राम नवमी: अगर नहीं कर पाए श्री राम की पूजा, तो कर लें ये स्तुति
punjabkesari.in Saturday, Apr 13, 2019 - 04:39 PM (IST)
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राम नवमी के दिन भगवान श्रीराम की पूजा का विधान है। इस त्यौहार के नाम से स्पष्ट है कि भगवान राम से जुड़ा हुआ है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जब रघुनाथ यानि राम जी का जन्म हुआ था तो उनके राज्य के लोगों ने इस दिन को बड़ी धूम-धाम से मनाया था। इसी के चलते लोग इस खास व पावन दिवस पर इनकी विधि-पूर्वक पूजा-अर्चना करते हैं। मगर बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं जो इस दिन चाहकर भी भगवान राम को खुश करने के लिए विधि-विधान के साथ उनकी आराधना नहीं कर पाते। तो चलिए आपको बताते हैं राम जी को प्रसन्न करने का सबसे आसान तरीका। श्रीराम चन्द्र जी का जन्मोत्सव के दिन इस स्तुति का पाठ भावार्थ सहित करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
श्री राम स्तुति श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं।
नवकंज-लोचन, कंज-मु , कर-कंज पद कंजारुणं।।
भावार्थ- हे! मेरे मन तू कृपालु भगवान श्रीरामचंद्र जी का भजन कर, वे संसार के जन्म-मरणरूपी दारुण घृणित भय को दूर करने वाले हैं, इनके नेत्र नव-विकसित कमल के सामान हैं, मुख-हाथ और चरण लाल कमल के सदृश हैं।
कंदर्प अगणित अमित छबि, नवनील-नीरद सुंदरं।
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरं ।।
भावार्थ- श्री राम की सौन्दर्य की छटा अगणित कामदेवों से बढ़कर है, उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुन्दर है, पीताम्बर मेघरूप शरीरों में मानों बिजली के सामान वो चमक रहे हैं, ऐसे पावन रूप जानकी पति श्रीरामजी को मेरा नमस्कार है।
भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्यवंश-निकन्दनं ।
रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नन्दनं ।।
भावार्थ- हे मेरे मन, दीनों के बन्धु, सूर्य के सामान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले, आनंदकंद, कौशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चंद्रमा के सामान दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर ।
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं ।
आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खरदूषणं ।।
भावार्थ- जिनके मस्तक पर रत्न-जटित मुकुट, कानों में कुंडल, भाल पर सुन्दर तिलक और प्रत्येक अंग में सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं, जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं, जो धनुष-बाण लिए हुए हैं, जिन्होंने संग्राम में खर-दूषण को जीत लिए है ।
इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं ।
मम ह्रदय-कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ।।
भावार्थ- जो शिव, शेष, और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं; तुलसीदास प्रार्थना करते हैं की वे श्री रघुनाथजी मेरे हृदयकमल में सदा निवास करें ।
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो ।
करुना निधान सुजान सीलू सनेहु जानत रावरो ।।
भावार्थ- जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुन्दर सांवला वर (श्रीरामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा । वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है ।
एहि भाँति गौरी असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली ।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली ।।
भावार्थ- इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ ह्रदय में हर्षित हुईं । तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल लौट चलीं ।
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ।।
भावार्थ- गौरी जी को अनुकूल जानकर सीता जी के ह्रदय में जो हर्ष हुआ वह कहा नहीं जा सकता । सुन्दर मंगलों के मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे।
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