केदारनाथ जाकर नहीं किया ये काम, तीर्थयात्रा का पूरा पुण्य नहीं होगा प्राप्त

punjabkesari.in Friday, Jan 05, 2018 - 10:54 AM (IST)

शिवपुराण में श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के आविर्भाव की कथा निम्नानुसार वर्णित है: भगवान विष्णु के नर-नारायण नाम के दो अवतार हुए। दोनों नर और नारायण हिमालय के बदरी वन क्षेत्र में तपस्या करते थे। इस पूरे क्षेत्र में अति प्राचीन काल में बेर (बदरी) वृक्षों का घना वन था, इन्हीं बदरी यानी बेर के कारण इस भू-भाग को बदरीवन कहा गया था, उन दोनों ने पार्थिव शिवलिंग बनाए और भगवान शिव से प्रार्थना की कि वे उन पार्थिव शिवलिंग में नित्य प्रवेश कर उनकी पूजा-अर्चना स्वीकार करें। शिव जी शीघ्र ही अपने भक्तों के अधीन हो जाते हैं, इसलिए उन्होंने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंग में प्रवेश कर नर-नारायण की पूजा करने लगे।
नर-नारायण को पार्थिव शिवलिंग की पूजा करते लम्बा समय व्यतीत हो गया और शिवजी उन पर बहुत प्रसन्न हुए। एक दिन साक्षात प्रकट होकर उन्होंने कहा, ‘‘मैं तुम्हारी भक्ति और पूजा-आराधना से प्रसन्न हूं, तुम दोनों मुझसे मनचाहा वर मांग सकते हो।’’


नर-नारायण निरासक्त भाव से शिव की आराधना करते थे। उनकी अपनी व्यक्तिगत कोई अभिलाषा नहीं थी।  उन्होंने लोकहित की कामना से प्रेरित हो भगवान शिव से कहा, ‘‘यदि आप वास्तव में हम पर प्रसन्न हैं और हमें वरदान देना चाहते हैं, तो अपनी पूजा ग्रहण करने के लिए सदा-सर्वदा के लिए इस क्षेत्र में स्थित (विराजमान) हो जाइए और भक्तों को अपने दिव्य दर्शन से उपकृत कीजिए।’’


भगवान शिव उनकी परमार्थ भावना देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और केदार तीर्थ में स्वयं ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। इस प्रकार सम्पूर्ण प्राणियों, भक्तों और दर्शनार्थियों के समस्त दुखों, कष्टों, भय और पापों का नाश करने वाले भगवान शिव केदारेश्वर नाम से केदार पर्वत पर निवास करने लगे। इन्हें ही बोलचाल में केदारनाथ भी कहते हैं।


शिव पुराण में वर्णित एक अन्य कथा के अनुसार, महाभारत युद्ध की समाप्ति के छत्तीस वर्ष बाद जब पांचों पांडव द्रोपदी सहित स्वर्गारोहण के लिए पर्वतराज हिमालय की ओर जा रहे थे, तब वे भगवान केदारनाथ के दर्शन हेतु मंदिर में पहुंचे। किसी कारणवश भगवान केदारनाथ पांडवों को स्वकीय रूप से दर्शन नहीं देना चाहते थे, अत: वे भैंस का रूप धारण कर वहां से पलायन करने लगे। केदारनाथ की ऐसी इच्छा देख पांडव भगवान से दर्शन देने हेतु बारम्बार प्रार्थना करने लगे तथापि शिव उर्ध्वमुख होकर वहां से भागने लगे। ऐसा करते देख महाबली भीम ने बलपूर्वक उनकी पूंछ को पकड़ लिया। भीम के चंगुल से अपने आपको छुड़ाने के प्रयास में भैंस रूपी भगवान केदारनाथ का शिरोभाग पृथ्वी के अंदर प्रविष्ट हो गया। शेष भाग वैसा का वैसा वहीं स्थिर हो गया। शिवजी की इच्छानुसार भैंस का शिरोभाग हिमवत प्रदेश यानी नेपाल देश की राजधानी यानी काठमांडू में प्रकट होकर पशुपति नाथ नाम से पूजित हुआ। धड़ का प्रमुखत: पृष्ठ भाग उसी रूप में पूजित होने लगा।


