महाभारत: 1 रात के लिए फिर से जीवित हो उठे थे युद्ध में मरे वीर

punjabkesari.in Wednesday, Apr 29, 2020 - 04:57 PM (IST)

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पांडवों द्वारा जब हस्तिनापुर में धर्मपूर्वक राज करते हुए 18 वर्ष व्यतीत हो गए तो एक दिन वयोवृद्ध धृतराष्ट्र ने गांधारी सहित वन में जाने का आग्रह किया। यह सुन कर भाव विह्वल होकर युधिष्ठिर उन्हें ऐसा करने के लिए रोकने लगे। तभी भगवान वेद व्यास जी ने सहसा वहां प्रकट होकर पांडु पुत्र से कहा, ‘‘महाबहु! कुरुकुल को आनंदित करने वाले धृतराष्ट्र ने जो कुछ कहा उसे तुम बिना विचारे पूर्ण करो। अब ये राजा बूढ़े हो गए हैं। विशेषत: इनके सभी पुत्र मारे जा चुके हैं। मेरा विश्वास है कि अब ये इस कष्ट को अधिक काल तक और नहीं सह पाएंगे। महाभागा गांधारी, परम विदुषी और करुणा का अनुभव करने वाली हैं इसीलिए यह महान पुत्र शोक को धैर्यपूर्वक सहती चली आ रही हैं। मैं तुमसे यही कहता हूं कि तुम मेरी बात मानो। राजा धृतराष्ट्र को तुम्हारी ओर से वन में जाने की आज्ञा मिलनी ही चाहिए नहीं तो यहां रहने से इनकी व्यर्थ में ही मृत्यु हो जाएगी। तुम उन्हें अवसर दो जिससे ये नरेश प्राचीन राजर्षियों के पथ का अनुसरण कर सकें। पूर्ववर्ती सभी राज ऋषियों ने अपने जीवन के अंतिम भाग में वन का ही आश्रय लिया है। ऐसा उपाय करो जिससे ये दोनों जंगलों में जाकर तपस्या करते हुए उत्तम लोक प्राप्त कर सकें।’’ 

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व्यास जी के वचनों का अर्थ समझकर युधिष्ठिर ने अपने ताया श्री के वन गमन के लिए अपनी सहमति प्रकट कर दी। इसके उपरांत गांधारी, महारानी कुंती, महात्मा विदुर और संजय भी उनके मार्ग का अनुसरण करते हुए घने वनों में कठोर तप करने लगे। एक दिन सभी पांडव बंधु अपनी पत्नियों सहित धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती के दर्शनों हेतु उनके पास गए। जहां अनेक शिष्यों सहित व्यास जी का भी वहां आगमन हुआ। 

अंबिकानंदन (धृतराष्ट्र) के पास जाकर वे (व्यास जी) उनसे प्रश्र करने लगे, ‘‘हे नरश्रेष्ठ! तुम्हारी तपस्या बढ़ रही है? वनवास में तुम्हारा मन तो लगता है न? अब कभी तुम्हारे मन में अपने पुत्रों के मारे जाने का शोक तो नहीं होता? तुम्हारी समस्त ज्ञानेंद्रियां निर्मल हो गई हैं व क्या तुम अपनी बुद्धि को दृढ़ करके वनवास के कठोर नियमों का पालन करते हो? बहू गांधारी कभी शोक के वशीभूत तो नहीं होती? क्या वह अहंकार शून्य होकर तुम्हारी निरंतर सेवा सुुश्रुषा तो करती हैं? पांडु-पुत्रों के प्रति तुम्हारे मन की मैल तो दूर हो गई है न? हे भरत श्रेष्ठ! मैंने तुम्हारा सदैव कल्याण ही चाहा है और इस समय जो तुम्हारी इच्छा है मैं अवश्य उसे पूर्ण करूंगा।’’

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विचित्र वीर्य नंदन धृतराष्ट्र, व्यास जी के प्रश्रों का उत्तर देते हुए कहने लगे ‘‘हे, भगवन! आज मैं धन्य हूं जो आप जैसे साधु-महात्मा का समागम प्राप्त हुआ। मैं इन घोर वनों में ब्रह्मा जी के तुल्य ऋषियों के संग, राजसी सुखों को भूलकर, सदैव इंद्रियों को वश में रखता हुआ, भगवान के नामरूपी रस का आस्वादन करता रहता हूं, परन्तु जब भी मुझे दुर्योधन सहित अन्य पुत्रों का स्मरण आता है तो मोहवश मन में बड़ा क्षोभ होता है।’’ 

उसी समय अपने पति के पास आंखों पर पट्टी बांधे गांधारी व्यास जी के समक्ष, पुत्र शोक से संतप्त हो कहने लगीं, ‘‘हे मुनिवर! इन वयोवृद्ध महाराजा को अपने मरे हुए पुत्रों को याद करते हुए 18 वर्ष व्यतीत हो गए परंतु अब भी ये रात भर जागते और लम्बी सांसें खींचते हुए निरंतर विलाप करते रहते हैं। इस समय यहां आई हुई मेरी पुत्रवधुएं और अनेकों कौरव कुल की स्त्रियां जैसे द्रौपदी, सुभद्रा आदि तथा अनेक वीरांगनाएं जिन्होंने महासंग्राम में अपने पति, पुत्र या संबंधी खो दिए हैं सभी शोक मग्न हो रुदन करती रहती हैं। अत: आप कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे हम सभी के कष्टों का निवारण हो सके।’’ 

