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punjabkesari.in Wednesday, Apr 08, 2020 - 11:11 AM (IST)
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
घर आए मित्र को ताजा लिखी कविता में एक अक्षर से आपत्ति थी। वह बोले, “इस स्थान पर ‘क’ स्वीकार्य नहीं, इसके बदले ‘च’ होना चाहिए।”
हालांकि कवि ने लिखने से पूर्व काफी सोच- विचार किया था, परंतु उन्होंने मित्र की बात का विरोध नहीं किया बल्कि संशोधन के लिए उन्हें पैंसिल थमा दी। फिर दूसरे मित्र पधारे, उन्हें बदला गया शब्द ‘च’ नहीं जंचा, इसके बदले उन्होंने ‘ट’ का परामर्श दे डाला। कविवर ने उनसे भी तकरार नहीं की और उनकी ओर ही स्वयं संशोधन करने का संकेत किया। तीसरे मित्र आए, उनकी राय में ‘ट’ पूरी तरह से गलत था, उनके अनुसार यहां ‘त’ होना था। उनसे भी विवाद नहीं किया गया, विनम्रता से सुधार के लिए पैंसिल थमा दी गई। जब सभी चले गए तो कविवर ने पुन: कविता में सबसे पहले वाला ‘क’ ही बने रहने दिया।
विवाद से किसी सर्वमान्य निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जाता। यही विवाद का नकारात्मक पक्ष है। विवाद में दोनों जैसे-तैसे स्वयं को सही ठहराते हैं। अंत में एक स्वयं को विजयी मान लेता है परंतु कटुता दोनों हृदयों में रह जाती है। मंशा दूसरे की सुनने की हो, तभी दोनों पक्ष एक-दूसरे के कहे पर खुले मन से गौर करेंगे।
दूसरे की बात गिराने की आतुरता के बदले उसकी मंशा समझने पर ध्यान रहेगा तो आपसी गलतफहमियां दूर होंगी, करीबी बढ़ेगी और संबंध मधुर बने रहेंगे। भाव जितने गहरे होते हैं, शब्दों में उन्हें उड़ेलना उतना ही कठिन होता है। शब्द भ्रामक हो सकते हैं, इसीलिए कहा गया है कि शब्दों पर मत जाइए, उनके आचरण और व्यवहार से उन्हें बेहतर समझा जा सकता है। शब्दों का आदान-प्रदान कम या बिल्कुल न होने से संप्रेषण कम नहीं होता।
एमिली डिकिन्सन की राय में, कदाचित कुछ न कह कर हम बहुत कुछ कह डालते हैं। ज्यादा बोलना असुरक्षा भाव दर्शाता है, आत्मविश्वास से सराबोर व्यक्ति संयत और मौन रहेगा। अंतर्मन के कोलाहल, हलचल, भय, ईर्ष्या को नियंत्रण में रखेंगे तभी प्रभु की आवाज सुनने में सक्षम होंगे।