क्या ‘बालाकोट’ मोदी को जीत दिला सकेगा

punjabkesari.in Sunday, Mar 17, 2019 - 05:11 AM (IST)

चुनाव की तिथियां घोषित होने के बाद मेरे हिसाब से एक प्रश्र सम्भवत: सभी की जुबान पर है-क्या पुलवामा आतंकी हमले तथा बालाकोट हवाई हमले ने राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया है तथा चुनावी गणनाओं में बदलाव ला दिया है या यह महज गुजरता हुआ एक ऐसा प्रभाव है जो समय के साथ धुंधलाता जाएगा? मेरा प्रारम्भिक उत्तर प्रश्र के पहले अद्र्ध से सहमत होना था लेकिन जितना मैं अधिक गहराई में जाता गया उतना ही अधिक मुझे एहसास हुआ कि यह उतना स्वाभाविक नहीं है जैसा कि पहले दिखता था।

राष्ट्रवाद तथा पाकिस्तान विरोधी भावना
इस बात में कोई संदेह नहीं कि आज जो स्थिति है उसमें राष्ट्रवाद तथा पाकिस्तान विरोधी भावना पहले वाले मुद्दों पर भारी पड़ रही है जैसे कि बेरोजगारी, ग्रामीण संकट, राफेल, जी.एस.टी. तथा नोटबंदी के जारी प्रभाव तथा सम्भवत: पहचान तथा धर्म भी। इसके केन्द्र में भारत की एक मजबूत निर्णायक नेता की पारम्परिक चाहत है जो पाकिस्तान को सबक सिखाने में सक्षम हो। जैसे कि 1971 में इंदिरा गांधी तथा 2019 में नरेन्द्र मोदी इस कथानक में फिट बैठते हैं। तो क्या एक जोशीला तथा धन्यवादी देश उनके लिए वोट करेगा? इसकी सम्भावना है।

2016 में सर्जिकल स्ट्राइक के बाद 2017 में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में जबरदस्त विजय हासिल की। क्या फिर ऐसा हो सकता है? इसकी सम्भावना है। पुलवामा में मारे गए सी.आर.पी.एफ. के 40 जवानों में से 30 प्रतिशत यू.पी. से ही थे। इसके अतिरिक्त तीनों सशस्त्र बलों में रंगरूटों का सबसे बड़ा प्रतिशत भी उत्तर प्रदेश से है। इसलिए राष्ट्र के जोश का प्रभाव यहां सबसे अधिक देखने को मिलेगा।

हालांकि एक विपरीत विचार की भी सम्भावना है। 1999 में कारगिल के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी ने केवल उतनी ही सीटें जीतीं, जितनी उन्होंने 1998 में जीती थीं। 2009 में  26/11 के बाद कांग्रेस ने सीटें गंवाईं नहीं बल्कि 60 से अधिक की वृद्धि की। और फिर हमारे सामने विंस्टन चॢचल का उदाहरण है, जिन्होंने दूसरा विश्व युद्ध जीता लेकिन कुछ महीनों बाद ही बहुत बुरी तरह से चुनाव हार गए। इसका अर्थ यह हुआ कि राष्ट्रवादी भावनाओं तथा चुनाव परिणामों के बीच कोई स्पष्ट आपसी संबंध नहीं है।

ग्रामीण संकट व किसान
अब यह मान लेने के पीछे अच्छा कारण है कि बालाकोट का चुनावी प्रभाव सर्जिकल स्ट्राइक्स के प्रभाव से भिन्न हो सकता है। पहला, 2017 के बाद से ग्रामीण संकट तथा किसानों की आत्महत्याओं की स्थिति बदतर हुई है। महाराष्ट्र सर्वाधिक बुरी तरह से प्रभावित हो सकता है लेकिन याद रखें कि भारत का 60 प्रतिशत ग्रामीण है। जब वे वोट देते हैं तो क्या उनकी करीबी ङ्क्षचताएं तथा यातनाएं इसका निर्धारण नहीं करतीं कि वे किसे वोट देंगे? यह मानना कठिन है कि प्रधानमंत्री की किसान योजना इस ङ्क्षचता का पर्याप्त रूप से निराकरण कर रही है।

अन्य कारक है बेरोजगारी। 2017-18 में बेरोजगारी 45 वर्षों की सर्वाधिक बुरी स्थिति 6.1 प्रतिशत पर थी लेकिन  सैंटर फार मानिटरिंग द इंडियन इकोनामी का कहना है कि उसके बाद से यह उल्लेखनीय रूप से बढ़कर 7.3 प्रतिशत हो गई। युवाओं में बेरोजगारी की हालत उससे भी खराब है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सैंटर फार सस्टेनेबल इम्प्लायमैंट का कहना है कि यह आश्चर्यजनक रूप से 16 प्रतिशत है। 15-29 आयु वर्ग के ग्रामीण पुरुषों की बेरोजगारी दर 3 गुणा बढ़कर 2017-18 तक 17.4 प्रतिशत हो गई। इसी आयु वर्ग की ग्रामीण महिलाओं की बेरोजगारी की दर 2017-18 तक 3 गुणा बढ़कर 13.6 प्रतिशत हो गई। युवा मोदी के प्रशंसक तथा बालाकोट के बाद जोश में हो सकते हैं लेकिन निश्चित तौर पर नौकरी न होने का दर्द स्ट्राइक को लेकर खुशी मनाने पर भारी पड़ सकता है।

निश्चित तौर पर बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि विपक्ष इसे कैसे भुनाता है। बालाकोट की सफलता पर प्रश्र उठाने या पुलवामा में खुफिया एजैंसियों की असफलता का सरकार पर आरोप लगाने अथवा राफेल पर आशा से अधिक भरोसा करने की बजाय विपक्ष को बेरोजगारी, ग्रामीण संकट, दलितों तथा अल्पसंख्यकों से दुव्र्यवहार तथा मोदी सरकार की सामान्य असहिष्णुता की हांडी को हिलाने की जरूरत है। यदि वह सफलतापूर्वक यह कर लेता है तो सम्भवत: मतदान के दिन पुलवामा-बालाकोट का प्रभुत्व नहीं होगा। मगर क्या ऐसा हो सकता है? अभी तक मैं प्रभावित नहीं हूं कि उत्तर हां है।-करण थापर


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