्वारा उनकी ही सेवा करनी है। उनसे मिली हुई वस्तु उनको ही दे देनी है। देने के लिए ही हमें रहना है, लेने के लिए नहीं। उनके लिए ही रहना है, अपने लिए नहीं। 
 

यदि हम अपने लिए नहीं रहेंगे तो वे हमारे साथ अच्छा व्यवहार करें अथवा बुरा व्यवहार करें, उसका हमारे ऊपर असर नहीं पड़ेगा। उनकी सेवा कैसे की जाए, उनको सुख कैसे पहुंचे, उनको आराम कैसे पहुंचे,उनका भला कैसे हो, उनका उद्धार कैसे हो,उनका कल्याण कैसे हो- केवल यही भाव रखना है। हम दुखी तभी होंगे जब उनसे कुछ चाहेंगे और वे नहीं करेंगे। हम उनसे कुछ चाहते ही नहीं तो हम दुखी कैसे होंगे? हम तो केवल उनके सुख के लिए, उनके आराम के लिए ही रहते हैं। अत: उनको सुख पहुंचाना ही हमारा काम है। उनको सुख कैसे पहुंचे, इसके लिए संसार में रहना है। अपने लिए कुछ चाहना हमारा कर्तव्य नहीं है। हमारा कर्तव्य तो उनकी चाहना पूरी करना है। 

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उनकी चाहना पूरी करने में दो बातों का ख्याल रखना है- उनकी चाहना न्याययुक्त हो और हमारी सामर्थ्य के अनुरूप हो। यदि उनकी चाहना न्यायमुक्त हो, पर उसे पूरा करना हमारी सामर्थ्य के बाहर की बात हो, तो हाथ जोड़कर माफी मांग लें कि हम तो समर्थ नहीं हैं, हमारे पास इतनी शक्ति नहीं है, इसलिए आप माफ करें। यदि सामर्थ्य हो, तो उनकी चाहना पूरी कर दें। इस प्रकार संसार में रहें।


कमल का पत्ता जल में रहता है, पर वह जल से भीगता नहीं। जैसे कपड़ा भीग जाता है, वैसे वह भीगता नहीं। जल उसके ऊपर मोती की तरह लुढ़कता रहता है। ऐसे ही यदि हम संसार में अपने लिए न रहकर केवल दूसरों के लिए ही रहेंगे, तो हम भी कमल के पत्ते की तरह निर्लिप्त रहेंगे, संसार में फंसेंगे नहीं।


इसलिए संसार में केवल दूसरों की सेवा के लिए ही रहें। उनसे मिली हुई चीज़ उनको ही देते रहें और बदले में कुछ भी लेने की इच्छा न रखें। उनकी सेवा करने से पुराना ऋण उतर जाएगा और उनसे कुछ भी लेने की इच्छा न करने से नया ऋण पैदा नहीं होगा। यदि हम उनकी सेवा नहीं करेंगे तो उनका हमारे ऊपर ऋण रहेगा और उनसे चाहते रहेंगे तो नया ऋण हमारे ऊपर चढ़ता रहेगा।


संसार में हम रहें, पर संसार से सुख न चाहें, बल्कि सुख देते रहें। सेवा करते रहें लेकिन सेवा लेने की चाहना भीतर से बिल्कुल उठा दें, तो हमें संसार में रहना आ गया, हम मुक्त हो गए। 

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लेने की इच्छा का नाम ही बंधन है। कोई हमारी सेवा करेगा तो हम सुखी हो जाएंगे,यह विपरीत बुद्धि है। सेवा लेने से तो हम ऋणी हो जाएंगे, सुखी कैसे हो जाएंगे? पापी आदमी की तो मुक्ति हो सकती है, पर ऋणी आदमी की मुक्ति नहीं हो सकती। पापी आदमी अपने पाप का प्रायश्चित कर लेगा अथवा उसका फल भोग लेगा, तो वह पाप से मुक्त हो जाएगा। लेकिन दूसरे से ऋण लेने वाले अथवा दूसरे का अपराध करने वाले की मुक्ति तभी होगी जब दूसरा उसे माफ कर दे, इसलिए जब तक हम संसार के ऋणी रहेंगे तब तक हमारी मुक्ति नहीं होगी। जिनसे हमने सेवा ली है और जो हमारे से सेवा चाहते हैं, उनकी निष्काम भाव से सेवा कर दें तो हम उऋण हो जाएंगे।


