मुसलमानों को अपने को पुनर्भाषित करना होगा

punjabkesari.in Thursday, Apr 26, 2018 - 01:48 AM (IST)

नेशनल डेस्कः साम्प्रदायिक मतभेदों तथा नफरत की राजनीति हिंदू कट्टरपंथियों का उपहार है। चाहे यह भारत का बंटवारा हो अथवा स्वतंत्र भारत में मुसलमानों को दरकिनार करने का, इन कट्टरपंथियों ने केवल साम्प्रदायिक सौहार्द को बिगाडऩे के लिए ही काम किया है। नि:संदेह मुस्लिम कट्टरपंथियों ने स्थिति को और भी  खराब कर दिया।

मुझे आमतौर पर हैरानी होती है कि  क्या ये तत्व लोगों को कभी शांति से जीने देंगे? यहां विभाजन के  शीघ्र बाद मुसलमानों को दरकिनार करना शुरू हो गया, भारतीय राजनीति को राजनीतिक दलों तथा सरकारों ने साम्प्रदायिक बना दिया। यह खेदजनक है कि अपनी कार्रवाइयों से वे विभिन्न समुदायों की सांस्कृतिक परम्पराओं तथा सिद्धांतों को बदनाम कर रही हैं।

सुनियोजित होते हैं सांंप्रदायिक झगड़े
एक सामान्य व्यक्ति भी इस तथ्य को जानता है कि साम्प्रदायिक झगड़े सुनियोजित होते हैं और विपक्षी समुदाय का समर्थन पाने के लिए इन्हें राजनीतिक दलों द्वारा अंजाम दिया जाता है। नि:संदेह ऐसा कहा जाता है कि मुसलमानों को दरकिनार करना भारत में एक संगठनात्मक कार्य बन गया है। मगर देश के मुसलमानों के सामने मैं एक बात रखना चाहता हूं: कौन आपको इस बात के लिए बाध्य करता है कि अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में न भेजें? इसका सामान्य बहाना यह है कि चूंकि हमारे पास धन नहीं है और हम गरीब हैं इसलिए हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा उपलब्ध नहीं करवा सकते। यह एक झूठ है।

मुस्लिम समुदाय पर मुल्लों तथा मौलवियों की पकड़ इतनी सख्त तथा मजबूत है कि एक सामान्य गरीब मुसलमान उनके आदेशों का उल्लंघन करने तथा अपनी आजादी बारे सोच भी नहीं सकता। यद्यपि राजनीतिज्ञ आमतौर पर मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव की शिकायत करते रहते हैं लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि समुदाय के धार्मिक नेताओं की अदूरदृष्टि तथा अपने अहम की पूर्ति के कारण सामान्य मुसलमानों को कष्ट सहना पड़ता है। यह पूछना उचित होगा कि क्यों अब तक वे मदरसों में शिक्षा का आधुनिकीकरण करने तथा तकनीकी शिक्षा लागू करने के खिलाफ हैं।

ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं है मुस्लिम आबादी
ऐसा नहीं है कि वे वर्तमान प्रशासन के शिकार हैं जो मूल रूप से जाति के नाम पर वर्गों के शोषण को बढ़ावा देने पर आधारित है। दलितों को भी उसी तरह शर्म का सामना करना पड़ता है जैसे कि मुसलमानों को। इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उच्च जाति के मुसलमान काफी अच्छे रहन-सहन वाले हैं। मगर उनकी आबादी उतनी पढ़ी-लिखी नहीं है जिस कारण महत्वपूर्ण पदों पर मुसलमान उतने अधिक दिखाई नहीं देते। उच्च जाति तथा समृद्ध ङ्क्षहदुओं की तरह वे मुसलमानों का सार्वजनिक चेहरा हैं। सार्वजनिक तौर पर वे मुसलमानों की श्रेणी तथा सामुदायिक हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