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सुबल कन्या गांधारी को इस प्रकार उत्तेजित देख, सत्यवती नंदन प्रत्युत्तर में कहने लगे, ‘‘हे भद्रे! आज रात तुम एक विचित्र आश्चर्य के रूप में अपने पुत्रों, भाइयों और उनके मित्रों को देखोगी। आज रात्रि को मैं अपनी शक्ति के प्रभाव से तुम लोगों को मृत व्यक्तियों के दर्शन करवाऊंगा।’’ 

उनके ऐसा कहते ही सरस्वती नदी के पावन तट पर अपने सगे-संबंधियों को देखने की इच्छा से जनसमुदाय सहित कौरव कुल के लोग अपने सगे-संबंधियों की देखने की अभिलाषा से वहां एकत्रित होने लगे।

मध्य रात्रि में अचानक ही वेद-व्यास जी ने मंत्रोच्चारण करते हुए, ब्रह्मा-पुत्री सरस्वती के पावन जल में प्रवेश किया और मृत पांडव तथा कौरव पक्ष के लोगों का आह्वान करने लगे। तभी अचानक पानी में भयंकर शब्द होने के साथ ही भीष्म, द्रोण, अभिमन्यु, भूरिश्रवा, दुर्योधन, दुशासन, कर्ण तथा शकुनि सहित सभी महान योद्धा जल से बाहर निकलने लगे। इन सभी ने इस समय दिव्य वस्त्र धारण किए हुए थे तथा वे आपसी वैर, अहंकार, क्रोध तथा ईर्ष्या आदि छोड़ चुके थे। इस सम्पूर्ण दृश्य का साक्षात्कार करने हेतु, व्यास जी ने गांधारी तथा धृतराष्ट्र को दिव्य दृष्टि प्रदान की। इस समय वहां आई हुई अन्य स्त्रियों तथा पुरुषों ने भी जब अपने पिताओं, भाइयों तथा पुत्रों को देखा तो उनका सारा दुख दूर हो गया।

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इस समय पुराणों के रचयिता व्यास जी की वहां उपस्थित जन समुदाय को संबोधित करते हुई गंभीर वाणी गूंजने लगी-हे महानुभावो! महाभारत का युद्ध अवश्यंभावी था। इस महासंग्राम में जो क्षत्रिय वीरगति को प्राप्त हुए हैं, उन श्रेष्ठ वीरों के लिए किसी को भी शोक नहीं करना चाहिए। यह काल का विधान था और इसी रूप में होने वाला था। अपने पूर्व जन्मों के कारण-गंधर्व, राक्षस, यक्ष आदि ने यहां अवतीर्ण होकर, कुरुक्षेत्र के समारांगण में आकर, अंत में परमधाम प्राप्त किया। जैसा कि दुर्योधन को ‘कलियुग’ वीर अभिमन्यु को साक्षात ‘चंद्रमा’,  द्रोणाचार्य को ‘बृहस्पति’ तथा गंगा पुत्र भीष्म को ‘वसु’ का अंशावतार और भगवान श्रीकृष्ण ‘नारायण’ अर्जुन  को ‘नर’ ही समझना चाहिए। इन सभी ने मनुष्य के रूप में जन्म लेकर, इस मृत्युलोक में अपना कार्य पूर्ण किया है।’’ 

व्यास जी के ऐसा कहते ही, सूर्योदय होने से पूर्व, वहां प्रकट हुए समस्त योद्धागण अपनी दैवी शक्ति के प्रभाव से पुन: अदृश्य हो गए। 

जल में खड़े व्यास जी अपनी गंभीर वाणी में पुन: कहने लगे-‘‘हे देवियो! तुम लोगों में से जो-जो सती-साध्वी स्त्रियां अपने-अपने पति लोक में जाना चाहती हैं, वे आलस्य रहित होकर, सरस्वती के जल में गोता लगाएं जिससे वे इस नश्वर देह का त्याग कर, उनके साथ पुण्य लोकों में निवास कर सकें।’’ 

महामुनि की बात सुन, अनेक पतिव्रता नारियों ने उसी क्षण जल में समाकर तथा पांच-तत्वों से निर्मित इस पार्थिव देह को त्याग कर स्वयं अपने पति लोक में जाने का मार्ग चुना। इस प्रकार अपने मरे हुए पुत्रों को देखकर धृतराष्ट्र और गांधारी का दुख दूर हो गया। 

कुछ ही समय पश्चात लोक पूजित व्यास जी पांडवों के पास आकर कहने लगे, ‘‘तुम लोगों को यहां आए एक महीने से ऊपर का समय व्यतीत हो गया है। राज्य के बहुत से शत्रु होते हैं अत: अब तुम हस्तिनापुर जाकर, अपने राज्य का कार्यभार संभाल कर प्रजा को सुखी करो।’’ 

तेजोमय ऋषि का यह आदेश पाकर, सभी कुंती पुत्र अपनी स्त्रियों तथा संबंधियों सहित वहां से हस्तिनापुर आ गए। उनके वहां आने के दो वर्ष पश्चात धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती वनाग्रि में जल कर भस्म हो गए जिनकी अस्थियां पहचान कर, उन्होंने उनको गंगा जी में प्रवाहित कर, प्रेतादिक कार्य सम्पन्न करवाए।  


 


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Niyati Bhandari

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