अब किस ओर जाएं ‘बेरोजगारी’ के मुहाने पर खड़े छात्र

punjabkesari.in Friday, Jul 10, 2020 - 03:25 AM (IST)

कोरोना संकट ने कुछ जख्म ऐसे दिए हैं जिसकी भरपाई निकट भविष्य में होना मुश्किल है। वास्तव में देखें तो इस त्रासदी की मार सबसे ज्यादा प्रवासी मजदूरों और अन्य कामगारों पर पड़ी है लेकिन इस बीच छात्रों की चर्चा होना भी बेहद प्रासंगिक हो जाता है। आज उच्च शिक्षा के अंतिम वर्ष के बच्चे चौतरफा समस्याओं से घिरे हैं। उनकी परीक्षा को लेकर आए दिन नए-नए फरमान आते हैं। दूसरी तरफ नौकरी की गारंटी तो सामान्य समय में कोई शिक्षण संस्थान और शैक्षिक व्यवस्था नहीं लेती थी, फिर कोरोना काल में तो उम्मीद करना अपने आप को धोखे में रखने वाली बात है। ऐसे में बच्चे अवसाद का शिकार नहीं होंगे तो क्या होंगे, न नौकरी का ठिकाना है, न परीक्षा का, ऊपर से समस्या इस बात की भी है कि सामाजिक और आर्थिक दबाव है सो अलग। मान लिया सामान्य शिक्षा ग्रहण करने वालों के लिए कोई समस्या की बात नहीं लेकिन जिस छात्र ने लाखों रुपए का कर्ज लेकर रोजगारपरक शिक्षा ग्रहण की, उसका क्या? 

बीते दिनों सी.एम.आई.ई. की एक रिपोर्ट आई जिसमें बताया गया कि कोरोना महामारी के बीच 20 से 30 साल के 2.7 करोड़ युवाओं ने अपनी नौकरी गंवा दी है। फिर ऐसे हालात में कोरोना काल में पास आऊट बच्चों के लिए नौकरी कहां से आएगी, फिर जो युवा चार-पांच साल से जमीन, घर गिरवी रखकर सुनहरे भविष्य का सपना पाले हुए थे,उनके परिवार और उनका क्या होगा। क्या कभी इस बारे में हमारी मार्गदर्शक व्यवस्था ने सोचा है? 

एक परिचर्चा में एक प्रतिष्ठित मैनेजमैंट गुरु कहने लगे देश में नौकरियों की कोई कमी नहीं, बस युवाओं को ही समझ नहीं उन्हें करना क्या है? ऐसे में चलिए प्रथम दृष्टया उक्त महाशय की बात से सहमत भी हो जाएं  लेकिन अगर सब कुछ एक कॉलेज जाने वाले नवयुवक को ही पता होता, फिर वह किसी कॉलेज और शिक्षक की शरण में क्यों जाता? इसके अलावा क्या यह शिक्षण संस्थानों और हमारी व्यवस्था का कार्य नहीं कि बच्चों को ऐसा माहौल दिया जाए, जहां वे यह समझ पाएं कि किस क्षेत्र में आगे चलकर सफलता प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षण तंत्र और व्यवस्था का यह दायित्व है कि बच्चों को उनकी प्रतिभा से रू-ब-रू कराएं। लेकिन हमारे यहां तो चलन बनता जा रहा है सिर्फ और सिर्फ डिग्रीधारी बेरोजगार पैदा करने और पढ़ाई के नाम पर लाखों रुपए  ऐंठने का। ऐसे में प्रश्न यही कि एम.बी.ए. और बी.टैक किया हुआ युवक अगर अपने प्रोफैशन के साथ न्याय नहीं कर पा रहा, फिर चार-पांच वर्षों तक बच्चों को सिखाया और पढ़ाया क्या गया? हम समस्या की जड़ में जाकर बात करने में विश्वास ही नहीं रखते। 

चलिए कुछ सवालों के माध्यम से विषय की गम्भीरता को समझते हैं। आखिर क्या कारण है कि हम शोध के मामले में विश्व के अधिकतर देशों से पिछड़े हुए हैं? क्या हम वर्षों पुराने पाठ्यक्रम के भरोसे ही आत्मनिर्भर भारत का सपना बुन रहे हैं और क्या कारण है जिस अंग्रेजी शिक्षा को हम स्कूल के शुरूआती दिनों से लेकर कॉलेज तक पढ़ते रहे न वह अंग्रेजी हम ठीक से बोल पाते हैं और न ही वह रोजगार के काबिल बना पाती है? क्यों आज भी हमें माध्यमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक ऐसी बातें पढ़ाई जाती हैं, जिनका न वास्तविक जीवन में कोई महत्व होता है और न ही व्यावसायिक जीवन में? अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वे के मुताबिक 2018-19 में देशभर में 3.74 करोड़ छात्र उच्च शिक्षा हेतु पंजीकृत हुए हैं। यही नहीं, प्रतिवर्ष देश में डिग्री लेकर निकलने वाले छात्रों की संख्या करीब 91 लाख के करीब होती है। ऐसे में सिर्फ सियासतदानों की राजनीतिक रैलियों में युवा देश होने का जिक्र करने मात्र से लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों की पूर्ति नहीं होने वाली और अगर ऐसी ही रिवायत पर देश चल निकला है फिर यह देश केभविष्य के साथ-साथ वर्तमान के साथ बहुत बड़ा मजाक है। 

