आकुस समझौते से फ्रांस क्यों तिलमिलाया

punjabkesari.in Wednesday, Sep 22, 2021 - 06:09 AM (IST)

विश्व इस समय भविष्य के नजरिए से कई प्रकार के तनावों की ओर मुड़ रहा है। अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी के बाद अमरीका के विरुद्ध विश्वव्यापी नाराजगी के बीच फ्रांस ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए अमरीका और आस्ट्रेलिया से अपने राजदूतों को वापस बुला लिया है। फ्रांस अमरीका का पुराना मित्र और सांझेदार है। इसके बावजूद उसे अगर ऐसा कदम उठाना पड़ रहा है तथा उसकी ओर से यह बयान दिया जा रहा है कि अमरीका ने उसकी पीठ में छुरा घोंपा है तो कल्पना की जा सकती है कि स्थिति कितनी गंभीर है। 

दरअसल, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन ने आकुस नामक समझौता किया है, जिसके तहत ऑस्ट्रेलिया में नाभिकीय ऊर्जा से चलने वाली एक पनडुब्बी बनाने का भी प्रस्ताव है। तीन देशों के बीच हुए इस समझौते के बाद ऑस्ट्रेलिया दुनिया में ऐसा चौथा देश बन जाएगा, जिसके पास नाभिकीय पनडुब्बियां होंगी। अमरीका नाभिकीय ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बी बनाने की तकनीक ऑस्ट्रेलिया को देगा जिसके आधार पर एडिलेड में नई पनडुब्बियों का निर्माण होगा। इस सौदे के कारण ऑस्ट्रेलिया के साथ साइबर क्षमता, आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस और अन्य समुद्री तकनीकें सांझा की जाएंगी। 

ऊपरी तौर पर देखें तो इस समझौते में कोई बुराई नजर नहीं आएगी क्योंकि इस समय इन सभी देशों का मुख्य लक्ष्य रक्षा स्तर पर चीन का मुकाबला करना है। चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति, ताइवान के संदर्भ में उसका प्रभाव और दक्षिणी चीन सागर में चीन की सैन्य उपस्थिति सबके लिए चिंता का कारण है। वस्तुत: इस समझौते की बारीकियों पर अगले 18 महीनों तक काम चलता रहेगा लेकिन इसका एक परिणाम यह होगा कि अमरीका के बमवर्षक और अन्य सैन्य विमान और सैनिक ज्यादा संख्या में ऑस्ट्रेलिया आएंगे। नि:संदेह इससे क्षेत्र के देशों का आत्मविश्वास बढ़ेगा तथा चीन को लेकर भय और चिंता कम होगी।  लेकिन समझौते के कारण ऑस्ट्रेलिया का फ्रांस के साथ 37 अरब डॉलर का सौदा समाप्त हो गया है।

2016 के इस समझौते के अनुसार फ्रांस ऑस्ट्रेलिया के लिए 12 पारंपरिक पनडुब्बियां बनाता, जो ऑस्ट्रेलिया की दो दशक पुरानी कॉलिन्स पनडुब्बियों की जगह लेतीं। किसी देश का इतना बड़ा सौदा रद्द हो जाए तो उसका गुस्सा स्वाभाविक है और उस पर वह देश जो अमरीका का रक्षा सांझेदार भी है। इसलिए फ्रांस ने इस समझौते को अस्वीकार्य कहा है।

आरंभ में जब चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता जाओ लीजियांग ने कहा कि ये तीनों देश क्षेत्रीय शांति और स्थिरता को गंभीर नुक्सान पहुंचा रहे हैं, हथियारों की होड़ बढ़ा रहे हैं और परमाणु हथियार अप्रसार की अंतर्राष्ट्रीय कोशिशों को नुक्सान पहुंचा रहे हैं तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। उससे इसी तरह की प्रतिक्रिया  की उम्मीद की जा सकती है लेकिन हैरत की बात है कि इन देशों ने फ्रांस की प्रतिक्रियाओं का ध्यान नहीं रखा। फ्रांस पर क्या गुजर रही है, यह वहां के विदेश मंत्री ला ड्रियां के वक्तव्य से पता चलता है। उन्होंने कहा कि यह क्रूर, एकतरफा और अप्रत्याशित है। यह फैसला मुझे उस सबकी याद दिलाता है जो ट्रंप किया करते थे। 

