गीता जयंती: वैज्ञानिकों के पास भी नहीं हैं इन प्रश्रों का उत्तर

punjabkesari.in Friday, Dec 06, 2019 - 07:44 AM (IST)

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दर्शन और विज्ञान का आश्चर्यजनक विकास होने के बाद भी विश्व तनावग्रस्त है। परमाणु युद्ध की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता। मनुष्य की अनंत अभिलाषाएं हैं। इच्छाएं बांधती हैं। एक पूरी होती है, दूसरी प्रकट हो जाती है। इच्छापूर्ति के लिए निरन्तर कर्म जारी रखें। मूलभूत प्रश्र है कि जीवन मार्ग क्या है? वास्तविक जीवन पथ है क्या? ऐसे प्रश्रों के सारभूत उत्तर वैज्ञानिकों के पास नहीं हैं। पंथिक और मजहबी आचार्यों के पास भी नहीं। विश्व के सामने जीवन मार्ग की चुनौती है। इस चुनौती का उत्तर भारतीय दर्शन और तत्व अनुभूति में ही है। अनासक्त कर्मयोग ही मार्ग है। दूसरा कोई पथ नहीं। संसार को भयमुक्त बनाने का कोई विकल्प नहीं।

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कर्मफल ‘कर्ता के कर्म’ का ही परिणाम नहीं होता। प्रकृति की तमाम शक्तियां कर्ता के प्रतिकूल होती हैं और अनेक शक्तियां अनुकूल भी। कर्मफल न मिलने से कर्ता स्वाभाविक ही दुखी होता है। कर्मफल प्राप्ति की कोई नियमावली नहीं होती। सो संसार दुखमय प्रतीत होता है। इसलिए प्राचीन भारतीय चिंतन में कर्मत्याग के विचार का जन्म हुआ। इसे संन्यास कहा गया लेकिन भारतीय चिंतन की मुख्यधारा में कर्म त्याग नहीं कर्मफल की इच्छा के त्याग को विशेष महत्व मिला।

ऐसा उचित भी है। हम बिना कर्म नहीं रह सकते। सोचना या बैठे-लेटे रहना भी कर्म है। भोजन बिना जीवन नहीं चलता। भोजन करना भी एक कर्म है और भोजन जुटाना तो और भी बड़ा श्रम साध्य कर्म। इसलिए कर्मफल की इच्छा से मुक्त सतत कर्म का विचार भारतीय चिंतन की मुख्यधारा बना। उपनिषदों से लेकर गीता दर्शन तक यही विचारधारा दिखाई पड़ती है।

गीता में संन्यास, ज्ञान और कर्म के साथ भक्ति की भी चर्चा है लेकिन सबका अंत अभिलाषा रहित शरीर की उपलब्धि है। भक्ति परमतत्व के समर्पण में पूर्ण होती है। तब भक्त के सारे कर्म परमतत्व के प्रति किए जाते हैं। साधना के शिखर पर वह कर्म करते हुए भी कुछ नहीं करता। वह जीवनयापन, सदाचार, योग, ध्यान आदि करते हुए भी मानता है कि सारे कर्म उस परमतत्व द्वारा ही करवाए जा रहे हैं।

गीता के रचनाकाल में संन्यास और कर्मयोग के विचार में द्वंद्व था। संन्यास का साधारण अर्थ घर छोड़ना था और कर्मयोग का अर्थ सतत् कर्म। गीता के 5वें अध्याय का विषय ‘कर्मसंन्यास योग’ है।

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अर्जुन ने पूछा, ‘‘आप संन्यास अर्थात कर्मत्याग और निष्काम कर्म दोनों की ही प्रशंसा करते हैं। सुनिश्चित रूप में बताइए इनके श्रेष्ठ क्या हैं?’’ (गीता 5.1)

यहां वही सारभूत प्रश्र है। श्रीकृष्ण ने कहा ‘संन्यास और नि:स्वार्थ कर्म दोनों ही नि:श्रेयस (मुक्ति) दिलाते हैं तो भी इन दोनों में कर्म संन्यास की अपेक्षा नि:स्वार्थ कर्म श्रेष्ठ है।’ 

वही संन्यासी है जो न किसी से द्वेष करता है और न कोई आकांक्षा करता है, सभी द्वंद्वों से मुक्त है, इसलिए वह किसी बंधन में नहीं बंधता। 

‘संन्यास के बिना योग कर्म प्राप्त करना कठिन है।’ 

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संन्यास का अर्थ संसार त्याग नहीं है। वास्तविक संन्यास निजी आकांक्षाओं के त्याग और सतत कर्म में ही घटित होता है। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, ‘योग युक्त शुद्ध आत्मा जितेन्द्रिय व सर्वोत्तम अनुभव वाला व्यक्ति कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।’  

संन्यास सतत कर्म में उगता है और कर्मफल रहित चेतना में खिलता है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि तत्वज्ञानी देखता हुआ, सुनता या स्पर्श करता हुआ, त्यागता या ग्रहण करता हुआ, आंख खोलता या मूंदता हुआ भी जानता है कि यह काम इन्द्रियां ही कर रही हैं, वह कुछ नहीं कर रहा है।

प्रसिद्ध सांख्य दर्शन के निष्कर्ष हैं कि इस प्रकृति में गुण ही गुण के साथ खेल करते रहते हैं। संसार में रहकर भी अविचलित और तटस्थ रहना संन्यास है। कर्मफल की इच्छा से शून्य सतत् कर्मरत रहना एक आदर्श मार्ग है। संन्यास अनूठा योग है। कर्मफल इच्छा से रहित होकर संसार को सुंदर बनाने के लिए काम करना भी योग है। दुनिया का कोई भी देश भारत जैसे संन्यासी नहीं पैदा कर सका। देह के सुख को छोटा और एकात्मकता में जीने का रसायन भारत ने ही खोजा।

संन्यासी भी बाहर से साधारण आदमी ही होता है मगर भीतर से अपना धन-सम्पदा का स्वामी होता है। भारत में राज्य छोटी संपदा है। बुद्ध राज्य छोड़ते हैं तो इसका मतलब साफ है कि राज्य आखिरी समृद्धि नहीं है। जनक निर्लिप्त होकर विदेह हो जाते हैं। संन्यास त्यागने का नहीं, एक साथ सब कुछ पा जाने का ही नाम है। हम साधारण जन संन्यासी की आंतरिक संपदा का मतलब नहीं समझ पाते। वास्तविक संन्यास में संसार को सुंदर बनाने का तप कर्म है। अभिलाषा रहित सर्वोच्च अभिलाषा-परपज लेस परपज।


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Niyati Bhandari

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