अभियुक्त की मानसिक बीमारी फांसी की सजा नहीं देने का आधार : सुप्रीम कोर्ट

punjabkesari.in Thursday, Apr 18, 2019 - 09:27 PM (IST)

नई दिल्लीः उच्चतम न्यायालय के एक ऐतिहासिक फैसले से मौत की सजा सुनाए गए उन कैदियों के लिए नयी उम्मीदें पैदा हो गयी हैं जो दोषसिद्धि के बाद ‘‘गंभीर मानसिक बीमारियों'' से ग्रसित हो गए। न्यायालय ने कहा है कि अपीलीय अदालतों के लिए कैदियों की मानसिक स्थिति फांसी की सजा नहीं सुनाने के लिए एक अहम पहलू होगी। आरोपी अभी तक आपराधिक अभियोजन से बचने के लिए भारतीय दंड संहिता के तहत ‘‘कानूनी विक्षिप्तता'' की दलील दे सकते थे।

न्यायमूर्ति एन वी रमना की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने एक कैदी को फांसी की सजा से बख्श दिया जिसे उसकी मानसिक स्थिति के कारण फैसले में शामिल नहीं किया गया था। कैदी को 1999 में महाराष्ट्र में दो नाबालिग लड़कियों के साथ बर्बर दुष्कर्म और हत्या के मामले में मौत की सजा सुनायी गयी थी। पीठ ने हालांकि बर्बर तरीके से अपराध को अंजाम देने पर गौर किया और अभियुक्त को उसके शेष जीवन तक जेल की सजा सुनायी।

इसके साथ सरकार को यह सुनिश्चित करने का भी निर्देश दिया गया कि उसे उचित इलाज मुहैया करायी जाए। पीठ में न्यायमूर्ति एम एम शांतनगौदर और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी भी शामिल थे। पीठ के सामने मानसिक बीमारी और अपराध के बीच संबंध से जुड़े जटिल सवाल भी थे।

निर्देशों के दुरूपयोग को रोकने के लिए पीठ ने कहा कि यह भार आरोपी पर होगा कि वह स्पष्ट सबूतों के साथ यह साबित करे कि वह गंभीर मानसिक बीमारी से पीड़ित है। न्यायालय ने कहा कि उपयुक्त मामलों में अदालत दोषियों की मानसिक बीमारी के दावे पर विशेषज्ञ रिपोर्ट के लिए एक पैनल का गठन कर सकती है।

 


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Yaspal

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