पश्चिम बंगाल में चुनावों के बाद हिंसा के लिए जिम्मेदार कौन

punjabkesari.in Friday, May 14, 2021 - 06:08 AM (IST)

अंग्रजी के एक समाचार पत्र में छपे मेरे साप्ताहिक कालम को लेकर एक पाठक ने कहा कि मैंने बंगाल में चुनावों के बाद हुई ङ्क्षहसा में मारे गए लोगों के शोक मेें एक भी शब्द नहीं कहा। इस बारे में एक अजीब सा स्पष्टीकरण दूंगा कि मैं तकनीकी रूप से अनपढ़ हूं। मैं अपने लेख सोमवार को अपने हाथों से लिखता हूं, उन्हें कार्यालय में अपनी सैक्रेटरी को भेजता हूं और अब लाकडाऊन के दौरान मंगलवार सुबह को उसके घर पर तथा उसी शाम को उसे ‘पॉलिश’ करके बुधवार सुबह संपादक के लिए डिस्पैच कर देता हूं। अत: बुधवार के बाद के घटनाक्रमों को लेखों में जगह नहीं मिलती। कई बार सोमवार तथा मंगलवार को हुई घटनाएं भी नजर से रह जाती हैं। 

ममता की विजय पहले पेज का समाचार थी। हालांकि उपद्रवों को प्रमुखता से जगह नहीं दी गई। बंगाल में चुनावों के बाद की ङ्क्षहसा को लगातार समय-समय पर जगह दी गई है। जैसे कि चुनावों के दौरान झड़पों को। पहले पहल के कुछ चुनावों के दौरान ङ्क्षहसा ने कांग्रेस तथा वामदलों के समर्थकों को अपने घेरे में लिया, फिर माकपा तथा तृणमूल कार्यकत्र्ताओं को और अब तृणमूल तथा बंगाल के राजनीतिक क्षेत्र में नई नवेली दाखिल हुई मोदी-शाह नीत भाजपा को। 

चुनावों के दौरान देश के अधिकतर राज्यों में तनाव, झगड़े तथा तोड़-फोड़ सामान्य हैं। चुनावी जलूसों तथा समारोहों के दौरान युवा उत्तेजित हो जाते हैं। सामान्य पुलिस बंदोबस्त जुलूस में शामिल तथा गर्म दिमाग लोगों को नियंत्रण में रखता है लेकिन इन चुनावों में भाजपा ने राज्य के पुलिस तंत्र को निष्क्रिय बनाकर खेल के नियम बदल दिए और वहां बड़ी सं या में अद्र्धसैनिक बल तैनात कर दिए जिससे ऐसा लगता था कि जैसे कानून व्यवस्था पर उनका नियंत्रण हो गया हो। 

चुनाव आयोग ने पुलिस व्यवस्था में प्रमुख लोगों को बदलने के लिए विरासत में मिली अपनी शक्तियों का इस्तेमाल किया जैसे कि डी.जी.पी. तथा अतिरिक्त डी.जी.पी. (कानून व्यवस्था)। यदि बदलियां स्थितियों पर काबू पाने में सक्षम न हों तो चीजों का गलत होना अवश्य भावी होता है।  बदलियों के विकल्प पर ई.सी.आई. तथा राज्य के वरिष्ठ नौकरशाहों के बीच आपसी सहमति थी। 

