श्रीमद्भगवद्गीता- सर्वोच्च दिव्य गुण है कर्म

punjabkesari.in Sunday, May 23, 2021 - 11:55 AM (IST)

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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक-
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात।।40।।

अनुवाद एवं तात्पर्य : इस प्रयास में न तो हानि होती है न ही ह्रास अपितु इस पथ पर की गई अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा कर सकती है। कर्म का सर्वोच्च दिव्य गुण है, कृष्ण भावनामृत में कर्म या इंद्रिय तृप्ति की आशा न करके कृष्ण के हित में कर्म करना। ऐसे कर्म में कोई बाधा नहीं आती है।

भौतिक स्तर पर प्रारंभ किए जाने वाले किसी भी कार्य को पूरा करना होता है अन्यथा सारा प्रयास निष्फल हो जाता है, किन्तु कृष्णभावनामृत में प्रारंभ किया जाने वाला कोई भी कार्य अधूरा रह कर भी स्थायी प्रभाव डालता है। अत: ऐसे कर्म करने वाले को कोई हानि नहीं होती, चाहे यह कर्म अधूरा ही क्यों न रह जाए।

यदि कृष्णभावनामृत का एक प्रतिशत भी कार्य पूरा हुआ हो तो उसका स्थायी फल होता है, अत: अगली बार दो प्रतिशत से शुभारंभ होगा किन्तु भौतिक कर्म में जब तक शत-प्रतिशत सफलता प्राप्त न हो तब तक कोई लाभ नहीं होता।

अजामिल ने कृष्णभावनामृत में अपने कत्र्तव्य का कुछ ही प्रतिशत पूरा किया था किन्तु भगवान की कृपा से उसे शत प्रतिशत लाभ मिला। भौतिक कार्य तथा उनके फल शरीर के साथ ही समाप्त हो जाते हैं किन्तु कृष्णभावनामृत में किया गया कार्य मनुष्य को इस शरीर के विनष्ट होने पर भी पुन: कृष्णभावनामृत तक ले जाता है। 

कम से कम इतना तो निश्चित है कि अगले जन्म में उसे सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार में या अच्छे कुल में मनुष्य का शरीर प्राप्त हो सकेगा जिससे उसे भविष्य के ऊपर उठने का अवसर प्राप्त हो सकेगा। कृष्णभावनामृत में सम्पन्न कार्य का यही अनुपम गुण है।                  


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Content Writer

Jyoti

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