क्या राज ठाकरे का हिंदुत्व कार्ड टिकेगा

punjabkesari.in Wednesday, May 04, 2022 - 04:16 AM (IST)

आधुनिक भारत में अस्मिता और अस्तित्व की राजनीति सबसे ताकतवर राजनीतिक आयुध बन गया है। महाराष्ट्र की राजनीति में बाल ठाकरे का सबसे अलग स्थान रहा है। वह 50 सालों से अधिक समय तक महाराष्ट्र की राजनीति का एक धुरा बने रहे, भले ही उनकी पार्टी शिव सेना कभी खुद के दम पर बहुमत की सरकार नहीं बना पाई। उन्होंने कभी खुद चुनाव नहीं लड़ा, न ही किसी राजकीय पद पर रहे, फिर भी निधन के बाद उनके पार्थिव शरीर को राजकीय सम्मान के साथ तिरंगे में लपेटा गया था। 

लेकिन बाल ठाकरे वह राजनीतिक शक्ति नहीं बन पाए, जो तमिल राजनीति में करुणानिधि, एम.जी. रामचंद्रन, तेलगु में एन.टी. रामाराव जैसे नेता बने। बाल ठाकरे ने अपने भाई के बेटे राज ठाकरे की बजाय अपने बेटे वर्तमान मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को अपने बाद पार्टी का उत्तराधिकारी बनाया। इसके बाद नारायण राणे, संजय निरुपम जैसे कई बड़े नेताओं ने शिव सेना छोड़ दी। 2006 में खुद राज ठाकरे ने शिव सेना छोड़ दी। 

राज ठाकरे का उदय : राज ठाकरे ने मार्च 2006 में अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) बनाई। लोग उनमें बाल ठाकरे का ही तेवर और कलेवर देख रहे थे। धर्मनिरपेक्षता उनकी पार्टी की मुख्य विचारधारा बनी जो उनके 4 रंगों वाले झंडे में दिखता था। उन्होंने दावा किया था कि उनके पास महाराष्ट्र के विकास का ‘फार्मूला’ या रोड मैप है। शुरूआती दौर में राज ठाकरे ने हिंदी भाषियों के खिलाफ हिंसक अभियान चलाया, ‘भूमिपुत्रों’ के हक की लड़ाई लडऩे का दावा किया। 

2009 में हुए विधानसभा चुनावों में मनसे के 13 विधायक जीते। इसके बाद हुए नगर निगम चुनावों में भी मनसे ने शानदार प्रदर्शन किया। नासिक नगर निगम पर मनसे का कब्जा हो गया और बी.एम.सी. में उसके 27 कॉर्पोरेटर्स चुनकर आए। लेकिन दोनों ही जगह मनसे की चमक फीकी पड़ती गई। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी और उसी साल हुए विधानसभा चुनाव में सिर्फ 1 सीट जीती, वह भी विजेता उम्मीदवार की अपनी छवि और प्रभाव के कारण। 2019 के लोकसभा चुनाव पार्टी लड़ी ही नहीं। विधानसभा में सिर्फ 1 सीट फिर से उम्मीदवार के अपने प्रभाव के कारण जीती। विधानसभा में मनसे 101 सीटों पर लड़ी, जिनमें से 86 पर जमानत जब्त हो गई। 

खेल कैसे बदला : राज ठाकरे की सभाओं में भीड़ किसी राष्ट्रीय नेता की सभा से कम नहीं रहती, लेकिन मनसे इस भीड़ को वोट में तबदील नहीं कर पाई। इसकी पहली वजह है पार्टी में प्रशिक्षित कार्यकत्र्ताओं की कमी। मनसे में जुडऩे वाले लोग समॢपत भीड़ थे। उन्हें प्रशिक्षित कार्यकत्र्ता बनाने की मनसे संगठन में कोई व्यवस्था नहीं थी। इसकी आड़ में बहुत से असामाजिक तत्व पार्टी से जुड़ गए, जो दबंगई और असामाजिक कार्यों में लिप्त रहे, जिस कारण जनता उनसे जुडऩे से परहेज करती रही। 

