पुष्टिमार्ग के प्रणेता श्री वल्लभाचार्य जी की जयंती 22 और 23 अप्रैल को मनाई जाएगी

punjabkesari.in Wednesday, Apr 19, 2017 - 01:01 PM (IST)

वेदशास्त्र में पारंगत एवं भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्ण भक्ति शाखा के आधार स्तम्भ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता श्री वल्लभाचार्य जी का प्रादुर्भाव विक्रमी सम्वत1535, वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की वरुथिनी एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड गांव निवासी श्री लक्ष्मण भट्ट नामक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनकी माता का नाम इल्लमागारु था। वेद शास्त्रों में पारंगत श्री वल्लभाचार्य जी को वैश्वानरावतार (अगिन का अवतार) माना जाता है तथा इस बार उनकी जयंती 22 और 23 अप्रैल को मनाई जा रही है। भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त श्री वल्लभाचार्य जी के नाम पर भारत सरकार ने 1977 में एक रुपए का डाक टिकट जारी करके उनका गौरव बढ़ाया है। ब्रह्म, जगत और जीव तत्व के समर्थक श्री वल्लभाचार्य जी महाराज भगवान श्री कृष्ण को अनन्त दिव्य गुणों से युक्त परब्रह्म के रूप में स्वीकार करते हुए उनकी दिव्य लीलाओं को ही आनंद का स्रोत मानते थे। वह कहते थे कि मानव शरीर उन्हें भगवान की सेवा भक्ति के लिए मिला है, इसलिए भगवान को प्रसन्न करने के लिए ही मनुष्य को सभी कर्म करने चाहिएं।


वह भगवान के विशेष अनुग्रह से उत्पन्न होने वाली भक्ति को ही पुष्टि भक्ति मानते रहे। उनके अनुसार जीव 3 प्रकार के होते हैं- पहले पुष्टि जीव वह हैं जो भगवान के अनुग्रह पर निर्भर रहते हैं, दूसरे मर्यादा जीव हैं जो वेदों के बताए मार्ग के अनुसार जीवन में आचरण करते हैं तथा तीसरे प्रकार के जीव हर समय सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए ही प्रत्येक कर्म करते हैं और हर समय धन कमाने में ही व्यस्त रहते हैं। महाप्रभु वल्लभाचार्य जी महाराज ने पुष्टि भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ माना है क्योंकि पुष्टि भक्ति में भक्त को किसी विशेष साधन की आवश्यकता नहीं होती तथा उसे तो हर समय भगवान का ही आश्रय होता है। ऐसे में भक्त को प्रभु के स्वरूप की प्राप्ति के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार के फल की कोई इच्छा ही नहीं रहती। ऐसा भक्त नि:स्वार्थ भाव से भगवान की सेवा भक्ति करते हुए हरिनाम संकीर्तन में ही व्यस्त रहता है। वह मानते थे कि जीव ब्रह्म का ही अंश है और सारा जगत ब्रह्म के समान है, इनमें अंतर केवल यह है कि जीव में ब्रह्म का आनंद अंश रहता है और जड़ जगत में आनंद अंश के साथ ही चेतन अंश भी रहता है। 


प्रभु प्रेमी वल्लभाचार्य बड़े सरल हृदयी, विनम्र और निर्मल स्वभाव के थे। इन्होंने शुद्ध अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया। उनके 84 शिष्यों के अतिरिक्त अनगिनत भक्त, सेवक और अनुयायी थे। उनके पुत्र विट्ठलनाथ (गोसाईं जी) ने बाद में पिता के 4 प्रिय भक्तों एवं शिष्यों सूरदास, कृष्णदास, परमानंददास और कुम्भदास के साथ अपने चार शिष्यों नंददास, छीत स्वामी, गोबिंद स्वामी और चर्तुभुज दास को जोड़ कर प्रभु भक्ति के कार्य किए और वह श्रेष्ठ कवि और कीर्तनकार  ‘अष्टछाप कवि’ के  नाम से प्रसिद्ध हुए।


उन्होंने विक्रमी सम्वत् 1587 के आषाढ़ मास की शुक्ल तृतीया को बड़ी अलौकिक रीति से इहलीला करके देह का त्याग किया। अपने जीवन में आचार्य जी ने अनेक ग्रंथों, नामावलियों और स्तोत्रों की रचना की जिनमें ‘षोडश ग्रंथ’ बड़े प्रसिद्ध हुए। आचार्य जी द्वारा लिखित अनेक ग्रंथों एवं पुस्तकों की उनके शिष्यों और विद्वानों ने कई भाषाओं में टीका एवं अनुवाद किया है जिनमें प्रभु भक्ति और ज्ञान का अथाह भंडार है। माना जाता है कि उपास्य श्री नाथ जी ने कलियुग के जीवों का उद्धार करने के लिए ही श्री वल्लभाचार्य को दुर्लभ ‘आत्म निवेदन मंत्र’ प्रदान किया था और गोकुल के ‘ठकुरानी घाट’ पर यमुना महारानी ने वल्लभाचार्य जी को दर्शन देकर कृतार्थ किया था।


वीना जोशी
veenajoshi23@gmail.com 


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