क्या सरकार ‘पिंजरे के तोते’ को आजाद करेगी

punjabkesari.in Wednesday, Aug 25, 2021 - 03:20 AM (IST)

केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सी.बी.आई.) के बारे में ऐसा क्या है कि वह हमेशा विवादों में बनी रहती है, जिसके चलते इसे भ्रष्टाचार, सांठ-गांठ और सुविधा का केन्द्रीय ब्यूरो या प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त जांच का षड्यंत्र ब्यूरो के उपनाम दिए गए हैं। इस क्रम में समाचार पत्रों में मद्रास उच्च न्यायालय का एक उल्लेखनीय निर्णय कहीं खो-सा गया है, जिसमें सी.बी.आई. को स्वायत्तता और स्वतंत्रता देने के लिए कहा गया है और इसे सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण से स्वतंत्र करने की बात कही गई है ताकि यह निर्वाचन आयोग या महालेखा परीक्षक जैसा एक स्वतंत्र सांविधिक निकाय बन सके जो केवल संसद के प्रति उत्तरदायी हो। 

मई 2013 में उच्चतम न्यायालय ने यू.पी.ए. सरकार से संबंधित कोयला घोटाले मामले की सुनवाई के दौरान सी.बी.आई. को पिंजरे में बंद तोता कहा था, जो अपने राजनीतिक आकाओं की आवाज बन गया है। स्पष्ट है कि इस आदेश से मोदी सरकार पर एक जिम्मेदारी आ गई है जो बार-बार शासन में पारदॢशता लाने की बात कहती है किंतु अब तक उसने सी.बी.आई. को स्वतंत्र बनाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया, ताकि उसे अपने आकाओं की आवाज बनने और शक्तियों का दुरुपयोग करने से रोका जा सके। 

हर सरकार ने इस एजैंसी का इस्तेमाल अपने हितों को साधने के लिए किया है। यह एजैंसी एक ऐसा दंतविहीन बाघ बन गया है जिसका उपयोग मित्रों को सहायता पहुंचाने और विरोधियों के साथ हिसाब चुकता करने, क्लीन चिट देने, राजनीतिक लीपापोती करने, कानून तोडऩे वालों को कानून प्रवर्तक बनाने, अपराध और भ्रष्टाचार को वैध ठहराने के लिए किया जाता रहा है। इसलिए भ्रष्टाचार को समाप्त करने के मामले में इसकी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा पर गंभीर संदेह पैदा होता रहा है। इसके गुण-अवगुण व जांच करने के कौशल महत्वपूर्ण नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि क्या केन्द्र सरकार विशेषकर हमारा राजनीतिक आका प्रधानमंत्री कार्यालय सोचता है कि जो निष्ठावान और विश्वासपात्र है उसे ही इस एजैंसी में नियुक्त किया जाए। 

हैरानी की बात यह है कि देश के विभिन्न न्यायालयों में सांसदों और विधायकों के विरुद्ध 1300 से अधिक मामले लंबित पडे़ हुए हैं, जिनमें सी.बी.आई. द्वारा जांच के मामले भी शामिल हैं। इससे सी.बी.आई. की प्रतिष्ठा और खराब हुई है क्योंकि वह आरोपों के समर्थन में अपेक्षित साक्ष्य जुटाने में विफल रही है। दो मामले उल्लेखनीय हैं-सपा के मुलायम सिंह और बसपा की मायावती के मामले। जब कभी सरकार, चाहे वह कांग्रेस की यू.पी.ए. हो या भाजपा की राजग, उन पर दबाव डालना चाहती है तो उनके विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति के मामलों को आगे बढ़ाने के लिए सी.बी.आई. का इस्तेमाल किया जाता है और जब वे सरकार की बातें मान लेते हैं तो इन मामलों को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। इसी तरह वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व वित्त मंत्री चिदम्बरम का मामला है, जिन्होंने भाजपा पर राजनीतिक विद्वेष का आरोप लगाया और कहा है कि उनके विरुद्ध मामले राजनीतिक कारणों से प्रेरित हैं ताकि वह चुप रहें। किंतु इस सब शोर-शराबे के बीच यह बात कहीं छुप-सी गई है कि वह भ्रष्टाचार के आरोपी हैं। 

