दुश्मनों से दोस्ती निभा रहा ‘लावारिस पेड़’

punjabkesari.in Friday, Apr 12, 2019 - 04:29 AM (IST)

देश के बंटवारे के समय से ही पाकिस्तान का प्रत्येक कदम भारत के प्रति दुश्मनी वाला रहा है और हैरानी इस बात की है कि भारत के हर कदम के पीछे पाकिस्तान ‘दुश्मनी’ के निशान ढूंढने की कोशिश करता रहता है। इस प्रकार दोनों देश एक-दूसरे के लिए दुश्मनों की कतार में खड़े नजर आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में सीमा पर खड़ा पीपल का एक ‘लावारिस पेड़’ न केवल दोनों देशों से दोस्ती निभा रहा है बल्कि ठंडी छाया भी बांट रहा है। इस सीमावर्ती क्षेत्र और पीपल के पेड़ को देखने का मौका तब मिला जब पंजाब केसरी समाचारपत्र समूह की टीम सुचेतगढ़ और आसपास के जरूरतमंद लोगों को 506वें ट्रक की राहत सामग्री बांटने के लिए गई थी। 

यह पीपल जम्मू क्षेत्र के सुचेतगढ़  बार्डर पर स्थित है तथा ‘लावारिस’ इसलिए क्योंकि इसकी आधी जड़ें भारत में तथा आधी पाकिस्तान की धरती में हैं। यह पेड़ ‘जीरो लाइन’  पर उगा था तथा कई वर्षों बाद फैल कर एक विशाल आकार धारण कर गया। इसकी टहनियां दोनों देशों की धरती पर फैल गईं तथा दोनों तरफ छाया प्रदान कर रही हैं परन्तु दोनों देशों में से कोई भी इस पर अपना दावा नहीं कर सकता। 

इस पेड़ की टहनियों को काटना भी मना है तथा न ही किसी भी तरफ के सुरक्षा कर्मचारी ऐसी हरकत करते हैं। वे तो आंधी और बारिश में इसकी शरण लेते हैं तथा गर्मी से बचाव भी कर लेते हैं। अब इस पीपल के गिर्द एक अटियाला बना दिया गया है ताकि इसकी जड़ें मजबूत रहें। इसके पत्ते दोनों देशों की सुरक्षा पोस्टों पर शांति की ताल बजाते प्यार और दोस्ती का संदेश देते प्रतीत होते हैं। 

रेललाइन : निशान बाकी हैं 
देश के बंटवारे से पहले अंग्रेजों के राज समय 1890 में वजीराबाद जंक्शन (अब पाकिस्तान में) से वाया सियालकोट, सुचेतगढ़, आर.एस. पुरा तथा मीरां साहिब होती हुई जम्मू तवी तक एक रेल पटरी बिछाई गई थी। जम्मू से सियालकोट तक की दूरी 43 किलोमीटर है जबकि सुचेतगढ़ से सियालकोट केवल 11 किलोमीटर है। यह रेल पटरी उस समय दोनों देशों के बीच कारोबार का बड़ा आधार थी। इस सैक्शन पर रोजाना 4 रेलगाडिय़ों का आना-जाना था, जिनके द्वारा लाहौर, कराची, इस्लामाबाद तथा अन्य शहरों से व्यापारी अपना माल जम्मू द्वारा इस तरफ के अन्य शहरों तक भेजते थे तथा इधर की वस्तुएं खरीद कर ले जाते थे। जम्मू-कश्मीर की इस पहली रेल पटरी के कारण हजारों लोगों को रोजगार भी मिला था। 

देश के बंटवारे के बाद न केवल यह रेल सम्पर्क खत्म हो गया, बल्कि भारत की तरफ की रेल पटरी भी उखाड़ दी गई तथा स्टेशन पूरी तरह खानाबदोशों वाली हालत में है। जम्मू के विक्रम चौक में एक शानदार स्टेशन था, जहां अब एक कला केन्द्र बना दिया गया है। आर.एस. पुरा के स्टेशन और पटरी वाली जगह पर कुछ लोगों ने नाजायज कब्जे कर रखे हैं। स्टेशन वाली बची-खुची इमारत गिरने के कगार पर है, जिसे किसी समय भवन-कला का उत्कृष्ट नमूना समझा जाता था। सुचेतगढ़ के नजदीक एक रेल पटरी के कुछ निशान शेष थे जो धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं तथा एक दिन यह रेल सम्पर्क पूरी तरह लुप्त हो जाएगा। इस रेल लिंक को बहाल करने बारे 2001 तथा फिर 2013 में पाकिस्तान द्वारा कुछ कोशिशें की गई थीं परन्तु करोड़ों-अरबों रुपए के खर्चे को देख कर वे ठप्प हो गईं। भारत द्वारा इस संदर्भ में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई गई। 

सीमा पर टूरिस्ट केन्द्र 
सुचेतगढ़ में सीमा पर भारत की तरफ  टूरिस्ट केन्द्र का निर्माण किया गया है, जिसके लिए जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद (स्वर्गीय) ने बड़े प्रयत्न किए थे। अब यहां रिसैप्शन केन्द्र, रैस्ट हाऊस, कैंटीन, पार्क आदि विकसित किए गए थे, जिस कारण सीमा देखने हेतु टूरिस्टों का आना-जाना बढ़ गया है। क्षेत्र के विकास के नजरिए से यह केन्द्र बड़ी भूमिका निभा सकता है लेकिन इसको ध्यान में रखते हुए बुनियादी ढांचे को बड़े स्तर पर विकसित करना पड़ेगा।जम्मू से सुचेतगढ़ तक सड़क की स्थिति संतोषजनक नहीं है तथा आवाजाही के प्रबंध भी बेहतर नहीं हैं। अच्छे होटलों तथा रैस्टोरैंटों की कमी है। मोबाइल एम्बुलैंसों का नामोनिशान नहीं है, साफ-सफाई बाकी देश जैसी दयनीय स्थिति में है। ऐसी स्थिति में सुचेतगढ़ केन्द्र के लिए बड़ी संख्या में टूरिस्टों को आकर्षित करना संभव नहीं है। 

पाकिस्तान की तरफ तो लोगों के बैठने के लिए बैंच भी नहीं हैं, कमरों  तथा कैंटीनों का अस्तित्व तो दूर की बात है। इसके बावजूद पाकिस्तान  की तरफ से भी कुछ लोग सीमा को देखने आ जाते हैं तथा बैरियर को हाथ लगाकर लौट जाते हैं। दोनों तरफ सुरक्षा कर्मचारी जरूर मुस्तैद रहते हैं, जिनका काम टूरिस्टों पर नजर रखना तथा यू.एन. के अधिकारियों की गाड़ी को देख कर गेट खोलना होता है। जम्मू-सियालकोट सड़क पर केवल इन अधिकारियों की ही आवाजाही होती है, शेष लोगों का रास्ता वीजे के बावजूद बंद है।-जोगिन्द्र संधू


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