Geeta Jayanti 2020: गीता माता से प्रेरणा पाएं, गृहस्थ जीवन आदर्श बनाएं

punjabkesari.in Friday, Dec 25, 2020 - 01:30 AM (IST)

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Teachings of geeta: क्या है गृहस्थ जीवन की शोभा —गीता मनीषी स्वामी ज्ञानानंद जी

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:। परस्परं भावयंत: श्रेय: परमवाप्स्यथ।। —गीता 3/11

अर्थ : यज्ञ के द्वारा तुम देवताओं को प्रसन्न करो और वे देवता तुम्हें प्रसन्न रखें। इस प्रकार एक-दूसरे की परस्पर उन्नति, प्रसन्नता अथवा सद्भावना के भाव से तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।

Bhagvat Geeta: आदर्श गृहस्थ जीवन के लिए कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण प्रेरक संकेत गीता के इस श्लोक से लिए जा सकते हैं।

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यज्ञ भावना भगवत गीता की आदर्श प्रेरणा है। इसे अवश्य स्वीकार करें। हवन यज्ञ के रूप में भी इस भाव को लिया जा सकता है। गृहस्थाश्रम में यदि हवन यज्ञ की आस्था बने, तो घर-परिवार के लिए अच्छा लक्ष्ण है। किसी भी तरह के प्रदूषण, अशुभता, अशुद्धता, दुर्भाव आदि से मुक्ति का बहुत वैचारिक, व्यावहारिक साधन है- यज्ञ।

गीता में यज्ञ का अर्थ नि:स्वार्थ परहित की भावना से भी है। जैसे देवता- सूर्य, चंद्र, वायु, वरुण (जल) आदि नि:स्वार्थ भाव से परहित कर रहे हैं। देवता अर्थात जो देता है। इसी प्रकार हम भी केवल अपने स्वार्थों को पूरा करने या अपने सुख के लिए ही न जीएं। सुख देने की भावना बनाएं।

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प्रकृति का नियम है, दो और लो। बांटने में जो शांति है, वह बटोरने में नहीं। नदियां बांटती हैं, उनका जल मीठा होता है, समुद्र केवल बटोरता है- खारा रह जाता है। प्यार दो-प्यार लो। केवल चाहने से सम्मान या सद्भाव नहीं मिलता, देने से मिलता है। सूर्य प्रकाश दे रहा है, हम भी सद्भावना का प्रकाश फैलाएं, चंद्रमा शीतलता दे रहा है, आप भी शीतल रहें, शीतलता बांटें, चिलम की तरह न रहें, जो तपे और तपाए। सुराही को आदर्श बनाएं, जो शीतल रहती है और ठंडे जल के रूप में शीतलता बांटती है। वायु गतिमान है- कर्तव्य पथ पर सदैव आगे बढ़ें। जल का तत्व रस है, जीवन में नीरसता नहीं सरसता हो। पृथ्वी से सहनशीलता का गुण सीखें, तथा आकाश से- खुलापन, खुले, खिले, खाली जीवन की आनंदमय प्रेरणा।

पारस्परिक सद्भाव का एक रूप यह भी है- बड़े छोटों के प्रति स्नेह रखें, छोटे माता-पिता, बड़े- बुजुर्गों के प्रति सम्मान का भाव। बड़े-बुजुर्गों को किसी भी तरह घर का भार समझकर तिरस्कार नहीं करें, गृहस्थ जीवन का सौभाग्य है किसी बड़े-बुजुर्ग की उपस्थिति।

घर में आए अतिथि के प्रति सद्भावना-सम्मान का व्यवहार भी इसी का प्रेरक, आवश्यक भाव है। मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव:, अतिथि देवो भव: की परम्परा का सजीव रहना गृहस्थ जीवन की शोभा एवं धन्यता है।

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Niyati Bhandari

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