वास्तव में यह बात सामान्य समझ से परे है कि अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने स्वयं फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों से इस पर बातचीत कर उन्हें विश्वास में लेने की कोशिश क्यों नहीं की। यह समझौता चार देशों के बीच भी हो सकता था और फ्रांस के पनडुब्बी संबंधी सौदे को जारी रखा जा सकता था। जाहिर है बाइडेन ने यहां एक राजनेता और राजनयिक से ज्यादा एक क्रूर व्यापारी की अदूरदर्शी भूमिका अदा की। फ्रांस का कहना है कि उसे इस सौदे और गठबंधन की सूचना इसके सार्वजनिक किए जाने के केवल कुछ घंटे पहले दी गई। यह निश्चित रूप से विश्वासघात है। यह बताता है कि आने वाले समय की विश्व व्यवस्था कैसी होगी।

अमरीकी राष्ट्रपति की ओर से एक अधिकारी का बयान आया है कि बाइडेन प्रशासन ने इस कदम पर खेद व्यक्त किया है और मतभेदों को सुलझाने के लिए आने वाले दिनों में फ्रांस से बातचीत की जाएगी। समझौता और सौदा हो ही गया तो अब उसमें बातचीत के क्या मायने हैं? अगर अमरीका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया तीनों फ्रांस को उसमें शामिल करते हैं, इनके सौदे को भले ही संशोधित रूप में जारी रखा जाता, तभी बात बन सकती है अन्यथा जो दूरियां इस समय बनी हैं, या मनमुटाव बना है वह आने वाले समय में चीन के वर्चस्व की ओर बढ़ती विश्व व्यवस्था के अंदर और जटिलता पैदा करेगी तथा दूसरे देश उसके सामने कमजोर व लाचार अनुभव करेंगे। 

बाइडेन ने वैसे ही अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी का विनाशकारी फैसला करके पूरी विश्व व्यवस्था को चीन के वर्चस्व वाले दौर में प्रवेश करने की आधारभूमि तैयार कर दी है। 1990-91 में जब संपूर्ण विश्व से कम्युनिस्ट सरकारों का पतन हुआ था तो नई विश्व व्यवस्था में अमरीका के एकल वर्चस्व का दौर शुरू हुआ। वह विश्व व्यवस्था भी अनेक जटिलताओं व तनावों से भरी रही। फ्रांस जैसे मित्र देश अगर ऐसे समझौते से बाहर रहते हैं तो जिस एशिया प्रशांत क्षेत्र को अमरीका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान सभी विशेष महत्व दे रहे हैं, अलग-अलग प्रकार के समझौते हो रहे हैं, वहां की सुरक्षा व्यवस्था और चीन को संतुलित करने का पूरा लक्ष्य ध्वस्त हो सकता है। जब इनके बीच आपसी विश्वास ही नहीं होगा तो कैसे एकजुट होकर ये कोई समझौता, अभ्यास या कार्रवाई आदि कर सकेंगे?

सामान्य राजनीति में भी इस तरह का व्यवहार नहीं किया जाता। आप कैसे विश्व को विश्वास दिलाएंगे कि आपका इरादा विश्व व्यवस्था को शांतिपूर्ण सहअस्तित्व तथा एक-दूसरे के साथ परस्पर सहयोग पर आधारित बनाने का है? ऐसे व्यवहार से आप चीन का ही पक्ष मजबूत कर रहे हैं। चीन आरोप लगा रहा है कि तीन देशों ने यह  सौदा शीतयुद्ध की मानसिकता से किया है। अमरीका और सोवियत संघ के बीच जारी शीत युद्ध के दौर में लगभग इस तरह की प्रतिस्पर्धा थी कि एक पक्ष के समझौते-सौदे को दूसरा रद्द कराए,उन देशों को अपने पाले में लाया जाए। सब करिए लेकिन मित्र देशों को अलग करके आप अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में कायम हो रही एकजुटता को तोड़ते हैं तो यह भविष्य के लिए अनर्थकारी होगा।

बाइडेन  का कहना है कि हम सभी ङ्क्षहद प्रशांत क्षेत्र में लंबे समय तक शांति और स्थिरता बने रहने की अहमियत समझते हैं। इस तरह के सौदे से प्रमुख देश तक को नाराज करके आप कैसी शांति और स्थिरता कायम कर पाएंगे? अमरीका और ऑस्ट्रेलिया दोनों फ्रांस को हर हाल में विश्वास में लेने का कदम उठाएं अन्यथा इससे निकला नकारात्मक संदेश एशिया प्रशांत संबंधी लक्ष्य पर ही ग्रहण लगा देगा।-अवधेश कुमार 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News