श्रीमद्भगवद्गीता: क्या है ‘कर्म’ की व्याख्या, जानिए यहां

punjabkesari.in Saturday, Dec 25, 2021 - 12:45 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद

साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता 
श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक- 
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।1।।

अनुवाद : अर्जुन ने कहा: हे जनार्दन, हे केशव! यदि आप बुद्धि को सकाम कर्म से श्रेष्ठ समझते हैं तो फिर आप मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हैं?

तात्पर्य : भगवान श्री कृष्ण ने पिछले अध्याय में अपने घनिष्ठ मित्र अर्जुन को संसार के शोक सागर से उबारने के उद्देश्य से आत्मा के स्वरूप का विशद् वर्णन किया है और आत्म-साक्षात्कार के जिस मार्ग की संस्तुति की है वह है बुद्धियोग या कृष्णभावनामृत।

कभी-कभी कृष्णभावनामृत को भूल से जड़त्व समझ लिया जाता है और ऐसी भ्रांत धारणा वाला मनुष्य भगवान कृष्ण के नामजप द्वारा पूर्णतया कृष्ण भावनाभावित होने के लिए प्राय: एकांत स्थान में चला जाता है।

किंतु कृष्णभावनामृत के दर्शन में प्रशिक्षित हुए बिना एकांत स्थान में कृष्ण नामजप करना ठीक नहीं। इससे अबोध जनता से केवल सस्ती प्रशंसा प्राप्त हो सकेगी।

अर्जुन को भी कृष्णभावनामृत या बुद्धियोग ऐसा लगा मानो यह सक्रिय जीवन से संन्यास लेकर एकांत स्थान में तपस्या का अ यास हो। दूसरे शब्दों में, वह कृष्णभावनामृत को बहाना बना कर चतुरतापूर्वक युद्ध से जी छुड़ाना चाहता था किंतु एकनिष्ठ शिष्य होने के नाते उसने यह बात अपने गुरु के समक्ष रखी और कृष्ण से सर्वोत्तम कार्य-विधि के विषय में प्रश्र किया। उत्तर में भगवान ने तृतीय अध्याय में कर्मयोग अर्थात कृष्ण भावनाभावित कर्म की विस्तृत व्याख्या की


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Content Writer

Jyoti

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