सभ्यताओं की लड़ाई में कहां खड़ा है भारत

punjabkesari.in Sunday, Nov 07, 2021 - 04:31 AM (IST)

9/11 तथा उसके बाद आप्रेशन एंड्यूरिंग फ्रीडम के मद्देनजर अफगानिस्तान से भागने को मजबूर किए जाने के दो दशकों बाद तालिबान के उत्थान में एक बार फिर सैमुएल हंटिंगटन के सभ्यताओं के टकराव तथा विश्व व्यवस्था को फिर से बनाने के सिद्धांत की ओर ध्यान आकर्षित किया है।

यह बताते हुए कि सभ्यताओं में टकराव क्यों होगा, उन्होंने 1993 की गर्मियों में राय दी कि ‘भविष्य में सभ्यता की पहचान अत्यंत महत्वपूर्ण होगी तथा 7 या 8 प्रमुख सभ्यताओं के बीच अंतव्र्यवहार द्वारा विश्व काफी हद तक आकृति प्राप्त करेगा। इन सभ्यताओं में पश्चिमी, कन्फ्यूशियस, जापानी, इस्लामिक, हिंदू, स्लोविक-आर्थोडॉक्स, लातीनी अमरीकी तथा संभवत: अफ्रीकी सभ्यता शामिल है। भविष्य में सबसे महत्वपूर्ण संघर्ष सांस्कृतिक फाल्ट लाइन्स के साथ होंगे जो इन सभ्यताओं को एक-दूसरे से अलग करेंगे। 

इस्लामिक तथा एंग्लो सैक्सन के बीच फाल्ट लाइन्स का ब्यौरा देते हुए उन्होंने लिखा कि पश्चिमी तथा इस्लामिक सभ्यताओं के बीच संघर्ष 1300 वर्षों से जारी है। इस्लाम के उत्थान के बाद अरब तथा मूरिश पश्चिम तथा उत्तर की ओर गए और उनके दौरे 732 में समाप्त हुए। 11वीं से 13वीं शताब्दी से धर्म योद्धाओं ने पवित्र धरती पर ईसाईयत तथा ईसाई शासन लाने के प्रयासों में अस्थायी असफलता हासिल की। 14वीं से 17वीं शताब्दी से ओटोमन तुर्कों ने संतुलन को पलटते हुए मध्य पूर्व तथा बालकंस तक अपना प्रभाव बढ़ाया, कोंस्टैंटिनोपल पर कब्जा कर लिया तथा 2 बार वियना पर अपना अधिकार बनाया। 

19वीं तथा 20वीं शताब्दी के शुरू में जब ओटोमन की ताकत कम हो रही थी ब्रिटेन, फ्रांस तथा इटली ने अधिकांश उत्तरी अफ्रीका तथा मध्य पूर्व पर पश्चिमी नियंत्रण स्थापित किया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, बदले में पश्चिम ने वापस लौटना शुरू किया तथा कोलोनियल साम्राज्य गायब हो गया, पहले अरब राष्ट्रवाद और फिर इस्लामिक कट्टरवाद ने खुद को मजबूत किया, अपनी ऊर्जा के लिए पश्चिम बहुत अधिक फारस की खाड़ी के देशों पर निर्भर हो गया, तेल बहुल मुस्लिम देश अत्यंत धनवान बन गए तथा जब भी उन्होंने चाहा, हथियारों के मामले में भी सम्पन्नता हासिल की। अरबों तथा इसराईल (जिसका निर्माण पश्चिम ने किया) के बीच कई युद्ध हुए। 

फ्रांस ने अल्जीरिया में 1950 के दशक में अधिकतर समय निर्दयी तथा रक्तिम युद्ध लड़ा, ब्रिटिश तथा फ्रांसीसी सेनाओं ने 1956 में मिस्र पर धावा बोला, अमरीकी सेनाएं 1958 में लेबनान पहुंचीं, इसके बाद अमरीकी सेनाएं लेबनान लौटीं, लीबिया पर हमला किया तथा ईरान के साथ कई सैन्य संघर्षों में शामिल रहा, कम से कम तीन मध्य पूर्वीय सरकारों द्वारा समर्थित अरब तथा इस्लामिक आतंकवादियों ने हथियार एकत्र किए तथा पश्चिमी विमानों व संस्थानों पर बम गिराए और पश्चिमी बंधकों को अपने कब्जे में ले लिया। 

अरबों तथा पश्चिम के बीच यह युद्ध 1990 में उस समय तेज हो गया जब अमरीका ने कुछ अरब देशों को दूसरों से बचाने के लिए फारस की खाड़ी में एक भारी सेना भेजी। पश्चिम तथा इस्लाम के बीच सदियों पुराने इस सैन्य संघर्ष के खत्म होने की कोई संभावना नहीं। यह और भी अधिक तीव्र हो सकता है।’ हंटिंगटन को जैसे पहले ही पता था- इसके बाद 9/11 हुआ तथा आतंकवाद पर युद्ध शुरू हो गया। पहले 2001 में अफगानिस्तान को उधेड़ा गया जिसके बाद 2003 में ईराक को। 

यद्यपि पहले विश्व युद्ध के बाद ओटोमन साम्राज्य के विखंडित होने के बाद अमरीका तथा इसके पश्चिमी सहयोगियों ने जहां मध्य पूर्व के भूगोल को पुनव्र्यवस्थित करने का प्रयास किया  इससे बड़ी ताकतें विस्तृत इलाकों में फैल गईं और उन्होंने लगभग एक शताब्दी तक अरब जगत में तानाशाहीपूर्ण तथा साम्राज्यवादी ताकतों को निर्दयतापूर्वक दबाया। इस रीडिजाइनिंग के प्रयासों के परिणामस्वरूप शिया क्रीसैंट का निर्माण हुआ जिसने ईरान की पहुंच तथा प्रभाव को एक भी गोली दागे बिना सारे क्षेत्र में फैला दिया। 

शिया क्रीसैंट उस क्षेत्र को कहते हैं जिसमें लेबनान, सीरिया, ईराक तथा यमन शामिल हैं तथा इन देशों में शिया जनसंख्या मौजूद है जिसका केंद्र ईरान है। इसके नियंत्रण में हिजबुल्ला, हमास, हाऊती तथा दक्षिणी ईराकी मिलीशिया जैसे महत्वपूर्ण समूह हैं। इसने ईरान की मध्य पूर्व तथा इसके सीमांत रणनीतिक हितों से पार संहितापूर्वक संचालन करने में मदद की है। अमरीका ने अब शिया क्रीसैंट के साथ-साथ शी जिनपिंग के चीन की अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में पहचान की है। यही कारण है कि अमरीकियों ने 20 वर्षों तक उसका दोहन करने के बाद वास्तव में प्लेट में सजाकर अफगानिस्तान सुन्नी तालिबान को सौंप दिया है। 

यद्यपि अमरीकियों और यहां तक कि अफगान सुरक्षाबलों का दावा है कि अधिकांश आधुनिकतम हथियारों को अक्षम बना दिया गया था लेकिन बहुत से गंभीर रणनीतिक विचारक इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं। अमरीका का उद्देश्य तालिबान की सूरत में एक बराबर का कट्टर सुन्नी बल तैयार करना है। तालिबान की वापसी के बाद की अशांति के बीच भारत तथा अन्य देश कहां खड़े हैं? इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री मोदी के वैटिकन दौरे तथा भारत के  नवजात पश्चिमी क्वाड में भाग लेने की समीक्षा करने की जरूरत है।-मनीष तिवारी
    


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