कांग्रेस ने 1946 के नौसेना विद्रोह का विरोध क्यों किया

punjabkesari.in Monday, Aug 08, 2022 - 05:11 AM (IST)

1946 के रॉयल भारतीय नौसेना विद्रोह का स्वतंत्रता दिवस से पूर्व स्मरण करना अच्छी बात है। यह न केवल स्वतंत्रता के इतिहास में नजरअंदाज करने वाली घटना थी बल्कि एक ऐसी घटना जिसे समानांतर तौर पर औपनिवेशक साम्राज्य के साथ-साथ कांग्रेसी नेताओं द्वारा दबाया गया। वास्तव में कांग्रेस एक दर्दनाक घटना के पागलपन में जकड़ी रही कि उसकी सरकार ने 1965 में बंगाल में विद्रोह पर आधारित उत्पल दत्त के नाटक ‘कलोल’ के मंचन को रोकने की प्रत्येक जुगत लड़ाई। 

कांग्रेस के अवरोधों के बावजूद मिनर्वा थियेटर में नाटक का मंचन हुआ जिसमें दर्शकों की भीड़ उमड़ी। दर्शक दीर्घा में बुद्धिजीवी आशीष नंदी भी मौजूद थे। एक अच्छी तरह से शोध की गई किताब में कहानी का प्रमोद कपूर ने ऐतिहासिक विद्रोह का तानाबाना बड़े अच्छे ढंग से बुना जिस पर आधारित यह नाटक रचा गया। 

फरवरी 1946 का नौसेना विद्रोह ब्रिटिश सरकार के लिए सबसे बड़ी शर्मिंदगी की बात थी। ब्रिटेन ने दो शताब्दियों तक शासन किया और नौसेना विभाग की डींगें मारीं। इस किताब का दिलचस्प पहलू षड्यंत्र है जोकि नॉन कमिशन्ड ऑफिसर्ज तथा सेलरों जिन्हें कि प्राइवेट कहा जाता था, द्वारा भड़काया गया। इसमें कौन से राजनीतिज्ञ शामिल थे? कहां पर षड्यंत्रकारी आपस में मिले? कैसे वे ब्रिटिश खुफिया तंत्र जिसमें कि ज्यादातर उनके वफादार भारतीय शामिल थे, से बच निकले। 

इस किताब के लिए फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल ने बलई दत्त के बारे में लिखा है जोकि मुश्किल से अपनी जवानी के शुरूआती दिनों में थे। वे विद्रोही नेताओं में शामिल थे। उसके बाद दत्त जोकि एक कट्टर माक्र्सवादी थे, बंगाल में ‘लिंटास’ के एडवर्टाइजिंग कार्यकारी के पद पर आसीन हुए। उन्होंने एक कॉपीराइटर के तौर पर ‘लिंटास’ को ज्वाइन किया था। यह ऐसा समय था जब बंगाल ने भोले-भाले लोगों के विद्रोह के बारे में पढ़ा।  इसके प्रकाशन से पूर्व दत्त ने विद्रोह के भीतर का वृत्तांत बताया। प्रख्यात इतिहासकार विलियम डैलरीमैपल ने एक उचित सवाल पूछा, ‘‘क्या 1946 का यह विद्रोह 1857 की क्रांति की फिर से याद दिलाता है?’’ 

यह किताब हमारे राष्ट्रीय नेताओं गांधी, नेहरू, स. पटेल जोकि ब्रिटिश सरकार के खिलाफ ‘लड़ाके’ कहे गए, की रोमांटिक छवि का नम्र वृत्तांत बताती है। ये सभी नेता गरीबों के खिलाफ भेदभाव से उपजे बड़े विद्रोह में आग फूंकने की तुलना में ब्रिटिश सरकार की ओर ज्यादा सहानुभूति रखते थे। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ यह एक प्रसिद्ध आंदोलन था। आखिर कांग्रेस ने इसका विरोध क्यों किया? 

