मध्य पूर्व के प्राचीन स्मारक सबसे ज्यादा संकट में हैं

punjabkesari.in Friday, Sep 23, 2022 - 08:35 PM (IST)

जलवायु परिवर्तन की वजह से मध्य पूर्व का इलाका दुनिया के अन्य इलाकों की तुलना में कहीं ज्यादा तेजी से गर्म हो रहा है. इस वजह से यहां के पिरामिड, महल, चर्च और स्मारकों पर दुनिया में बाकी जगहों की तुलना में ज्यादा खतरा है.बेबीलोन कभी दुनिया का सबसे बड़ा शहर था, झूलते बागों (हैंगिंग गार्डेन्स) के लिये इस जगह को दुनिया के सात आश्चर्यों में जगह मिली है. यह शहर टॉवर ऑफ बाबेल यानी बाबेल की मीनार के लिए भी जाना जाता है. हालांकि इराक के दक्षिणी इलाके में मौजूद प्राचीन शहर बेबीलोन अब खत्म हो रहा है. मूल रूप से करीब 4300 साल पहले बना यह शहर आधुनिकता और प्राचीनता का अद्भुत मिश्रण था. इस ऐतिहासिक विरासत के मूल रूप को बनाये रखने के लिए इनमें बाद में प्लास्टर लगाए गए थे जो अब उखड़ रहे हैं. कभी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहीं और यहां की कई इमारतें में जाना अब खतरे से खाली नहीं है. यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन यानी यूसीएल में प्राचीन और मध्यकालीन पूर्वी इतिहास की प्रोफेसर इलीनॉर रॉबसन पिछले एक दशक से साल में कई बार इन इमारतों को देखने के लिए इराक गई हैं. रॉबसन कहती हैं, "कई साल से यहां भूजल का रिसाव हो रहा है और फिर भीषण गर्मी के कारण इमारतें ढह रही हैं. मई महीने में मैंने एक दिन यहां गुजारा. मेरे साथ अम्मार अल-ताई और उनकी टीम यानी वर्ल्ड मॉन्युमेंट्स फंड इन इराक के लोग भी थे. हमारा अनुभव बेहद परेशान करने वाला था. लोग इन इमारतों को अपनी आंखों से ढहते हुए देख रहे हैं.” इस प्राचीन इराकी शहर को साल 2019 से यूनेस्को ने विश्व विरासत घोषित कर रखा है और ऐसा नहीं है कि इस इलाके में सिर्फ यही जगह जलवायु परिवर्तन का खामियाजा भुगत रही है. रेतीले तूफान, आग, बाढ़ मिस्र में, ज्यादा तापमान और नमी के कारण ऐतिहासिक इमारतों का रंग उतर रहा है और उनमें दरारें भी पड़ रही हैं. जंगलों में बार-बार लगने वाली आग, धूल और रेतीले तूफान, वायु प्रदूषण, मिट्टी में नमक की अधिकता और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी के कारण भी यहां की इमारतों को नुकसान हो रहा है. जॉर्डन में 2300 साल पुराने शहर पेट्रा के कुछ हिस्से भूस्खलन की बढ़ती आशंकाओं के कारण खतरे में हैं. यह शहर पहाड़ों के भीतर पत्थरों को काटकर बसाया गया है जिसमें पहाड़ों के अंदर ही घर, धार्मिक जगहें और दूसरी इमारतें बनी हुई हैं. पूर्वी यमन में, भारी वर्षा और बाढ़ के कारण वादी हद्रामवत में कच्ची ईंटों से बनी इमारतों को नुकसान हो रहा है. लीबिया में, मरुस्थल के बीच बसा हरित प्रदेश गदामेस भी खतरे में है क्योंकि यहां का मुख्य जलस्रोत सूख गया है. स्थानीय वनस्पतियां खत्म हो गई हैं और यहां रहने वाले लोग पलायन कर चुके हैं. समुद्र के बढ़ते जलस्तर और बाढ़ के कारण समुद्र तट पर मौजूद यह पुराना शहर भी खतरे में है. इस महीने जर्मनी के माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर केमिस्ट्री और साइप्रस इंस्टीट्यूट के रिसर्चरों की एक टीम ने एक रिपोर्ट छापी. जिसमें भविष्यवाणी की गई है कि स्थिति तो