महिला दिवस पर इस मां को सलाम, वीरगाथा सुन नम हो जाएंगी आपकी भी आंखें

punjabkesari.in Tuesday, Mar 07, 2017 - 01:31 PM (IST)

रानी दुर्गावती महोबा के राजा की कन्या और गढ़मंडल राज्य के अधिपति दलपतशाह की सहधर्मिणी थी। गढ़मंडल सोलहवीं सदी में एक छोटा सा राज्य था लेकिन साथ ही साथ अपने अपार वैभव और सम्पत्ति के लिए दूर-दूर के राज्यों में भी महत्ती ख्याति प्राप्त कर चुका था। कुछ ही दिनों तक सुहाग सुख भोगने के बाद दुर्गावती पर वैधव्य का वज्र टूट पड़ा परंतु उन्होंने धैर्य तथा साहस से काम लिया। अपने प्यारे पुत्र नारायण की देखरेख का  भार अपने कंधे पर लिया और बड़ी नीतिज्ञता और कुशलता से राज्य का प्रबंध किया। उनके खजाने की ख्याति दूर-दूर फैली हुई थी।

 

उन्होंने पंद्रह साल तक निर्विघ्न शासन किया। उस समय भारत का सम्राट अकबर था। उसे अब तक भारत की सार्वभौम सत्ता प्राप्त नहीं हुई थी। हुमायूं को मरे केवल कुछ ही साल बीते थे कि अकबर को अपने खोए साम्राज्य को फिर जीतने की सनक सवार हुई। राजपूत रियासतों को अपने पक्ष में लाने के लिए वह तरह-तरह की योजनाएं बना रहा था। राजपूताने की बहुत-सी रियासतों की स्वाधीनता का अपहरण हो चुका था। अकबर सुदूर प्रांतों पर विजय करने के लिए सेनाएं तैयार कर रहा था लेकिन प्रश्र यह था कि धन कहां से आए। इसके लिए गढ़मंडल राज्य को लक्ष्य बनाया गया। उसके आदेश से सेनापति आसफ खां एक बहुत बड़ी सेना लेकर चल पड़ा।

 

रानी दुर्गावती ने आश्चर्यजनक पराक्रम दिखलाकर दुश्मनों की शान मिट्टी में मिला दी। यद्यपि वह हार गई फिर भी यह उनकी जीत ही थी। नारायण भी अठारह साल का हो चुका था। मां और बेटे ने जमकर युद्ध किया। रानी  ने बहादुर सैनिकों से कहा देश पर मिटने वाले वीरो! तैयार हो जाओ, आज तुम्हारी जन्मभूमि विपत्ति की सूचना पाकर क्रंदन कर रही है। रानी के जयनाद से आकाश गूंज उठा। सैनिक मुगल सेना पर टूट पड़े, गाजर-मूली की तरह काटते हुए उन्होंने दो बार मुगलों को हराया। आसफ खां ने कूटनीति से काम लिया। गढ़मंडल के एक पातकी सेना को काफी रिश्वत देकर उसने अपना काम बना लिया। 

 

दुर्गावती साक्षात रणरंगमयी भवानी दुर्गा की तरह लड़ाई के मैदान में शत्रु सेना का विनाश करने लगी, परंतु मुट्ठीभर राजपूत अधिक देर तक विशाल मुगल-सेना के सामने न ठहर सके। रानी घायल हुई। उनकी बाईं आंख में अचानक तीर लगा। फिर भी वह वीरांगना लड़ती रही। थोड़ी देर में सारी राजपूत सेना में हाहाकार मच गया। वीर पुत्र नारायण दुश्मन के एक बाण से चल बसा। रानी पुत्र वियोग से भी कर्त्तव्य पथ से विचलित न हुई। उन्होंने लड़ाई जारी रखी। पुत्र का शव उसकी आंखों के सामने से दूर हटा लिया गया परंतु सहनशक्ति की भी सीमा होती है, रानी बुरी तरह घायल हो गई। आंखों तले अंधेरा छा गया। जब विजय की आशा नहीं रही तब देखते ही देखते उस वीरांगना ने कमर से कटार निकाल कर अपनी छाती में घोंप ली। गढ़मंडल पर अकबर का आधिपत्य हो गया। दिल्ली का खजाना रत्नों, मोतियों और हीरों से भर गया लेकिन दुर्गावती रूपी रत्न पर यवनों का अधिकार न हो सका।


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