ब्रिटिश साम्राज्य तथा गांधी, पटेल, जिन्ना जैसे रूढि़वादी नेताओं के लिए यह खतरे की घंटी थी क्योंकि इस आंदोलन का नेतृत्व भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने किया। इसके नेता एस.ए. डांगे जैसे रहे जो बाद में पार्टी के महासचिव बने। कांग्रेस पार्टी की लैफ्ट विंग की नेता अरुणा आसफ अली थीं। पंडित जवाहर लाल नेहरू की दुविधा तीव्र थी। कांग्रेस के लैफ्ट धड़े के बारे में नेहरू बेहद उत्सुक थे। 

जैसा कि कपूर लिखते हैं षड्यंत्रकारियों की एक विस्तृत योजना के बाद आग 18 फरवरी सोमवार को भड़क उठी। इतिहासकार सुमित सरकार की ‘माडर्न इंडिया’ का हवाला देते हुए कपूर लिखते हैं कि, ‘‘20 फरवरी की दोपहर ने उत्कृष्ट भाईचारे के दृश्य देखे। भीड़ गेट-वे ऑफ इंडिया पर हड़तालियों के लिए खाना लेकर आई तथा दुकानदारों ने उन्हेंं निमंत्रण दिया कि वह जो लेना चाहते हैं ले लें’’ और कांग्रेस ने इसका विरोध किया, आखिर क्यों? 

विद्रोह 78 जहाजों, 21 तटों तक फैल गया जिसमें 20,000 नाविक शामिल हुए, 48 घंटों से भी कम समय में इसने द्वितीय विश्व युद्ध की सबसे मजबूत नेवी को अपंग कर दिया। वहां पर छिटपुट लड़ाइयां हुईं जिसमें सैंकड़ों मारे गए। इसने कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के नेतृत्व को गहरे तौर पर प्रभावित किया जो ब्रिटिश सरकार की ओर टकटकी लगाकर देख रहे थे।

वे ऐसी गणना कर रहे थे कि आजादी उनके लिए ब्रिटिश लोगों के प्रति अच्छे व्यवहार का एक पुरस्कार होगी। ऐसा लगा उनका बेड़ा डूब रहा है। इसके विपरीत दूसरी ओर पृथ्वी राजकपूर, सलिल चौधरी, बलराज साहनी, जोहरा सहगल, उत्पल दत्त, अरुणा आसफ अली, मीनू मूसानी, अशोक मेहता, ख्वाजा अहमद अब्बास, जोश मलीहाबादी, साहिर लुधियानवी तथा अन्य का मंत्रमुग्ध करने वाला स्वर सुनाई दिया। 

इसके बारे में ‘हिंदुस्तान स्टैंडर्ड’ ने 28 फरवरी के अपने पन्ने पर विभिन्न कांग्रेसी नेताओं की प्रतिक्रियाएं छापीं। महात्मा गांधी ने अरुणा आसफ अली का विरोध जताते हुए कहा, ‘‘संवैधानिक मोर्चे के विपरीत मैं हिंदुओं तथा मुसलमानों को अवरोधकों पर एक करना चाहूंगा।’’ इसी पन्ने पर मौलाना आजाद जोकि कांग्रेस के अध्यक्ष थे, ने तर्क दिया कि राष्ट्रीय भावना को कुचला नहीं जाना चाहिए। 

40 और 50 के दशक में जब उपनिवेशवाद ढलान की ओर था तो साम्राज्यवाद को कोरिया में उस समय कम्युनिस्ट विस्तार ने चुनौती दी जब चीन ने यालू रिवर को 1950 में पार कर लिया। 1957 में केरल में बैलेट बॉक्स के माध्यम से पहली कम्युनिस्ट सरकार चुनी गई। ऐसी घटनाएं बाद में घटीं मगर साम्राज्यवाद स्थापना ने भांप लिया कि एक हवा एक दिशा में चल रही है।-सईद नकवी  
 


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