कुछ समय पूर्व सी.बी.आई. के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच विवाद का कारण पृष्ठभूमि में राजनीतिक माई-बाप रहे हैं, जिसके चलते इस मामले में उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा और पूर्व निदेशक को त्यागपत्र देना पड़ा। दूसरा मामला फरवरी में सी.बी.आई. और कोलकाता पुलिस के बीच विवाद का है। यह एक खुले रहस्य को रेखांकित करता है कि आज कानून के रखवाले और उसे लागू करने वाले हर बात के साथ समझौता कर लेते हैं और व्यवस्था में इतनी विकृति आ गई है कि कोई भी इस पर विश्वास नहीं करता। इसके अलावा सी.बी.आई. के कार्यकरण के संबंध में भी अनेक समस्याएं हैं। दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान अधिनियम 1946 के अनुसार सी.बी.आई. राज्यों में केवल तभी अपराधों की जांच कर सकती है जब राज्य सरकार इसकी अनुमति दे। हालांकि दांडिक कानून और प्रक्रिया समवर्ती सूची में है किंतु पुलिस व्यवस्था और पुलिस राज्य के सूची के विषय हैं। 

महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड और केरल ने कुछ समय पूर्व अपने राज्यों में सी.बी.आई. जांच के लिए सामान्य अनुमति को वापस ले लिया, जिसके चलते उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को हस्तक्षेप करना पड़ा और उन्होंने राज्यों को निर्देश दिया है कि वे जांच सी.बी.आई. को अंतरित करे। इस तरह राज्यों की अनुमति निष्प्रभावी हो गई, जिसके चलते केन्द्र और राज्यों में टकराव भी बढ़ा। प्रश्न उठता है कि क्या सी.बी.आई. को उससे कहीं अधिक दोष दिया जाता है जितना कि वह दोषी है या चोर-चोर मौसेरे भाई हैं। सच्चाई दोनों के बीच की है। सी.बी.आई. और सरकार अपने-अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए मिलकर कार्य करते हैं जिसमें सी.बी.आई. सरकार के साथ सुरक्षित चलते हुए अवसरवादी नीति अपनाती है और उसके अधिकारी सेवानिवृत्ति के बाद के लाभों के कारण अपने माई-बाप की इच्छानुसार कार्य करते हैं। 

साथ ही सी.बी.आई. में कम योग्य और अक्षम कर्मचारी भी हैं जिसमें 1 प्रतिशत कार्यकारी रैंक के, 28$37 प्रतिशत कानून अधिकारी और 56$17 प्रतिशत तकनीकी पद खाली पड़े हुए हैं। व्यवस्थागत मुद्दे इस बात का संकेत देते हैं कि संस्थागत प्रचालन, संगठनात्मक डिजाइन और कार्य संस्कृति में मेल नहीं है। दोष सिद्धि बहुत कम होती है। व्यापम घोटाला एक इतिहास बन कर रह गया है। 2-जी घोटाले में आरोपी दोषमुक्त हो गए हैं। चिदम्बरम का एयरसैल-मैक्सिस मामला बड़ी धीमी गति से आगे बढ़ रहा है। इस समस्या का समाधान क्या है? सबसे पहले सी.बी.आई. के निदेशक को सरकार के सचिव की तरह शक्तियां दी जानी चाहिएं जो कार्मिक विभाग की बजाय सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करे। सी.बी.आई. के लिए अलग बजट आबंटन किया जाना चाहिए साथ ही उसके कार्यों का चार्टर, उन मामलों की सूची जिनकी वह जांच कर सकती है। 

एजैंसी को अमरीका की एफ.बी.आई. और ब्रिटेन की स्काटलैंड यार्ड के समान आधुनिक सुविधाएं दी जानी चाहिएं। ऐसे मामलों का ब्यौरा सी.बी.आई. निदेशक द्वारा संबंधित उच्च न्यायालय के महापंजीकार को बताया जाना चाहिए जिनमें सी.बी.आई. द्वारा एक वर्ष से अधिक समय पूर्व आरोप पत्र दायर कर दिए गए हैं किंतु विचारण न्यायालय द्वारा उसमें आरोप निर्धारित नहीं किए गए। इसके अलावा सी.बी.आई. को अपने ढांचे को पुनर्गठित करना होगा और इसमें 734 अतिरिक्त पद सृजित करने होंगे क्योंकि जांच करने के लिए उसके पास जनशक्ति, धन और सुविधाओं का अभाव है।  देखना यह है कि क्या प्रधानमंत्री राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाकर सी.बी.आई. को स्वतंत्र करते और इस तरह अपने विरोधियों को चौंकाते हैं कि नहीं। न्यायालय ने राह दिखा दी है। अब गेंद सरकार के पाले में है।-पूनम आई. कौशिश


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News