हमेशा प्रथम स्थान पर रहने के लिए जाएं यहां

punjabkesari.in Thursday, Apr 12, 2018 - 10:28 AM (IST)

आत्म पहचान का महत्व बताते हुए महाराज कमलबीर जी ने फरमाया कि अगर हम अपना जीवन संवारना चाहते हैं, अपने जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करके परमात्मा को पाना चाहते हैं तो इसके लिए आत्म पहचान करने की आवश्यकता है। इस काम में सत्संग ही हमारी सहायता कर सकता है। इसलिए हमें सत्संग को सबसे अधिक प्राथमिकता देनी चाहिए।


लोग भूल करके दुनिया में फंसते हैं और व्यर्थ के कामों को महत्व देकर उनमें ही उलझे रहते हैं और सत्संग में नहीं जाते। सत्संग में जाने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि हमारी आत्मा जाग जाती है, हमें अपनी पहचान हो जाती है और हमें इस बात का ज्ञान हो जाता है कि हमें अपने जीवन को किस दिशा से लेकर जाना है। सत्संग में जाने से हमारी आंखों से द्वैत और अहंकार का पर्दा हटना शुरू हो जाता है और हमें अपनी असली पहचान हो जाती है। हम जान जाते हैं कि हम स्वयं ही परमात्मा का रूप हैं। हमारी परमात्मा से कोई दूरी अथवा भिन्नता नहीं रह जाती है कि हम स्वयं ही परमात्मा का रूप हैं। हमारी परमात्मा से कोई दूरी अथवा भिन्नता नहीं रह जाती। इसी बात को स्पष्ट करते हुए महाराज बीर जी ने फरमाया है:
अगर अपनी ही हस्ती का तुझे एहसास हो जाए,
जिसे तू दूर कहता है वो तेरे पास हो जाए।


आत्म पहचान न होने के कारण हम अहंकार में फंस जाते हैं और अपने अहंकार के कारण ही हम परमात्मा से दूर हो जाते हैं। अपने असली रूप को भूल कर और परमात्मा से दूर होकर हम पता नहीं क्या कुछ बन जाते हैं। अहंकार ही हमें कुछ बनने की प्रेरणा देता है और जब हम कुछ बनना चाहते हैं तो इसमें हमारा अहंकार और अधिक प्रबल हो जाता है।


हम जो कुछ भी बनना चाहते हैं, उसको सिद्ध करने के लिए पता नहीं हमें कितने स्वांग रचने पड़ते हैं पर सच्चाई यह है कि सब कुछ करके भी हम कुछ नहीं बन पाते। मान लो कोई व्यक्ति अमीर बनना चाहता है। इसके लिए उसे वे तमाम बातें करनी और दिखानी पड़ेंगी जो अमीर होने के लिए आवश्यक हैं। उसको बहुत बड़ा मकान अथवा कोठी बनानी पड़ेगी। बड़ी कारें रखनी पड़ेंगी। नौकर-चाकर रखने पड़ेंगे, बहुत बड़ा व्यापार स्थापित करना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त बड़े-बड़े लोगों से संपर्क बनाना पड़ेगा और ऐसा सब कुछ करना पड़ेगा जो अमीर करते हैं। 


अब जरा सोचें कि इतना सब कुछ करके कोई आदमी शांत कैसे रह सकता है? एक बार इस दौड़ में शामिल हो जाने के बाद तो वह निरंतर दौड़ता ही रहेगा। उसे जीवन में कभी भी विराम और विश्राम नहीं मिलेगा। इसके विपरीत जब हम संसार की ओर न जाकर अपने मूल की ओर जाते हैं, कुछ और न बनकर, जो परमात्मा ने हमें बनाया है, वही बनना चाहते हैं तो हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता। हमारा मूल परमात्मा है और परमात्मा बनने के लिए हमें कुछ भी नहीं करना है। बस इसी बात पर विश्वास करना है कि हम हैं और हम परमात्मा हैं। हमारी भलाई इसी बात में है कि हम अपने मूल के सिवाय कहीं और न जाएं। जो परमात्मा ने हमें बनाया है, वही बनें। जैसा कि गुरबाणी में फरमाया है- मन तू जोत स्वरूप है, अपना मूल पहचान।


हम अपने मूल को भूलकर पाता नहीं क्या बन गए हैं। किसी ने अपने शरीर को अपनी पहचान बना लिया है, किसी ने नाम को तो किसी ने अपने व्यवसाय और सामाजिक रुतबे को। सामान्य तौर पर जब हम किसी से पूछते हैं कि आप कौन हैं तो वह यही कहता है कि मैं डाक्टर हूं, मैं अध्यापक हूं , मैं वकील हूं, मैं जमींदार हूं, मैं एम.एल.ए. हूं मैं मंत्री हूं पर कोई यह नहीं कहता कि मैं आत्मा हूं।


हमारे जितने भी नाम हैं, वे हमारी सामाजिक पहचान के लिए दिए गए हैं। काम-धंधा तो जीवन यापन करने के लिए करना ही है, इसलिए काम धंधा हमारी पहचान नहीं हो सकता। नाम तो हमें संसार में लोगों द्वारा बुलाने व हमारा सामाजिक हिसाब रखने के लिए दिया गया है, इसलिए नाम भी हमारी पहचान नहीं हो सकता। हमारी असली पहचान तो महापुरुष ही हमें करवाते हैं। जैसे कृष्ण ने अर्जुन को बताया था कि हे अर्जुन, तू शरीर नहीं बल्कि आत्मा है।


आज हम सबकी हालत अर्जुन जैसी ही है। हम अपनी वास्तविक पहचान को भूलकर वहमों और भ्रमों में फंस गए हैं और अपने आपको पता नहीं क्या कुछ समझ बैठे हैं। जब हम सत्संग में आ जाते हैं तो हमें सच्चाई का ज्ञान हो जाता है और हमारे वहम एक-एक करके दूर होने शुरू हो जाते हैं। हमारा ‘मैं’ का भ्रम छूट जाता है और हमें जोत के दर्शन होने शुरू हो जाते हैं। हमें आत्मा की पहचान हो जाती है और हम अपने आपको जान जाते हैं कि हम कौन हैं, क्या हैं। 


सत्संग को प्राथमिकता देना भगवान को प्राथमिकता देना है। जब हम किसी को प्राथमिकता देते हैं तो वह भी हमें प्राथमिकता देता है। जब हम सत्संग में जाते हैं तो इससे हम भगवान को प्राथमिकता देते हैं। भगवान हमसे खुश होता है और हमें भी जीवन में हमेशा प्रथम स्थान पर रखता है। 


सत्संग में आकर ही हमें अपनी वास्तविकता पहचान होती है। जब हम अपने असली स्वरूप को जान जाते हैं तो हमें अपनी शक्तियों व क्षमताओं का भी ज्ञान हो जाता है। फिर हम अपने आपको असहाय नहीं समझते बल्कि हमें यह विश्वास हो जाता है कि हम हर काम को पूरा कर सकते हैं। हमारा ध्यान हमारे जीवन लक्ष्य की ओर मुड़ जाता है और हमारी सारी ऊर्जा इसी लक्ष्य को भेदने के लिए काम करती है। बिना आत्म पहचान के कोई भी न तो अपने जीवन के महत्व को जान सकता है, न ही इससे काम ले सकता है।


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Niyati Bhandari

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