इससे भी ज्यादा खराब आने वाली है. रिसर्च से यह नतीजा निकला है कि मध्य पूर्व और भूमध्यसागर के इलाके दुनिया के अन्य हिस्सों की तुलना में बहुत तेजी से गर्म हो रहे हैं और यहां का तापमान भी "औसत वैश्विक तापमान की तुलना में लगभग दोगुनी रफ्तार से बढ़ रहा है.” इसका मतलब यह हुआ कि यहां महल, किले, पिरामिड और दूसरे प्राचीन स्थल पर्यावरण में बदलाव के कारण दुनिया के अन्य प्राचीन धरोहरों की तुलना में कहीं ज्यादा खतरे में हैं. सबसे ज्यादा खतरे में मध्यपूर्व की विरासतें जैसा कि इंटरनेशनल काउंसिल ऑन मॉन्युमेंट्स एंड साइट्स का कहना है, "जलवायु परिवर्तन आम लोगों और उनकी सांस्कृतिक विरासत के लिए सबसे बड़ा और सबसे तेजी से बढ़ता हुआ खतरा है.” साइप्रस इंस्टीट्यूट में पुरातत्व और सांस्कृतिक विरासत के विशेषज्ञ और एसोसिएट प्रोफेसर निकोलस बकीर्तिज कहते हैं, "इस बात में संदेह नहीं कि मध्य पूर्व इलाकों की सांस्कृतिक धरोहरों पर यह खतरा यूरोप या अन्य जगहों की धरोहरों की तुलना में कहीं ज्यादा है.” वो कहते हैं कि मध्य पूर्व इलाके की विरासत इसलिए भी ज्यादा खतरे में है क्योंकि एक तो यह इलाका बहुत तेजी से गर्म हो रहा है और दूसरे, इन इलाकों के देश आर्थिक, राजनीतिक और युद्ध की वजहों से इन्हें संरक्षित रखने में भी असमर्थ हैं. बकीर्तिज कहते हैं, "हर कोई इस बात को जानता है कि यह एक चुनौती है लेकिन हर कोई इस मुद्दे को प्राथमिकता देने में समर्थ नहीं है. जलवायु परिवर्तन निश्चित तौर पर यूरोपियन विरासत स्थलों को भी प्रभावित कर रहे हैं लेकिन यूरोप इस चुनौती को स्वीकार करने में कहीं ज्यादा सक्षम है.” जलवायु परिवर्तन की चुनौती को देखते हुए मिस्र, जॉर्डन और खाड़ी के कुछ अन्य देश अपने विरासत स्थलों की देखभाल बेहतर तरीके से करने की दिशा में प्रगति कर रहे हैं लेकिन इस क्षेत्र के अन्य देश ऐसा करने में ज्यादा सक्षम नहीं हैं. यूसीएल से जुड़ी रॉबसन कहती हैं कि विरासत वाली जगहों के प्रबंधन के लिए ज्यादातर देशों में सरकारी संस्थान बनाये गये हैं. मसलन, इराक में स्टेट बोर्ड ऑफ एंटीक्विटीज एंड हेरिटेज है. रॉबसन कहती हैं, "ये संस्थान संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं, यहां उपकरणों की कमी है और प्रशिक्षित कर्मचारियों का भी अभाव है क्योंकि इराक पिछले बीस साल से वैश्विक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है. इस बीच, इन जगहों की जरूरतें बढ़ती ही जा रही हैं और इन्हें संरक्षित रखना महंगा होता जा रहा है.” काहिरा स्थित मिस्र यूनिवर्सिटी फॉर साइंस एंड टेक्नोलॉजी में पुरातत्व विभाग के प्रोफेसर इब्राहिम बद्र कहते हैं, "विरासत स्थलों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाने के मामले में जागरूकता की अभी बहुत कमी है. इस संबंध में कुछ अध्ययन हुए जरूर हैं लेकिन उन्हें अभी लागू नहीं किया गया है. दुर्भाग्यवश, मध्य पूर्व के ज्यादातर देश इस मुद्दे पर बहुत गंभीर ही नहीं हैं और पुरातात्विक जगहों पर इन सबका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.” अस्तित्व के लिए सोशल नेटवर्किंग की जरूरत सबसे महत्वपूर्ण बात शायद यह है कि विशेषज्ञ इस बात पर भी चर्चा कर रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन