महाभारत: आप भी हैं अपनों से परेशान, श्रीकृष्ण से जानें समाधान

punjabkesari.in Wednesday, Oct 26, 2022 - 10:11 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

Mahabharata: भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रति, उसके युद्ध न करने के निर्णय से उत्पन्न हुई स्थिति के फलस्वरूप कहते हैं कि यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और र्कीत को खोकर पाप को प्राप्त होगा। यहां धर्मयुक्त युद्ध से अभिप्राय: यह है कि यह युद्ध समस्त प्रजाजनों को अधर्मियों के शासन से मुक्त करवाने के लिए था, जिसके लिए परात्पर ब्रह्म, श्रीकृष्ण पांडवों का मार्गदर्शन कर रहे थे। अर्जुन क्षत्रिय थे, इस नाते अगर वह युद्ध से पलायन कर जाते तो न केवल वह कर्तव्य रूपी स्वधर्म का त्याग कर अपर्कीत के भागी बनते अपितु उनके हाथों बहुत बड़ा अधर्म और पाप हो जाता।

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भविष्य में आपके द्वारा लिए गए निर्णयों का इतिहास किस प्रकार अवलोकन करेगा यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन इतना तय है कि इतिहास कभी भी किसी की त्रुटियों और गलत निर्णयों को क्षमा नहीं करता। इसलिए यह आवश्यक है कि नीति और धर्म से युक्त निर्णय लेने के लिए उचित मार्गदर्शन प्राप्त हो।

वर्तमान में प्राप्त हो रहे तुच्छ लाभ को देखकर जब जीव नैतिकता तथा मानवीय मूल्यों का परित्याग कर कार्य करता है तो समाज में नैतिकताहीन तथा मूल्य विहीन संस्कृति का वातावरण पनपने लगता है। राजनीति में तो इस प्रकार की संस्कृति देश तथा समाज की संस्कृति को अत्यधिक प्रभावित करती है जो शुभ लक्षण का संकेत नहीं है। सत्ता और शक्ति के दुरुपयोग से सामाजिक संतुलन बिगड़ जाता है।

भगवान श्री कृष्ण यह भली भांति जानते थे कि पांडव धर्म मार्ग पर थे, अगर वह समाज में शांति की स्थापना के लिए किए जा रहे युद्ध से पलायन कर जाते तो समाज में दुर्योधन तथा जयद्रथ जैसे आचारविहीन, भ्रष्ट राजाओं का कभी भी अंत न हो पाता।

पांडवों के राज में लोकतंत्र स्थापित हुआ। लोकतंत्र का अर्थ ही है कि ‘जनहित सर्वोपरि’।  पूर्वकाल में यह लोकतंत्र योग्य शासकों के हाथ में सुरक्षित था क्योंकि वे व्यक्तिगत स्वार्थ और लाभ के वशीभूत न होकर, पारिवारिक बंधनों से निर्लेप होकर लोकहित तथा जनहित के कार्य करते थे।

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प्रजा भी अपने राजा के निर्णयों का सम्मान करती थी लेकिन वर्तमान समय में जहां लोकतंत्र में सामान्य प्रजा ही अपने सर्वमान्य चयनित प्रतिनिधि को ही देश का प्रधान सेवक चुनती है, वहां प्रजा की यह सर्वाधिक जिम्मेदारी बनती है कि वह देश में ऐसी राजनीतिक संस्कृति का निर्माण करे जिससे राष्ट्र में स्थिरता का माहौल बने।

देश की भावी पीढ़ी जिस प्रकार की राजनीतिक संस्कृति का अवलोकन करेगी, ठीक उसी प्रकार से राष्ट्र के भविष्य का निर्माण होगा जिस प्रकार दुर्योधन अपशब्दों से अपने से बड़ों का अनादर करता था तथा हर प्रकार से अपने राजनीतिक वर्चस्व को बनाए रखना चाहता था। उसकी पराजय से राजनीतिक संस्कृति का शुद्धिकरण हुआ। इन्हीं कारणों से निरपेक्ष होते हुए भी भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों के पक्ष में युद्ध में उनका साथ दिया।

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हमारे धर्मग्रंथों में बाल्यकाल से ही विद्यार्थियों को समाज एवं राष्ट्रहित की संस्कृति से पोषित नीतियुक्त वचनों से शिक्षित किया जाता था जिसमें मर्यादा, नैतिकता तथा मानवीय मूल्यों का सर्वोपरि स्थान है। इस ज्ञान से वंचित समाज अपने राजा द्वारा किए गए कार्यों का ठीक अवलोकन करने में अक्षम रहता है। परिणाम स्वरूप समाज में व्याप्त अस्थिरतापूर्ण स्थिति से राष्ट्र का उन्नति एवं एकजुटता का मार्ग प्रशस्त नहीं हो पाता।

हर समाज में समाज विरोधी तत्व सदैव उपस्थित रहते हैं, वे सदैव इन्हीं कारणों से समाज का शोषण करते हैं। जिस प्रकार कौरवों के पक्ष में वे राजा भी थे, जिनकी पांडवों के साथ कोई व्यक्तिगत शत्रुता नहीं थी, पर वे फिर भी अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कौरवों के पक्ष में लड़े इसलिए भगवान श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को कहा - ‘क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वच्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदययौर्बल्यं त्यक्तवोतिष्ठ परन्तप।।’

हे अर्जुन! तू नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परन्तप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।

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Content Writer

Niyati Bhandari

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