‘सतगुरु नानक प्रगटिया मिटी धुंध, जग चानण होआ’

punjabkesari.in Saturday, Nov 04, 2017 - 06:52 AM (IST)

श्री गुरु नानक देव जी का जन्म राय भोए की तलवंडी (अब पाकिस्तान में ननकाना साहिब) में 1469 ई. में मेहता कल्याण दास जी के घर माता तृप्ता जी की कोख से हुआ। गुरु जी बचपन से ही संत महापुरुषों की संगत करते रहते थे। 9 वर्ष की आयु में जब गुरु जी को जनेऊ पहनने को कहा गया तो आपने यह पवित्र जनेऊ पहनने से यह कहकर मना कर दिया कि उन्हें तो ऐसा जनेऊ पहनाया जाए, जो न तो कभी टूट सके तथा न ही गंदा हो सके और न ही अग्नि उसे जला सके। यह सुनकर सभी दंग रह गए और गुरु जी से ही पूछा ऐसा जनेऊ कहां से मिलेगा, तो गुरु जी ने उत्तर दिया, 


‘‘दया कपाह संतोख सूत जत गंढी सत वट॥ इह जनेऊ जीय का हई त पांडे घत॥
न इह तुटै न मल लगै न इह जलै न जाए॥ धन सु माणस नानका जिन गल चला पाए॥’’


इसके बाद जब गुरु जी कुछ और बड़े हुए तो उन्हें कारोबार सिखाने के लिए 20 रुपए देकर कुछ सामान खरीदने के लिए भेजा गया, ताकि उस सामान को वापस आकर अधिक मूल्य पर बेचकर मुनाफा कमाया जा सके परंतु गुरु जी ने गांव चूहड़काना में कई दिनों से भूखे-प्यासे बैठे संत महापुरुषों को इन 20 रुपए का भोजन खिलाया तथा कहा कि यह ‘सच्चा सौदा’ है। जब गुरु जी घर पहुंचे तो उनके पिता जी उन पर बहुत नाराज हुए परंतु गुरु जी की बहन बीबी नानकी जी ने अपने पिता जी को समझाया कि गुरु जी कोई साधारण पुरुष नहीं, बल्कि भगवान ने उन्हें किसी विशेष कार्य के लिए भेजा है। 


गुरु नानक देव जी की बड़ी बहन बीबी नानकी जी के ससुराल सुल्तानपुर लोधी में थे। बहन अपने भाई को अपने पास सुल्तानपुर ही ले आई, जहां गुरु जी को मोदीखाने में नौकरी मिल गई, परंतु गुरु जी का ध्यान यहां भी प्रभु भक्ति में लगा रहता। जो भी जरूरतमंद आप जी के पास आता, आप उसे भोजन या राशन दे देते थे।


गुरु नानक देव जी इस दुनिया पर भूले-भटके लोगों को सत्य का मार्ग दिखलाने आए थे। अपने मिशन को वे पूरे देश-विदेश का भ्रमण करके ही पूरा कर सकते थे। इसी आशा को लेकर आप नित्य की तरह सुल्तानपुर के निकट से बहती बेईं नदी में स्नान करने के लिए गए और तीन दिन तक बाहर न आए। लोगों ने सोचा कि गुरु नानक देव जी नदी में डूब गए हैं, परंतु तीसरे दिन आप जी जब नदी से बाहर निकले तो आपने कहा कि न कोई हिन्दू न मुसलमान। इस पर विवाद खड़ा हो गया, परंतु गुरु जी ने सभी को समझाया कि मनुष्य को इंसान बनना है, इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म है।


अपने मिशन को पूरा करने के लिए गुरु जी ने चारों दिशाओं में चार लंबी यात्राएं कीं, जिन्हें चार उदासियां कहा जाता है। इन चार यात्राओं में गुरु जी ने देश-विदेश का भ्रमण किया तथा लोगों को सत्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। गुरु जी ने पहाड़ों में बैठे योगियों तथा सिद्धों के साथ भी वार्ताएं कीं तथा उन्हें दुनिया में जाकर परमात्मा के साथ जोडऩे के लिए लोगों को प्रेरित करने के लिए उत्साहित किया। आप जी ने गृहस्थ मार्ग को सर्वोत्तम माना तथा स्वयं भी गृहस्थ जीवन व्यतीत किया। आप जी की शादी पक्खो की रंधावा (गुरदासपुर) के रहने वाले पटवारी मूला चोणा की सुपुत्री सुलक्खणी जी से मूला जी के पैतृक गांव बटाला में हुई। आप जी के दो पुत्र बाबा श्री चंद तथा बाबा लखमी दास जी थे। 


भाई गुरदास जी के अनुसार, गुरु नानक देव जी अपनी यात्राएं (उदासियां)पूरी करने के बाद करतारपुर साहिब आ गए। उन्होंने उदासियों का भेस उतारकर संसारी वस्त्र धारण कर लिए। सत्संग प्रतिदिन होने लगा। भाई गुरदास जी के शब्दों में:- 


‘‘ज्ञान गोष्ठ चर्चा सदा अनहद शब्द उठै धुनिकारा॥ सोदर आरती गावीअै अमृत वेलै जाप उचारा॥’’


गुरु जी स्वयं खेतीबाड़ी का काम करने लगे तथा दूर-दूर से लोग गुरु जी के पास धर्म कल्याण के लिए आने लगे। यहां पर भार्ई लहणा जी गुरु जी के दर्शनों के लिए आए तथा सदैव के लिए गुरु जी के ही होकर रह गए। आप जी ने अपने पुत्रों को गुरु गद्दी नहीं दी, बल्कि त्याग, आज्ञाकारी एवं सेवा की मूर्त भाई लहणा जी की कई कठिन परीक्षाएं लेने के बाद हर तरह से उन्हें गुरु गद्दी के योग्य पाकर उन्हें गुरु गद्दी सौंप दी और उनका नाम गुरु अंगद देव जी रखा। गुरु नानक देव जी 1539 ई. में करतारपुर साहिब में ज्योति ज्योत समा गए।


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