जब तक हम संसार से लेना नहीं छोड़ेंगे तब तक हम उऋण नहीं हो सकते, मुक्त नहीं हो सकते, इसलिए लेने का खाता ही उठा दें और सबको देना-ही-देना शुरू कर दें। माता-पिता को भी देना है, स्त्री-संतान को भी देना है, भाई-बंधुओं को भी देना है।


सबको देना है, सबकी सेवा करनी है और लेना कुछ नहीं है। जहां लेने की इच्छा हुई कि फंसे! लेने की इच्छा करने से आदमी को बहुत नीचे उतरना पड़ता है। यदि लेने की इच्छा ही नहीं हो तो हम भगवान के भी गुलाम नहीं होते।


हम भगवान के भक्त तो होते हैं, पर गुलाम नहीं होते लेकिन कब? जब हम भगवान से कुछ भी लेना नहीं चाहते। गीता में भगवान ने कहा कि अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी) इन चारों प्रकार के भक्तों में ज्ञानी अर्थात प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है। उस ज्ञानी भक्त को मैं अत्यंत प्रिय हूं और वह भी मुझे अत्यंत प्रिय है। चारों प्रकार के भक्त बड़े उदार हैं लेकिन ज्ञानी भक्त तो मेरा स्वरूप ही है। कारण यह है कि ज्ञानी भक्त भगवान से कुछ नहीं चाहता। अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु तो भगवान से कुछ-न-कुछ चाहते हैं, अत: उन चाहने वाले भक्तों का दर्जा कम हो गया।

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भगवान कहते हैं कि मैं तो देता रहूंगा, अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा मैं करूंगा, लेकिन तू चाहना मत कर। कितनी अच्छी बात कही! न चाहने से प्रेम होता है लेकिन चाहने से प्रेम नहीं, बंधन होता है। वह इससे चाहता है और यह उससे चाहता है तो आपस में प्रेम नहीं होता। दोनों एक-दूसरे से चाहते हैं तो दोनों ही ठग हैं। संसार में चाहना मानो ठगाई में जाना है इसलिए चाहना का त्याग करके सेवा करनी है। यही संसार में रहने का तरीका है।


संसार में रबड़ की गेंद की तरह रहना चाहिए, मिट्टी के लोंदे की तरह नहीं। गेंद फुदकती रहती है कहीं भी चिपकती नहीं लेकिन मिट्टी का लोंदा जहां जाए वहीं चिपक जाता है। यदि मनुष्य संसार में सेवा करने के लिए ही रहे, अपने लिए नहीं रहे तो वह संसार में चिपकेगा नहीं, मुक्त हो जाएगा। यही संसार में रहने की कला है।


हम अपने घरों में उसी प्रकार रहें जैसे कोई अतिथि रहता है। जैसे कोई सज्जन अतिथि आ जाता है और रातभर रहता है तो वह कहता है कि भाई! तुम सब भोजन कर लो, जो बचे वह मैं पा लूंगा। तुम सब अपनी-अपनी जगह में रह जाओ, फालतू  जगह में मैं रह जाऊंगा। जो कपड़ा-लत्ता आपके काम हो वह आप ले लें और जो फालतू हो, वह मुझे दे दें, उससे मैं निर्वाह कर लूंगा। लेकिन रात में यदि आग लग जाए, चोर-डाकू आ जाएं, कोई आफत आ जाए, बीमारी आ जाए वह सबसे आगे होकर सहायता करता है। उसका भाव यह रहता है कि मैंने इनका अन्न-जल लिया है, इनके यहां विश्राम किया है। 


इसलिए इनकी सेवा करना, इनकी सहायता करना मेरा काम है। यदि वह अतिथि काम तो पूरा करे, पर ले कुछ नहीं तो वह बंधेगा नहीं। सुबह होते ही चल देगा।इसके विपरीत यदि वह लेने की इच्छा रखे तो वह बंध जाएगा। इसलिए सेवा करें। जो थोड़ा अन्न-जल लेना है, वह भी सेवा करने के लिए लेना है क्योंकि अन्न-जल नहीं लेंगे तो सेवा कैसे करेंगे?
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Jyoti

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