हिमाचल के मेलों में हैं ऐसे नज़ारे, जो मोह लेंगे आपका भी मन

punjabkesari.in Wednesday, Mar 13, 2019 - 04:16 PM (IST)

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हिमाचली मेले यहां की संस्कृति की धड़कन हैं। हालांकि इनका मूल स्वरूप बदल रहा है। प्रदेश के जीवन में नया रंग रस घोलते हैं यहां के मेले। प्रदेश के राज्य स्तरीय मेले सात हैं। दशहरा, लवी और शिवरात्रि अंतर्राष्ट्रीय स्तर के उत्सव हैं। ये मेले ऋतु परिवर्तन के साथ जुड़े हैं। कुछ व्यापारी मेले हैं तो कुछ मेले, पशु, कुश्ती व देव संस्कृति के साथ जुड़े हैं। इन मेलों में लोक नाट्य, लोकगीत व लोक नृत्यों के अलावा स्टार कलाकार लोगों का मनोरंजन करते हैं। मेलों के आयोजन के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार भी मेले के स्तर अनुरूप कलाकारों को धनराशि का आबंटन करती है।

मेला कमेटी भूमि किराया से यह राशि एकत्र करती है। तीन मुख्य मदों पर यह राशि खर्च होती है। साथ ही प्रशासन को मेले पर चौकस रहना पड़ता है। मेले के खर्च के लिए प्रथम मद टैंट हाऊस होता है। इन मेलों में सरकार अपने स्टाल लगाकर सरकारी विकास को दर्शाती है। मेले में मुख्य मनोरंजन बड़े झूले होते हैं। देवताओं के साथ आए 2000 बजतंरी मेले में लोक धुनें गाकर वातावरण को देवमय बना देते हैं। इन मेलों में महिलाएं जमकर खरीदारी करती हैं। ये मेले 3 से 7 दिन तक चलते हैं। प्रदेश के प्रसिद्ध मेले नलवाड़, बिलासपुर, सुंदरनगर, पशुमेला वासा मंडी होली मेला सुजानपुर, लवी मेला रामपुर, चंबा का मिंजर तथा कुल्लू का दशहरा व सिरमौर का रेणुका मेला है। इन मेलों में दूसरा आकर्षण देव-पूजा तथा तीसरा आकर्षण कुश्ती होता है।

अब ये मेले पारम्परिक रूप बदल कर व्यावसायिक रूप ले रहे हैं। शिवरात्रि के उपरांत छेश्चु मेला रिवालसर का आयोजन शुरू होता है। फिर बिलासपुर व सुंदरनगर के मेले साथ ही बाबा बालक नाथ में भी 31 दिनों तक मेला चलता है। होली पर मैढ़ी में मेला। घुमारवीं, मार्कंडेय तथा रिवालसर में 13 अप्रैल को, फिर मनाली, कुथाह, कमरूनाग में मेले का आनंद लेते हैं। इन मेलों में लोग नाटी डालते हैं तथा देवी-देवता की पूजा करते हैं। ये मेले आपसी भाईचारे तथा हमारी संस्कृति व परम्पराओं को सुदृढ़ करते हैं। इन मेलों में स्थानीय व्यंजन, कचौड़ी व सिड्ड का मजा लोग लेते हैं। बर्तन, रैडीमेड वस्त्र, जूते, लेडीज बैग, स्वैटर, चदरें, कम्बल व अचार आदि की खूब बिक्री होती है। मेले में चाट व फास्ट फूड के भी स्टाल लगे होते हैं। स्वयं सहायता समूह भी अपने उत्पाद जैसे सेपुबड़ी, साधारण बड़ी सेंवी, हल्दी व आचार तथा स्वैटर व बैग बेचकर अपनी आर्थिक हालत सुधारने का प्रयास करते हैं। सही मायनों में पहाड़ी संस्कृति का दर्पण हैं ये मेले।

सर्दी की ऋतु आते-आते रामपुर में लवी मेला लगता है जो व्यापार तथा वाणिज्यिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र है। इसमें किन्नौरी बाजार के साथ-साथ प्रदेश के अन्य भागों के व्यापारी अपना सामान बेचते हैं। यहां घोड़ों की बिक्री भी होती है। समय बदल गया लेकिन पहाड़ी जनता की मेलों में रुचि आज भी बरकरार है लेकिन मेले में गंगी गाती महिलाएं अब नहीं दिखतीं। न ही लकड़ी के झूले। अब तो मौत का कुआं और यांत्रिक झूले मेलों की शान हैं। मेलों में आइसक्रीम व कोल्ड ड्रिंक भी बिकते हैं। असंख्य परिवारों की रोजी- रोटी इन्हीं मेलों से चलती है। अब मेलों में मदारी नहीं आते। हां, मेलों में ढोल, नगाड़े व नरसिंघे बजते हैं। मेलों में खेलें तथा बच्चों के नृत्य भी होते हैं। आज के वक्त में कुश्ती का आकर्षण बरकरार है। कुश्ती हमारे लोगों की रगों में दौड़ती है। यह भी मेलों में देव संस्कृति के साथ-साथ मुख्य आकर्षण का केंद्र बनी हुई है।
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Niyati Bhandari

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