आज कोरोना काल जैसी विकट परिस्थितियों में अंतिम वर्ष के छात्रों के हाल ऐसे हैं कि न उनका संस्थान उनसे संपर्क करने को राजी है और न ही सरकारी तंत्र। आए दिन अफसरशाही और सरकारी तंत्र के निर्णयों के भंवर में फंसकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाला छात्र पिस रहा है। कोरोना से घबराए हुए तो सब हैं ही, लेकिन उच्च शिक्षा से जुड़े अंतिम वर्ष के छात्रों की समस्याएं समाज के अन्य तबके से कहीं अधिक हैं। उसे अपने भविष्य से लेकर वर्तमान तक सब अंधेरे की गर्त में जाता दिख रहा है। वह आज के समय में पशोपेश में जी रहा है। परीक्षा हो तो दिक्कत, न हो तो दिक्कत। ऊपर से नौकरी मिलेगी, इसकी तो आस करना ही शायद आज की परिस्थितियों में उसके लिए अतिशयोक्ति से कम नहीं। भले ही शिक्षण तंत्र और सम्बंधित विभाग फूला नहीं समा रहा कि उसने विपत्ति के समय में ऑनलाइन शिक्षा मुहैया कराई लेकिन वह शिक्षा कितनी गुणवत्तापूर्ण रही यह तो एक छात्र ही बता सकता है या वह शिक्षक, जिसने ऑनलाइन क्लासेज लीं। 

ऐसे में व्यवस्था परीक्षा की तरफ बढ़ती है, तो बच्चे बिना नोट्स और प्रॉपर पढ़ाई के बिना परीक्षा कैसे देंगे, बच्चों के सामने चुनौती यह भी है। दूसरी बात परीक्षा नहीं हुई और बच्चों को कृपा दृष्टि के कारण पास समझ लिया गया तो फिर क्या उम्मीद करें कि ऐसे युवा नौकरी के काबिल भी समझे जाएंगे बेरोजगारों के देश में? तीसरी बात, जब इस बार अधिकतर आई.आई.टी., आई.आई.एम. और प्रोफैशनल डिग्री प्रदान करने वाले संस्थान प्लेसमैंट दिला नहीं पा रहे, तो फिर आम कॉलेजों के छात्रों की मनोदशा का सहजता से आकलन किया जा सकता है। इसके अलावा हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था इतनी खर्चीली है कि अधिकतर निम्न, मध्यमवर्गीय परिवार अपने बच्चों का सपना पूरा करने के लिए लोन लेकर या घर और जमीन बेचकर शिक्षा दिलाते हैं। ऐसे में नौकरी की बाट जोह रहे छात्र को अगर एक भी उम्मीद की किरण नजऱ नहीं आएगी तो  फिर स्थिति भयावह होना तो तय ही है। 

पिछले दिनों एक अखबारी पन्ने की रिपोर्ट बनी कि सिर्फ देवभूमि हिमाचल में ही दो महीने के भीतर करीब सवा सौ लोगों ने आत्महत्या कर ली और इनमें भी अधिकतर युवक हैं। ऐसे में  कुछ सवाल हैं जिसका जवाब यू.जी.सी. और सम्बंधित मंत्रालय को ढूंढना चाहिए। सवाल यह है कि क्यों केंद्र, राज्य सरकारें और केंद्र्रीय नियामक संस्थाएं अपनी डफली-अपना राग बीते दो-तीन महीनों से अलाप रही हैं, क्या बच्चों का भविष्य और वर्तमान उनके लिए कोई अहमियत नहीं रखता। सरकारें अगर बच्चों के भविष्य को लेकर ङ्क्षचतित हैं, तो उनके फैसलों में दूरदृष्टि का अभाव क्यों? क्या यू.जी.सी. और सम्बंधित मंत्रालय के पास इस बात का कोई जवाब है कि सितम्बर में सब कुछ बेहतर हो जाएगा और नहीं होगा तो फिर क्यों उच्च शिक्षा से  जुड़े बच्चों की मानसिकता के साथ आए दिन खेला जा रहा है। 

ऐसे में समय की मांग यही है कि छात्रों के हित में दूरगामी फैसले लिए जाएं, जिससे छात्र अवसाद में जाने से बच सकें, साथ ही साथ अभिभावक और शैक्षणिक तंत्र को भी असुविधाओं से न गुजरना पड़े। इसके अलावा सरकारी और शैक्षणिक संस्थानों की तरफ से पहल तो आखिरी साल के बच्चों को रोजगार मुहैया कराने की भी होनी चाहिए। फिर क्यों न फिनलैंड सरकार की तर्ज पर कुछ हमारे देश में भी हो। वहां की सरकार बीते दो सालों से 2,000 नागरिकों को बिना किसी शर्त हर महीने 560 यूरो की बेसिक इंकम दे रही है ऐसी ही कोई स्कीम उच्च शिक्षा लेकर निकलने वाले उन युवाओं के लिए होनी चाहिए, जो रोजगार नहीं पा सके या जो रोजगार के काबिल नहीं।-महेश तिवारी 
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News