श्रीमद्भगवद्गीता: अपने ‘कर्मों’ में ‘दृढ़’ रहना चाहिए

punjabkesari.in Saturday, Aug 06, 2022 - 05:13 PM (IST)

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ऐसा कहा जाता है श्रीभगवद्गीता में अधिकतर रूप से कर्मों के बारे में वर्णन किया गया है। इसके अनुसार मानव जीवन में अगर कोई चीज़ सबसे ज्यादा मायने रखती है वो है उसके द्वारा किए जाने वाले कर्म। आज इस आर्टिकल में हम आप को श्रीमद्भगवद्गीता के एक ऐसे श्लोक के बारे में बताने जा रहे है कि कैसे प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्मों में दृढ़ता रखनी चाहिए। तो आइए विस्तार पूर्वक जानते हैं क्या है ये श्लोक व इसका अनुवाद व तात्पर्य- 
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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक-

अपने ‘कर्मों’ में ‘दृढ़’ रहना चाहिए
 

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श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।।

अनुवाद : अपने नियतकर्मों को दोषपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना भी अन्य के कर्मों को भलीभांति करने से श्रेयस्कर है। स्वीय कर्मों को करते हुए मरना, पराए कर्मों में प्रवृत्त होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का अनुसरण भयावह होता है। 
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तात्पर्य : अत: मनुष्य को चाहिए कि वह अन्यों के लिए नियतकर्मों की अपेक्षा अपने नियतकर्मों को कृष्णभावनामृत में करें। भौतिक दृष्टि से नियतकर्म मनुष्य की मनोवैज्ञानिक दशा के अनुसार, भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन आदिष्ट कर्म हैं। आध्यात्मिक कर्म, कृष्ण की दिव्य सेवा के लिए गुरु द्वारा आदेशित होते हैं किन्तु चाहे भौतिक कर्म हों या आध्यात्मिक कर्म, मनुष्य को मृत्युपर्यंत अपने नियत्कर्मों में दृढ़ रहना चाहिए। अन्य के निर्धारित कर्मों का अनुकरण नहीं करना चाहिए।

आध्यात्मिक तथा भौतिक स्तरों पर ये कर्म भिन्न-भिन्न हो सकते हैं किन्तु कर्ता के लिए किसी प्रामाणिक निर्देशन के पालन का सिद्धांत उत्तम होगा। जब मनुष्य प्रकृति के गुणों के वशीभूत हो तो उसे उस विशेष अवस्था के लिए नियमों का पालन करना चाहिए, उसे अन्यों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। हर व्यक्ति को एकाएक नहीं, अपितु क्रमश: अपने हृदय को स्वच्छ बनाना चाहिए किन्तु जब मनुष्य प्रकृति के गुणों को लांघकर कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीन हो जाता है तो वह प्रमाणिक गुरु के निर्देशन में सब कुछ कर सकता है।  (क्रमश:)


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Content Writer

Jyoti

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