न्याय देने वाली प्रणाली पर ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत

punjabkesari.in Thursday, Apr 26, 2018 - 02:09 AM (IST)

नेशनल डेस्कः देश की शीर्ष अदालत द्वारा सी.बी.आई. के जज बी.एच. लोया, जो संदिग्ध आतंकवादी सोहराबुद्दीन शेख के कथित फर्जी एनकाऊंटर के हाईप्रोफाइल मामले की सुनवाई कर रहे थे, 2014 में निधन में किसी भी तरह का षड्यंत्र होने से इंकार करने के बाद अब समय है कि इस विवाद को समाप्त कर दिया जाए।

यद्यपि न तो विपक्षी दल और न ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दायां हाथ  एवं शक्तिशाली भाजपा प्रमुख अमित शाह के विरोधी ही जज लोया के ‘रहस्यमयी’ निधन के प्रश्र को इतनी आसानी से दफन होने देंगे। हालांकि यह समय सोहराबुद्दीन शेख तथा उसके सहयोगियों की कथित मुठभेड़ में हत्या के कुख्यात मामले पर ध्यान केन्द्रित करने का है। यह 13 वर्ष पूर्व गुजरात में हुआ था, जब मोदी राज्य के मुख्यमंत्री और शाह उनके गृह मंत्री थे।

‘मुठभेड़’, जो अहमदाबाद के नजदीक नवम्बर 2005 में होने के पहले दिन से ही संदिग्ध बनी रही है, इन वर्षों के दौरान मामले में कई मोड़ आने के कारण सुर्खियों में बनी रही है। अनुत्तरित प्रश्र अदालती कार्रवाइयों में निरंतरता न होने, चुनिंदा हाईप्रोफाइल आरोपियों को आरोपमुक्त करने, जमानत देने, जजों का बिना वजह स्थानांतरण करने तथा प्रत्यक्षदर्शियों के मुकर जाने से जुड़े हैं।

अभय एम. थिप्से ने मामले में कुछ जमानती आवेदनों पर निर्णय दिए
हाईकोर्ट के एक पूर्व जज जस्टिस अभय एम. थिप्से, जिन्होंने खुद इस मामले में कुछ जमानती आवेदनों पर निर्णय दिए थे, हाल ही में इनमें से कुछ असंगतियों को जनता के सामने लाए हैं। मुम्बई की सी.बी.आई. अदालत में चल रही सुनवाई के दौरान अब तक 38 आरोपियों में से कम से कम 15 आरोपमुक्त किए जा चुके हैं। अदालत ने प्रारम्भिक 38 आरोपियों में से 22 के खिलाफ हत्या, आपराधिक षड्यंत्र रचने तथा सबूतों को नष्ट करने सहित कई आरोप निर्धारित किए थे। यह भी चौंकाने वाली बात है कि गत वर्ष नवम्बर से अब तक 30 में से 22 प्रत्यक्षदर्शी मुकर चुके हैं।

आरोप पक्ष के अनुसार यह मामला नवम्बर 2005 का है जब सोहराबुद्दीन शेख, उसकी पत्नी कौसर बी तथा सहयोगी तुलसी राम प्रजापति को हैदराबाद में सांगली जाने वाली बस से उतार लिया गया। इसके बाद सोहराबुद्दीन को एक ‘मुठभेड़’ में मार दिया गया। उसकी पत्नी, जो अपने पति की हत्या की चश्मदीद थी, की भी हत्या कर दी गई मगर उसके अवशेष कभी नहीं मिल पाए। कुछ समय बाद इस मामले में प्रत्यक्षदर्शी प्रजापति की भी एक ‘मुठभेड़’ में हत्या कर दी गई।

जस्टिस थिप्से ने मामले में अजीब तरीके से कई हाईप्रोफाइल आरोपियों को मार दिए जाने तथा वर्तमान में मामले की सुनवाई कर रही विशेष सी.बी.आई. अदालत द्वारा पारित किए गए आदेशों में ‘बेतुकी’ असंगतियों की ओर इशारा किया है। उन्होंने कहा कि कार्रवाइयों के ये सभी तथा अन्य पहलू ‘न्याय तथा न्याय प्रदान करने की प्रणाली की विफलता’ की ओर संकेत करते हैं।

इन सभी पहलुओं की व्यापक जांच किए जाने की जरूरत है। यह अमित शाह तथा अन्य प्रमुख आरोपियों के लिए भी बुद्धिमानी की बात होगी कि वे एक स्वतंत्र न्यायिक जांच की मांग करें। अन्यथा उन पर हमेशा राजनीतिक विपक्षियों की ओर से हमले होते रहेंगे।

मगर देश में न्यायिक प्रणाली से बहुत अधिक आशा नहीं की जा सकती जिसमें शर्मनाक तरीके से 3 करोड़ से अधिक मामले लम्बित हैं जिनमें से दो करोड़ से अधिक निचली अदालतों में हैं। प्राचीन भारत में न्याय प्रणाली, जिसमें निष्पक्ष तथा तुरंत न्याय देने वाले राजा विक्रमादित्य का सिंहासन भी शामिल है, को उच्च सम्मान दिए जाने के बावजूद न्यायिक प्रणाली में अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है।

हत्यारे केंद्र में कांग्रेस शासन के दौरान खुले घूम रहे थे
कई बार न्याय प्राप्त करने में पूरा जन्म अथवा कई पीढिय़ां लग जाती हैं। जहां सोहराबुद्दीन मामला सुलझ नहीं पाया है, हत्यारों को गत 13 वर्षों से सजा नहीं मिल पाई है, बहुत सारे मामले कई दशकों से अनसुलझे पड़े हैं जिनमें पीड़ित अभी भी न्याय की प्रतीक्षा में हैं। इनमें दिल्ली तथा अन्य जगहों पर हुए नरसंहारों के मामले भी हैं। कथित हत्यारे न केवल केन्द्र में कांग्रेस शासन के दौरान स्वतंत्र घूम रहे थे और यह आरोप लगाया जाता था कि अधिकतर हत्यारों को पार्टी की सहानुभूति प्राप्त है, बल्कि तब भी जब भाजपा (शिरोमणि अकाली दल की सहयोगी) केन्द्र में शासित है।

पर्याप्त क्षति पहले ही हो चुकी है। अब यह समय है कि देश में न्याय प्रदान करने की प्रणाली पर ध्यान केन्द्रित किया जाए। आखिर, जैसे कि कहावत है, न्याय में देरी न्याय से वंचित रखना है। -  विपिन पब्बी


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