का नकारात्मक प्रभाव विरासत स्थलों के आस-पास रहने वाले समुदायों पर भी बढ़ता जा रहा था. बकीर्तिज कहते हैं, "यह सिर्फ कोई प्राचीन मंदिर या पुरातात्विक स्थल ही नहीं हैं जो कि वहां हैं. बल्कि इससे उन समुदायों का भी वास्ता रहता है जो इन जगहों के आस-पास निवास करते हैं और इनके उपयोग और अनुभव के जरिए इनके महत्व को भी बनाए रखते हैं.” वो कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन की वजह से इन जगहों के नजदीक जब लोगों का रहना मुश्किल हो जाएगा तो लोग यहां से पलायन करने लगेंगे और फिर स्थिति यह होगी कि उन स्थलों की देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा और फिर धीरे-धीरे ये स्थल अपना सांस्कृतिक अर्थ भी खो देंगे. बकीर्तिज इराक में स्थित कुछ प्राचीन ईसाई धर्म से जुड़े स्थलों का जिक्र करते हैं. उनमें से ज्यादातर अपना महत्व खो चुके हैं. वो कहते हैं, "स्थानीय ईसाई लोग युद्ध, जलवायु परिवर्तन और इस्लामी चरमपंथी समूह इस्लामिक स्टेट के हमलों की वजह से वहां से पलायन कर गए हैं. इसलिए उन जगहों पर अब कोई नहीं जाता और ना ही इन जगहों की देखभाल होती है. इन सब वजहों से ये स्थल अब खंडहर मात्र रह गए हैं.” लूटपाट का बोलबाला इसके अलावा विरासत स्थलों पर कुछ दूसरे कारणों से भी खतरा मंडरा रहा है. कई बार स्थानीय लोग यहां की कीमती चीजों की तस्करी करते हैं और उन्हें महंगे दामों पर बेच देते हैं. रॉबसन कहती हैं, "जब लोग मरुस्थलीकरण और उच्च तापमान की वजह से जमीन का उपयोग खेती के लिए नहीं कर पाते, तो हम देखते हैं कि ये लोग इसी तरह लूटमार करने लगते हैं और पुरातात्विक सामग्री को ही लूटने लगते हैं.” रॉबसन कहती हैं कि इस तरह की स्थिति साल 2003 में इराक पर अमरीकी हमले के बाद आई है. यही कारण है कि सभी विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि मध्य पूर्व की सांस्कृतिक विरासत को जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों से बचाने के लिए हर संभव कोशिश करनी चाहिए. रॉबसन कहती हैं, "पुरातात्विक शब्दावली में कठोर भाषा में कहें तो बेबीलोन के बारे में हम यही कहेंगे कि हम एक एक और विरासत स्थल का पतन देख सकते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कि पिछले पांच हजार साल में कई बार देखा गया है. भविष्य में पुरातत्वविद आकर सिर्फ इसकी खुदाई कर सकते हैं.” हालांकि वो ये भी कहती हैं कि यह स्थानीय लोगों के लिए इससे भी कहीं ज्यादा दुखद क्षण है. उदाहरण के लिए, इराक के लोग तमाम चीजों पर बहस कर सकते हैं लेकिन एक चीज जो उन्हें एकता के सूत्र में बांध सकती है, वो है उनकी प्राचीन सभ्यता, प्राचीन मेसोपोटामिया जहां पहली बार लिखने, खेती करने और शहरों के उदाहरण मिलते हैं. अंत में रॉबसन कहती हैं, "विरासत के साथ हमारा एक निजी संबंध होता है. वास्तव में यह एक विरासत है जो हमें बताती है कि हम कौन हैं, दुनिया में और अपने समुदाय में हमारी क्या अहमियत है. यह हमारे भीतर सामंजस्य की भावना लाता है और आखिरकार हमें हमारी पहचान की याद दिलाता है.”

यह आर्टिकल पंजाब केसरी टीम द्वारा संपादित नहीं है, इसे DW फीड से ऑटो-अपलोड किया गया है।

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