कुछ विशेषज्ञ एवं सामाजिक विज्ञानी इस विचार का समर्थन करते हैं कि लोग चाहते हैं कि मुसलमान उदार हों। ऐसा ही दलितों के मामले में भी है। आमतौर पर उच्च जाति के लोग शिकायत करते हैं कि आजकल के दलित अहंकारी बन गए हैं। ऐसा उनके बाप-दादाओं के मामले में नहीं था। वे दलितों को विनम्र तथा उदार चाहते हैं।

यह हठधर्मी और स्वतंत्रता महसूस करते हैं
मुसलमानों को अपने को पुनर्भाषित करना होगा और यह सशस्त्र विद्रोह अथवा ङ्क्षहसा से नहीं होगा। दलितों की तरह उन्हें अपने समुदाय का सशक्तिकरण करना होगा। अब मुस्लिम युवा स्वरोजगार का रुख करने लगे हैं। इसका कारण यह नहीं है कि सरकारी नौकरियां कम हैं अथवा निजी नौकरियां प्राप्त करने के लिए वे पर्याप्त रूप से शिक्षित नहीं हैं मगर इसका कारण यह है कि वे हठधर्मी हैं। वे स्वतंत्र महसूस करते हैं, वे अपने साथ उद्यमियों के एक नए वर्ग के तौर पर व्यवहार करते हैं। एक लोकतंत्र में अल्पसंख्यक वर्ग को सरकार की ओर ताकने की बजाय अपनी खुद की पहचान बनानी चाहिए।

मुसलमानों को आधुनिकीकरण और पुनरुत्थान के लिए उठानी चाहिए आवाज
मुल्लों तथा मौलवियों के अतिरिक्त विकासशील विद्वान तथा विशेषज्ञ भी मुसलमानों को अंधेरे रास्ते पर धकेलने के दोषी हैं। वे उन्हें दबाए तथा भेदभाव किए जाने की याद दिलाते रहते हैं। ये लोग यह कैसे भूल सकते हैं कि हिंदूओं को भी ऐसे दुखद समय से गुजरना पड़ा है? इसकी बजाय उन्हें उनके सशक्तिकरण तथा पुनरुत्थान के लिए आवाज उठानी चाहिए थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण कर दिया गया तथा इस स्थिति के लिए कांग्रेस को दोष दिया गया।

मुसलमानों के पास एक समझदार तथा दूरदृष्टा नेतृत्व का अभाव है जो अपनी ऊर्जा को बेकार के मुद्दों पर खर्च करते हैं, धार्मिक मामलों के ओछे प्रश्रों को लेकर लड़ाई करते हैं। उन्हें कुछ खराब नीयत वाले हिंदू तथा मुसलमानों द्वारा विभाजन की यातनाओं बारे बताया जाता है जिन्होंने खुद कभी उस आंच को महसूस नहीं किया होता। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाई गई सभी बातें महज कानों सुनी होती हैं।

वोट पाने के लिए राजनीतिक दल करते हैं आंबेडकर का सम्मान
मुसलमानों को एक वोट बैंक की तरह पेश किया जाता है जो साम्प्रदायिक झगड़ों का एक मुख्य कारण है।  हिंसक  राजनीति मुसलमानों को डरा कर बहुसंख्यक समुदाय के आदेशों को मानने के लिए मजबूर कर देगी जो आधुनिक राजनीति की एक व्यवस्था बनती जा रही है। दलितों के मामले में भी यही बात है। प्रत्येक राजनीतिक दल दलितों का वोट प्राप्त करने के लिए डा. अम्बेडकर को सम्मान देता है। ये नेता विश्वास करते हैं कि सभी दलित अम्बेडकर को मानते हैं।

भेदभाव की राजनीति दरअसल साम्प्रदायिक राजनीति का आधार है।  कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश में लाखों दलितों ने धमकी दी थी कि यदि उनके खिलाफ अत्याचार नहीं रुके तो वे इस्लाम धर्म अपना लेंगे। यह राजनीति क्रूर अमानवीय चेहरे को प्रतिबिंबित करती है। - अरुण श्रीवास्तव


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