श्रीमद्भगवद्गीता: अहंकार रहित व्यक्ति ही श्रीकृष्ण में हो सकता है एकाकार

punjabkesari.in Monday, Jan 08, 2018 - 11:20 AM (IST)

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार: स्वामी प्रभुपाद अध्याय 5 (कर्मयोग)


कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिन: कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये।।11।।


शब्दार्थ: कायेन—शरीर से; मनसा—मन से; बुद्धया—बुद्धि से; केवलै:—शुद्ध; इंद्रियै:—इंद्रियों से; अपि—भी; योगिन:—कृष्ण भावनाभावित व्यक्ति; कर्म—कर्म; कुर्वन्ति—करते हैं; सङ्गम्—आसक्ति; त्यक्त्वा—त्याग कर; आत्म—आत्मा की; शुद्धये—शुद्धि के लिए।


अनुवाद: योगीजन आसक्ति रहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इंद्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।


तात्पर्य: जब कोई श्री कृष्ण की इंद्रिय तृप्ति के लिए शरीर, मन, बुद्धि अथवा इंद्रियों द्वारा कर्म करता है तो वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के कार्यों से कोई भौतिक फल प्रकट नहीं होता। अत: सामान्य रूप से सदाचार कहे जाने वाले शुद्ध कर्म कृष्णभावनामृत में रहते हुए सरलता से सम्पन्न किए जा सकते हैं। श्रील रूप गोस्वामी से भक्तिरसामृत सिंधु में (1.2.187) इसका वर्णन इस प्रकार किया है-


ईहा यस्य हरेर्दास्ये कर्मणा मनसा गिरा।
निखिलास्वप्यवस्थासु जीवन्मुक्त: स उच्यते।।


‘‘अपने शरीर, मन, बुद्धि तथा वाणी से कृष्णभावनामृत में कर्म करता हुआ (कृष्णसेवा में) व्यक्ति इस संसार में भी मुक्त रहता है भले ही वह तथाकथित अनेक भौतिक कार्यकलापों में व्यस्त क्यों न रहे।’’ उसमें अहंकार नहीं रहता क्योंकि वह यह विश्वास नहीं करता कि वह भौतिक शरीर है अथवा यह शरीर उसका है। वह जानता है कि वह यह शरीर नहीं है और न यह शरीर ही उसका है। वह स्वयं श्री कृष्ण का है और उसका यह शरीर भी कृष्ण की सम्पत्ति है। जब वह शरीर, मन, बुद्धि, वणी, जीवन, सम्पत्ति आदि से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु को, जो भी उसके अधिकार में है, श्री कृष्ण की सेवा में लगाता है तो वह तुरंत श्री कृष्ण से जुड़ जाता है। वह श्री कृष्ण से एकाकार हो जाता है और उस अहंकार से रहित होता है जिसके कारण मनुष्य सोचता है कि मैं शरीर हूं। यही कृष्णभावनामृत की पूर्णावस्था है। 


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