इस एक पौधे में है अनगिनत गुण

punjabkesari.in Thursday, Oct 24, 2019 - 09:24 AM (IST)

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तुलसी का नाम काफी सुना था। तुलसीदास तथा तुलसीराम वगैरा भी काफी देखे-मिले मगर तुलसी ‘सिंह’ कभी नहीं सुना और न कोई मिला। हां, तुलसी के पौधे के गुणों बारे इधर-उधर से बहुत सुना था।
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एक दिन मां कहने लगी, ‘‘बेटा, तेरे चौबारे की छत पर तुलसी के पौधे का गमला रख दिया है, सुबह उठते ही निर्णय कालजे (खाली पेट) दो-तीन पत्ते तोड़ कर खा लिया कर, मेरी शूगर तो उस दिन की ठिकाने पर आ गई है, जिस दिन से मैं 3 पत्ते तोड़ कर खाती हूं, मगर तुझे कौन-सी शूगर है, फिर भी आगे बचाव ही रहेगा बेटा, वाहेगुरु भला करे...।’’
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मां मेरे बारे आगे की सोच रही थी। मैं अभी की सोच रहा हूं। वह आगे बोलती है, ‘‘हां सच, तुझे बताना भूल गई बेटा, तुलसी वाले गमले को जूठा पानी नहीं डालना...यह पवित्र पौधा होता है...।’’ मां ने हिदायत की। तुलसी का पौधा दिनों में ही मेरे चौबारे की छत पर बढ़-फूल गया। मैं सुच्चे पौधे से डरता। पानी का घूंट भी दूर जाकर भरता। सुबह उठते ही पहले तुलसी के पौधे के दीदार होते, लगता कि सुबह की ठंडक में भीगे तुलसी के पत्ते पुकार रहे हैं। मैं बेशक ‘चंडीगढि़या’ हो गया हूं, मगर चौबारे पर फैल रहा तुलसी का गमला अभी ‘पेंडू’ है। मैं बचपन से देखता आ रहा हूं कि हमारे घर के आंगन में से ‘मरूए’ का पौधा कभी नहीं मरा। हमारे घर में मरूए के कितने ही पौधे हैं। मैं मां से लड़ता हूं कि पैर-पैर पर मरूआ है। इतना मरूआ क्या करना? मां मरूए के हक में बोलती है, ‘‘तुझे क्या कहता है मरूआ, इसकी चटनी कितनी स्वाद होती है...पत्ते सुखा लो, इसका चूर-भूर सब्जी में डाल लो..., मरूए के100 गुण हैं...न कब्ज रहे, न मुंह का कड़वापन...न दांत दुखें... न बदहजमी हो, यदि सुबह-सवेरे मरूए के पत्ते दांतों पर घिसाएं और इसका पानी अंदर निगल लें तो यह शरीर के लिए बहुत फायदेमंद होता है...।’’
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घर में जब पुदीना खत्म हो जाए या सूख जाए तो मरूए की चटनी रगड़ी जाती थी कुंडे-घोटने के साथ। मां अभी भी मरूआ सुखाने से नहीं हटती। आंगन के बीचों-बीच 4-5 पौधे हरे-भरे खड़े हैं। मैंने मां से चोरी-छिपे कई बार मरूए के पौधे उखाड़ कर बाहर फैंके हैं। यही अंतर है पौधों तथा प्राणियों में। पेड़ों तथा मनुष्यों में। ये पेड़ तथा पौधे फिर भी सदा साथ निभाते हैं, जहां बीज बो दें वहीं उगते हैं, फलते-फूलते हैं। मनुष्य ऐसा है कि हमेशा भटकता-फिरता है। कोई एक ठिकाना नहीं बंदे का। ‘पौधे’ तथा ‘पेड़’ बार-बार छांगे जाते हैं पर ये अपना ठिकाना नहीं बदलते, अडिग खड़े रहते हैं। इस अडिगता में ही इनकी महानता है। बेरी कहती है-‘‘मुझे कंकर लगते हैं, मैं फिर भी बेर देती हूं, मेरा कर्म बेर देना तथा कंकर खाना ही है।’’

मां द्वारा चौबारे पर भेजे तुलसी के गमले को दोनों हाथ जोड़ कर सलाम कहते आंखें नम हो गईं।


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