Smile please: आप भी करते हैं अपने परिवार से प्यार तो आज से हो जाएं सावधान !
punjabkesari.in Wednesday, Sep 21, 2022 - 10:06 AM (IST)
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
तेजी से बदल रहे भारत में आज बुजुर्गों के लिए सम्मानपूर्वक जीवन जीना एक बड़ी चुनौती समान हो गया है। जी हां, यह वही भारत देश है, जहां हम ‘श्रवण कुमार’ की मिसाल देकर अपने बच्चों को बड़ा करते आए हैं, केवल इस आशा में कि बड़े होकर वे भी श्रवण कुमार का अनुसरण करेंगे, परंतु 21वीं सदी की बात ही कुछ और हो गई है।
आज हर कोई प्रतिस्पर्धात्मक प्रकृति के वश अपने जीवन की आवश्यकताओं में परिवर्तन ला रहा है, जिसके चलते बुजुर्गों की अहमियत निम्नतम स्तर की हो गई है। आज आपके ऊपर कितने आश्रितों की जिम्मेदारी है, उसके अनुसार आपकी जीवनशैली बनती है। अत: आधुनिक मनुष्य के जीवन का मूल मंत्र है ‘जितने कम आश्रित, उतना सुखी जीवन’।
जरा सोचिए उन बुजुर्गों के बारे में, जिन्होंने अपने परिवार की खातिर अपना सारा जीवन कुर्बान कर दिया और आज उन्हें यह सोचना पड़ रहा है कि इतना सब करके हमने क्या पाया और क्या खोया?
सचमुच यह कितनी निराशाजनक स्थिति है! जिन्होंने परिवार की खुशी के लिए अपनी हर इच्छा का दम घोंट दिया, उन्हें किसी की तरफ से अहसान या कृतज्ञता के दो बोल भी सुनने को नहीं मिले और ऊपर से सीना चीरने वाली तलवार तो तब चलती हैं जब अपनी ही संतानों से ये एहसान फरामोशी के बोल सुनने पड़ते हैं कि ‘आपने हमारे लिए किया ही क्या है’ या ‘आपने हम पर कोई मेहरबानी नहीं की है’।
यह दर्दनाक हालत जीवन की संध्या की ओर ढलते हर उस व्यक्ति की है, जिसने अपनी जवानी कर्तव्य निभाने में खत्म कर दी, मगर आज उनकी मेहनत की कीमत कोई कर्म द्वारा तो क्या, शब्दों द्वारा भी चुकाने को तैयार नहीं। अपने ही परिवार से मिल रही ऐसी उपेक्षा का जिम्मेदार कौन ?
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जिम्मेदार है हमारा अपना मोह। यही मोह कारण बना, माता कैकई के कहने पर राजा दशरथ द्वारा श्री राम को वनवास भेजने का और यही मोह कारण बना इतिहास के सबसे बड़े युद्ध महाभारत का।
अक्सर हम सभी अपने कर्तव्य निभाने में अपने पूरे अस्तित्व को लुप्त कर बैठते हैं। अत: पुण्य कर्मों के लिए समय न निकालना, आत्म अवलोकन न करना, परमात्मा के प्रति पल-पल कृतज्ञता का इजहार न करना- ये कुछ ऐसी बातें हैं जो हमें कर्मों के बोझ तले लाद देती हैं और हमारा सुख-चैन हर लेती हैं।
स्वाभाविक ही हमारे मुख से फिर यही निकलता है कि आखिर हमने सभी के लिए इतना कुछ किया, परंतु बदले में हमें क्या मिला? केवल उपेक्षा !
परिवार के मोह में हम यह भूल जाते हैं कि जिन्हें सारा जीवन हम मेरा-मेरा कहते रहे, ऐसे मेरेपन से भरे संबंध छुईमुई के पौधे के समान होते हैं, जो स्पर्श करते ही मुरझा जाते हैं। हम तो उसे बड़े प्यार से सहलाते हैं पर वह प्यार उसे रास नहीं आता और पौधा अपनी ताजगी त्याग देता है।
छुईमुई को ठीक करने के लिए हमें उससे दूर होना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार से संबंधों में भी कुछ दूरी से स्वाभाविक रूप से प्यारा पन आ जाता है और हम संबंध में रहते हुए निर्बंधन अवस्था को अनुभव कर पाते हैं।
हम सभी पारिवारिक जीवन जीते हुए अलौकिक चिंतन में अपना मन लगाकर हर कर्म ईश्वर को अर्पण करें और यह सोचें कि ‘जो करवाया उसने करवाया’ तो सदा सुखी रहेंगे।