प्रायश्चित स्वरूप पांडवों ने द्रोपदी (कृष्णा) सहित केदारेश्वर शिव की गहन तपस्या की। संभवत: यही कारण है कि केदारनाथ मंदिर में द्रोपदी सहित पांडवों की मूर्तियां स्थापित हैं। काठमांडू स्थित शिवलिंग को पशुपतिनाथ कहा जाता है। पशुपतिनाथ के दर्शनों का विशेष धार्मिक महत्व है। ऐसी मान्यता है कि केदारेश्वर के दर्शन के साथ-साथ पशुपतिनाथ के भी दर्शन करने चाहिएं। यदि तत्काल संभव न हो तो केदारनाथ दर्शन के अधिकतम छ: मास के अंदर पशुपतिनाथ के दर्शन अवश्य करने चाहिएं नहीं तो तीर्थयात्रा का पूरा पुण्य प्राप्त नहीं होता है।


केदारनाथ के दर्शनार्थियों को केदारेश्वर शिवलिंग के दर्शन के अतिरिक्त इन स्थलों के दर्शन भी अवश्य करने चाहिएं : 

श्री शंकराचार्य स्मारक : लोग इसे शंकराचार्य की समाधि कहने की भूल करते हैं, परन्तु शंकराचार्य जी ने समाधि नहीं ली थी। इस स्मारक को आदि शंकराचार्य का बताने की भी भूल होती है। आदि शंकराचार्य जी (509-477 ई.पू.) ने भारत की चार दिशाओं में चार पीठों की स्थापना कर अपने चार शिष्यों को उन पर प्रतिष्ठित किया था, जो आगे शंकराचार्य कहलाए और यह शृंखला अब तक कायम है। आदि शंकराचार्य स्वयं कांची कामकोटि पीठ पर रहे और अंतत: कांची की पहाडिय़ों में गुहावास किया और तिरोहित हो गए। आठवीं शताब्दी ईसवी के सुप्रसिद्ध अद्वैत दार्शनिक अभिनव शंकर या धीर शंकर को शंकराचार्य की शृंखला में शिवोत्तर माना जाता है, जिनके क्रियाकलाप आदिशंकर से बहुत मिलते-जुलते हैं, ये कांची कामकोटि पीठ के आचार्य थे और चालीस वर्ष तक पृथ्वी पर रहे जबकि 509-477 ई.पू. वाले शंकराचार्य मात्र 32 वर्ष ही पृथ्वी पर साक्षात रहे। अभिनव शंकर ही अपने अंत समय में केदारनाथ मंदिर के पीछे गए और वहां से व्यास गुफा पहुंचे। इसके पश्चात स्वर्ग गमन किया। कहा जाता है कि वे सशरीर (स्वर्ग) उनको लेने के लिए स्वयं शिव के गण आए थे। उन्हीं की पुण्य स्मृति में यह शंकराचार्य स्मारक बनवाया गया है।


वासुकि ताल : केदारनाथ से लगभग 6 कि.मी. की दूरी पर लगभग 4135 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक मनोरम झील दर्शनीय है। इसे वासुकि ताल भी कहते हैं। यह नागराज वासुकि से संबंधित हैं।


गौरीकुंड : यहां गर्म जल के कुंड और गौरी देवी का मंदिर प्रमुख आकर्षण के केंद्र हैं। जहां बारह माह अत्यधिक ठंडक रहती हो, वहां गौरी कुंड के गर्म जल से स्नान बहुत शांति प्रदान करता है। माना जाता है कि यहीं पर माता पार्वती (गौरी-उमा) का जन्म हुआ था। केदारनाथ से बद्रीनाथ नारदकुंड, नर-नारायण दो पर्वत आदि के दर्शन के लिए भी जाना चाहिए।


यदि आपके पास अवकाश हो, समुचित साधन हों तो आप केदारनाथ से चौराबाड़ी (गांधी ताल) 2 कि.मी. दूर, सोनप्रयाग 19 कि.मी., त्रियुगी नारायण मंदिर 25 कि.मी. दूर, गुप्तकाशी 49 कि.मी., ऊंखी मठ 60 कि.मी., देवरिया ताल 68 कि.मी., अगस्त्य मुनि 73 कि.मी., जोशी मठ 42 कि.मी. आदि स्थानों के भी दर्शन कर सकते हैं।


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