मेरे समय में अद्र्धसैनिक बलों की नियुक्ति की शक्ति राज्य सरकार के पास थी क्योंकि शांति बनाए रखने के लिए राज्य सरकार ही जि मेदार होती है। ऐसा लगता है जैसे इस बार बंगाल में तैनाती के नियम बदल दिए गए हों। यदि कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी ई.सी.आई. की थी तो दीदी के प्रशासन पर चुनाव के बाद की हिंसा का आरोप लगाना संभव है। अब उन्होंने फिर शपथ ले ली है तथा उपद्रवों को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी एक बार फिर सक्षम अधिकारियों पर है। पहले के नियम बहुत स्पष्ट थे। बाहरी बल राज्य सरकार के नियंत्रण में होते थे। वे मैजिस्ट्रेट के अंतर्गत कार्य करते थे और यदि उपद्रव की स्थिति में किसी मैजिस्ट्रेट की तैनाती न हो तो वे राज्य के सर्वाधिक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की कमान में कार्य करते थे। हालांकि इस बार इस समझदारीपूर्ण तथा समय-समय पर परखी गई व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया गया। 

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने चुनावी परिणाम आने के बाद ङ्क्षहसा की जांच के लिए एक अतिरिक्त सचिव की अध्यक्षता में चार वरिष्ठ अधिकारियों की एक टीम भेजी। कई भाजपा समर्थक तथा तृणमूल कांग्रेस के कुछ लोगों ने भी अपनी जान गंवा दी। टीम को गृह मंत्रालय को दोष देना कठिन होगा और यहां तक कि और भी कठिन होगा अपने राजनीतिक बॉस पर उंगली उठाना। टीम को अपनी जांच सीतलकूची में सी.आई.एस.एफ. द्वारा की गई फायरिंग की घटना से करनी चाहिए। किसने सशस्त्र सी.आई.एस.एफ. दल को उस स्थान पर तैनात किया। क्या इस तरह की तैनाती को राज्य सरकार के अधिकारियों की सलाह के बिना ई.सी.आई. की सहमति प्राप्त थी? यदि ऐसा था तो इन आदेशों तथा नए नियमों को सामने रखना चाहिए ताकि लोग समझ सकें कि अब भारत का शासन कैसे चलाया जा रहा है। 

जब से अमित शाह को गृह मंत्री की कुर्सी पर बिठाया गया है उनके मंत्रालय ने प्रशासन के कई नियमों को बदल दिया है। क्या यह बदलाव देश तथा इसके लोगों के भले के लिए है या इसका एकमात्र उद्देश्य सरकारी नीतियों के किसी भी तरह के तर्कसंगत विरोध को दबाना है? 

गृह मंत्रालय की जांच एजैंसियां, जैसा कि सी.बी.आई., एन.आई.ए., नशा विरोधी इकाई, एन.सी.बी. और यहां तक कि वित्त मंत्रालय के ई.डी. तथा आई.टी. विभाग, सब ही चुनावी दिनों के दौरान अत्यंत सक्रिय हो गए थे। कांग्रेस पार्टी भी इन एजैंसियों का इस्तेमाल अपने उद्देश्य के लिए करती थी लेकिन इस प्रशासन ने इस कौशल को एक फाइन आर्ट में बदल दिया है। 

जिस पाठक ने मेरे से संपर्क किया उसे शायद लगता था कि मारे गए सभी लोग भाजपा के समर्थक थे तथा सभी दोषी टी.एम.सी. के लोग थे। हो सकता है लेकिन इसकी जांच करके पुष्टि की जानी चाहिए। जब तक सबूत सामने नहीं आते किसी भी चीज पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए। उपद्रवी तत्व, जो पहले कांग्रेस अथवा माकपा और यहां तक कि टी.एम.सी. के साथ थे, इन चुनावों से पहले भाजपा के पाले में आ गए थे। 

ऐसे तत्व अब तृणमूल कांग्रेस मेें जगह पाने के लिए कोशिशें कर रहे हैं। भारत में सभी राजनीतिक दलों में उपद्रवी तत्व हैं। कोई भी निर्दोष होने का दावा नहीं कर सकता और चूंकि ऐसे तत्वों का इस्तेमाल हत्या तथा तोडफ़ोड़ के लिए किया जाता है, हमें दोहरे तौर पर सुनिश्चित होना होगा कि किसने क्या किया, कब और कहां किया?-जूलियो रिवैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)


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