क्या राजनीतिक दल ‘सुप्रीम कोर्ट की बात’ मानेंगे

punjabkesari.in Tuesday, Jul 28, 2020 - 03:00 AM (IST)

राजस्थान के वर्तमान घटनाक्रम के वाद-विवाद में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने जो टिप्पणी की है क्या प्रजातंत्र में विश्वास रखने वाले राजनीतिक दल उसे मानेंगे? क्या राजनीतिक पाॢटयां मानेंगी कि प्रजातंत्र ‘हां’ और ‘न’ के संयुक्त मेल से गतिमान होता है? प्रजातंत्र में ‘वायस ऑफ डिसैंट इन डैमोक्रेसी कैन नॉट बी शॅट।’ लोकतंत्र में ‘असहमति’ को दबाया नहीं जा सकता। किसी बात पर असहमति जतलाना पार्टी विरोध नहीं कहा जा सकता। 

लोकतंत्र में सभी चुने हुए प्रतिनिधि यदि एक स्वर में ‘द आईज हैव इट’, ‘द आईज हैव इट’ ही कहते रहेंगे तो यह एक दल की तानाशाही होगी। ऐसा कम्युनिस्ट दलों में होता है। कम्युनिस्ट पार्टी में अव्वल तो कोई असहमति जतला ही नहीं सकता। यदि किसी ने ‘नहीं’ कह दिया या तो उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा या गोली से उड़ा दिया जाएगा। जैसे उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग-उन करते हैं परन्तु लोकशाही में तुम्हें भी बात कहने का अधिकार है और मुझे भी अपनी बात रखने की स्वतंत्रता है। 

लोकतंत्र में लड़ाई नहीं, सहमति की प्रधानता है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने बड़ी न्यायसंगत बात की है कि प्रजातंत्र में असहमति (‘डिसैंटिव वायस’) को समाप्त नहीं किया जा सकता। प्रजातंत्र का मतलब ‘सहमति प्लस असहमति।’ ‘न’ प्लस ‘हां’ का मेल इक्वल टू प्रजातंत्र। प्रजातंत्र में असहमति को नकारा नहीं जा सकता। यह बात किसी साधारण व्यक्ति ने नहीं बल्कि देश के सबसे बड़े न्यायालय सुप्रीम कोर्ट ने कही है। प्रजातंत्र है क्या? जिस शासन प्रणाली में सबको सम्मानपूर्वक सुना जाए। सबके विचारों पर तर्कपूर्ण, अर्थपूर्ण और सोच-विचार होता रहे। असहमत होने वालों को दुत्कारा न जाए। राजनीतिक दलों में उन्हें तत्काल बाहर का रास्ता न दिखाया जाए जो ‘नहीं’, ‘नहीं’ कह रहे हों, उनकी ‘न’ पर भी विचार हो। पारस्परिक सहमति से निर्णय हो। प्रजातंत्र सिखाता है सहनशीलता। लोकतंत्र सिखाता है विपक्ष का सम्मान। विपक्ष दुश्मन नहीं। असहमति दर्शाने वाले देशद्रोही नहीं। इस देश के हैं। 

आप प्रश्र करने लगोगे कि जब पार्टी ‘एक’ है तो फिर असहमति कैसे? एक ही पार्टी की नीति-रीति में ‘नहीं’ क्यों? सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि मानव एक विचारवान प्राणी है। मानव और उसका चिंतन अपूर्ण है। पूर्ण सिर्फ एक भगवान है। मनुष्य के विश्वास, विचार और अनुभव परिवर्तित होते रहते हैं। अत: यदि किसी चुने हुए विधायक या सांसद को लगता हो कि उसकी पार्टी की नीतियां जनता के हित में नहीं तो वह असहमति जतला सकता है। यह पार्टी विरोध नहीं बल्कि पार्टी को अपनी भूल सुधारने का अवसर है। असहमति इसलिए भी हो सकती है कि दल की नीति उसकी मूल भावना से उलट है, यदि उसे उचित लगे कि पार्टी का प्रोग्राम देश की समस्याओं से मेल नहीं खा रहा तो वह अपनी पार्टी को छोड़ भी सकता है। दल-बदल का एक यह भी कारण है। परन्तु यदि कोई सांसद या विधायक अपने स्वार्थ के लिए अपने दल को छोड़ता है तो यह असहमति अक्षम्य है। 

बहुधा दल-बदल स्वार्थ के लिए ही होता है। दल-बदल में कोई मंत्री बनना चाहता है, कोई पैसे के लालच में आ जाता है, कोई पद लोलुप होता है। ऐसे व्यक्ति असहमति के दायरे में नहीं आते। पार्टी के भीतर रह कर असहमति जतलाना पार्टी का विरोध नहीं। पार्टी प्लेटफार्म पर पार्टी की नीतियों से असहमति पार्टी विरोध नहीं। अलबत्ता ऐसी असहमति तो पार्टी में सुधारवादी लहर को जन्म देगी परन्तु दुर्भाग्य है कि आज राजनीतिक पार्टियां, सिद्धांत परबात करने वाले कार्यकत्र्ताओं को विरोधी मानने लगी हैं। प्रत्येक राजनीतिक दल गुटबंदी को प्रोत्साहन दे रहा है। एक बलशाली गुट दूसरे गुट को बाहर करने की दौड़ में लगा है। सिद्धांत और मूल्य पीछे छूटते जा रहे हैं और राजनीतिक पाॢटयों में गुट प्रधान होने लगे हैं। असहमति जतलाने वाले को शत्रु समझा जाने लगा है। राजनीतिक दलों में मैनेजमैंट करने वाले रूलर हो रहे हैं। राजनीतिक दलों में पैसा, बाहुबल, जी हजूरीपन और मैनेजमैंट तकनीक हावी होती जा रही है। 

अब आते हैं राजनीतिक पार्टियां चलाने की ओर। पाठकवृंद, कोई भी राजनीतिक पार्टी तब तक चल ही नहीं सकती जब तक कि उसके सभी घटक एक स्वर में बात न करें। ज्यों ही कोई व्यक्ति किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण करता है वह वचनबद्ध हो जाता है कि वह उस पार्टी की रीति-नीति का पूरी तरह पालन करे। यदि राजनीतिक दल की रीति-नीति पर हर कोई असहमति जतलाने लगेगा तो पार्टी चल ही नहीं पाएगी। पार्टी चलाने के लिए सबको एक होना होगा। एक स्वर में बोलना होगा। एक ही प्लेटफार्म पर आना होगा।

भले ही आप पार्टी की बैठकों में निधड़क होकर बोलें, अपनी असहमति पार्टी के भीतर जतलाएं पर एक बार यदि निर्णय हो गया तो आप असहमत होते हुए भी उस निर्णय से इधर-उधर नहीं जा सकते। यही सामूहिक निर्णय और यही सामूहिक लीडरशिप है। इसी पर किसी राजनीतिक पार्टी का ताना-बना खड़ा है। इसी पर राजनीतिक दल चल रहे हैं। कोई दल सत्ता में है तो कोई विपक्ष में। सत्ता पक्ष और विपक्ष मिल गया तो प्रजातंत्र चल पड़ा। दोनों अड़ गए तो प्रजातंत्र पटरी से उतर गया।-मा. मोहन लाल(पूर्व परिवहन मंत्री, पंजाब)


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