दूसरी समस्या है मनसे की वैचारिक अस्थिरता। बहुरंगी पार्टी ध्वज, सर्व समावेशी नीति की धारणा ने एक ओर मनसे को कांग्रेस जैसी पार्टी बना दिया तो दूसरी ओर उत्तर भारतीयों का विरोध करके भूमिपुत्र के सिद्धांत को कट्टरता से आगे बढ़ाया। इस प्रकार उनके समर्थकों, कार्यकत्र्ताओं और आम मतदाताओं में मनसे के राजनीतिक और सामाजिक एजैंडे को लेकर एक भ्रम की स्थिति बन गई। वे मनसे के राजनीतिक भविष्य को लेकर उदासीन हो गए। 

तीसरा प्रमुख कारण स्वयं राज ठाकरे हैं। उन्हें लोग उनकी रचनात्मकता, उत्तम वक्ता और निडर नेता के रूप में जानते हैं। लेकिन एक पार्टी प्रमुख के रूप में उनकी छवि सड़क पर न उतरने वाले ‘विंडो पॉलिटीशियन’ की बनती गई। उनका रूखा और सख्त व्यवहार मीडिया और आम जनता को रास नहीं आया। साथ ही नासिक महापालिका में मिली सत्ता का उपयोग वह केजरीवाल की तरह नहीं कर सके। राजनीति में डर और ङ्क्षहसा लंबे समय के लिए आत्मघाती होती है। 

हिंदुत्व की ओर मनसे : 2019 के विधानसभा चुनावों में शिव सेना और भाजपा ने गठबंधन में चुनाव लड़ा, लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद 56 सीटों के साथ शिव सेना मुख्यमंत्री पद के लिए जिद करने लगी। मौके का फायदा उठाते हुए शरद पवार के मार्गदर्शन में एन.सी.पी. और कांग्रेस ने शिव सेना के साथ सरकार बना ली। भाजपा को 105 सीटें होने के बावजूद विपक्ष में बैठना पड़ा। 

भाजपा इस अप्रत्याशित मात को पचा नहीं पाई है। इसके लिए जिस तरह 1980 के दशक में इंदिरा गांधी ने कम्युनिस्टों और शरद पवार को सबक सिखाने के लिए बाल ठाकरे और शिव सेना की गतिविधियों को नजरंदाज किया, ठीक उसी फार्मूले से भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व राज ठाकरे को अप्रत्यक्ष रूप से ताकतवर बना रहा है। 2020 में मनसे ने अपने बहुरंगी ध्वज को बदल कर भगवा रंग का कर दिया। उस पर छत्रपति शिवाजी महाराज की राजमुद्रा अंकित करना उनकी ङ्क्षहदुत्व और मराठा स्वाभिमान की ओर पार्टी को ले जाने की महत्वपूर्ण कवायद मानी जा रही है। 

राज ठाकरे ने 1 मई की अपनी औरंगाबाद रैली में अपने चाचा बाल ठाकरे की शैली और विचार दोहराए। मस्जिदों से लाऊडस्पीकर हटाने की चेतावनी देना, हनुमान चालीसा का मस्जिदों के बाहर पाठ करने की घोषणा पूरी तरह से ङ्क्षहदुत्व का शंखनाद है। उन्होंने अयोध्या यात्रा की भी घोषणा की है। इसका चुनावी फायदा निश्चित रूप से उन्हें मिलेगा। साथ ही भाजपा से नजदीकियों के कारण उत्तर भारतीय मतदाताओं के भी उनके प्रति नरम होने के आसार हैं। 

अगले कुछ महीनों में बृहन्मुंबई महानगरपालिका समेत कई बड़ी नगरपालिकाओं के चुनाव हैं। मीडिया का एक वर्ग राज ठाकरे को खूब कवरेज देने लगा है। मनसे और भाजपा के साथ आने से कम से कम मनसे को ताकतवर बनने का एक अवसर मिल सकता है। इससे निश्चित रूप से शिव सेना को नुक्सान पहुंचेगा। इस प्रकार 2024 के लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव के लिए राज ठाकरे अपनी पार्टी और अपनी राजनीति के पुनर्निर्माण में लग गए हैं। इसका परिणाम दूरगामी हो सकता है।-डा. रवि रमेशचन्द्र   
 


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