क्या सच में बलि से प्रसन्न होते हैं भगवान ?
punjabkesari.in Friday, Jan 03, 2020 - 08:39 AM (IST)
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सतयुग की बात है, एक बार देश में अकाल पड़ा। वर्षा के अभाव से अन्न नहीं हुआ। पशुओं के लिए चारा नहीं रहा। दूसरे वर्ष भी वर्षा नहीं हुई, विपत्ति बढ़ती गई, नदी तालाब सूख गए। सूर्य की प्रचंड किरणों से धरती रसहीन हो गई। घास भस्म हो गई, वृक्ष निष्प्राण हो चले, मनुष्यों और पशुओं में हाहाकार मच गया। एक वर्ष नहीं पूरे बारह वर्षों तक अनावृष्टि रही। लोग त्राहि-त्राहि करने लगे, कहीं अन्न नहीं, जल नहीं, घास नहीं, वर्षा और शीत ऋतुएं नहीं। सर्वत्र सर्वदा एक ही ग्रीष्म ऋतु।
धरती से उड़ती धूल और अग्नि से सनी तेज लू। आकाश में पंख पसारे उड़ते पक्षियों के दर्शन दुर्लभ हो गए। पशु-पक्षी ही नहीं कितने मनुष्य काल के गाल में गए कोई संख्या नहीं। मातृस्तनों में दूध न पाकर कितने सुकुमार शिशु मृत्यु के गोद में सो गए, कौन जाने नर कंकाल को देख कर करूणा भी करूणा से भीग जाती किन्तु एक मुट्ठी अन्न किसी को कोई कहां से देता। नरेश का अक्षय कोश और धन पतियों के धन-अन्न की व्यवस्था कैसे करते? परिस्थिति उत्तरोत्तर बिगड़ती ही चली गई, प्राणों के लाले पड़ गए।
किसी ने बतलाया कि नर मेघ किया जाए तो वर्षा हो सकती है। लोगों को बात तो जंची पर प्राण सबको प्यारे हैं। बलात किसी की बलि नहीं दी जा सकती। विशाल जन समाज एकत्र हुआ था पर सभी चुपचाप थे। अचानक नीरवता भंग हुई। सबने दृष्टि उठाई, देखा बारह वर्ष का अत्यंत सुंदर बालक खड़ा है। उसके अंग-अंग से कोमलता जैसे टपक रही थी।
उसने कहा उपस्थित महानुभावो! असंख्य प्राणियों की रक्षा एवं देश को संकट की स्थिति से छुटकारा दिलाने के लिए मेरे प्राण सहर्ष प्रस्तुत हैं। यह प्राण देश के हैं और देश के लिए अर्पित हों इससे अधिक सदुपयोग इनका और क्या होगा? इसी बहाने विश्वात्मा प्रभु की सेवा इस नश्वर काया से हो जाएगी।
‘‘बेटा शतमन्यु! तू धन्य है।’’ चिल्लाते हुए एक व्यक्ति ने दौड़कर उसे अपने हृदय से लगा लिया।
वह उसके पिता थे, ‘‘तूने अपने पूर्वजों को अमर कर दिया।’’
शतमन्यु की जननी भी वही थीं समीप आ गईं। उनकी आंखें झर रही थीं। उन्होंने शतमन्यु को अपनी छाती से इस प्रकार चिपका लिया जैसे कभी नहीं छोड़ सकेंगी। सही समय पर समारोह के साथ यज्ञ प्रारंभ हुआ, शतमन्यु को अनेक तीर्थों के जल से स्नान कराकर नवीन वस्त्राभूषण पहनाए, सुगंधित चंदन लगाया गया और पुष्प मालाओं से अलंकृत किया गया।
बालक यज्ञ मंडप में आया और यज्ञ स्तम्भ के समीप खड़ा होकर वह देवराज इंद्र का स्मरण करने लगा। यज्ञ मंडप शांत एवं नीरव था। बालक सिर झुकाए बलि के लिए तैयार था, एकत्रित जन समुदाय मौन होकर उधर एक टक देख रहा था। उसी क्षण शून्य में विचित्र बाजे बज उठे। शतमन्यु पर पारिजात पुष्पों की वृष्टि होने लगी। सहसा मेघध्वनि के साथ वज्रधर सुरेंद्र प्रकट हो गए। सब लोग आंखें फाड़े आश्चर्य के साथ देख-सुन रहे थे। शतमन्यु के मस्तक पर अत्यंत प्यार से अपना हाथ फेरते हुए सुरपति बोले, ‘‘वत्स! तेरी भक्ति और देश की कल्याण भावना से मैं संतुष्ट हूं। जिस देश के बालक देश की रक्षा के लिए प्राण अर्पण करने को प्रतिक्षण प्रस्तुत रहते हैं उस देश का कभी पतन नहीं हो सकता। तेरे त्याग से संतुष्ट होकर मैं बलि के बिना ही यज्ञफल प्रदान करता हूं।’’
देवेंद्र अंतर्ध्यान हो गए। दूसरे दिन इतनी वृष्टि हुई कि धरती पर जल ही जल दिखने लगा। शतमन्यु के त्याग, तप, कल्याण भावना ने सर्वत्र पवित्र आनंद की सरिता बहा दी।
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