आजादी की कसौटी पर हम कहां

punjabkesari.in Monday, Aug 15, 2022 - 05:54 AM (IST)

आजादी का अमृत महोत्सव उन भारतीय लोगों को समर्पित है, जिन्होंने भारत को अपनी विकास यात्रा में आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह प्रधानमंत्री मोदी के आत्मनिर्भर भारत के सपने की जीवंतता से प्रेरित है। आधिकारिक तौर पर यह 75-सप्ताह पहले 12 मार्च 2021 को शुरू हुआ था और  भारत की 75वीं स्वतंत्रता वर्षगांठ पर 15 अगस्त 2023 को अब से एक साल बाद पूरा होगा। आज हम जब अपनी आजादी के जंग के योद्धाओं पर नजर डालते हैं तो यह पाते हैं कि उनके रास्ते भले ही अलग-अलग रहे हों लेकिन सभी का उद्देश्य एक ही था। आजादी की जंग के तमाम ज्ञात और अज्ञात सेनानियों को याद करना दरअसल खुद अपने भीतर झांकना भी है कि हम उनकी उम्मीदों पर कितना खरा उतर सके हैं? 

इसके साथ-साथ हम आजाद और एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में क्या अपनी भूमिका जिम्मेदारी के साथ निभा रहे हैंं? स्वतंत्रता सेनानियों के त्याग और बलिदान से हासिल की गई आजादी की रक्षा करने के लिए हम कितने सजग और जागरूक हैं? लोकतंत्र में जनता ही देश की भाग्यविधाता है। आज हम देश की आजादी को उत्सव के रूप में मना रहे हैं। पर क्या हम आजादी का मतलब समझ सके हैं? क्या हमारे अंदर अपने देश के प्रति प्रेम है। जिस ‘वंदे मातरम’ के नारे के सहारे हम आजादी की जंग जीत सके और जिस ‘भारत माता की जय’ पर सेना के जवान देश के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर देते हैं, उस पर सवाल उठाए जा रहे हैंं। क्या यही आजादी है। आज हम अपने छोटे से व्यक्तित्व और देश के बीच में चुनाव नहीं कर पाते। 

दरअसल 15 अगस्त का दिन भारत के लिए पुराने युग की समाप्ति और नए युग का प्रारंभ करता है। परन्तु हम एक स्वाधीन राष्ट्र के रूप में अपने जीवन और कार्यों के द्वारा इसे ऐसा महत्वपूर्ण दिन भी बना सकते हैं जो सम्पूर्ण जगत के लिए, सारी मानव जाति के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक भविष्य के लिए नवयुग लाने वाला सिद्ध हो। आज भी अधिसंख्य लोग सब कुछ सरकार से ही पाने की अपेक्षा रखते हैं। 

लोग राज्य की आलोचना करते हैंं, परिस्थिति के विषय में भारी असंतोष भी व्यक्त करते हैं, फिर भी इन सारी समस्याओं का यदि कोई हल है या कोई हल किया जा सकता है, तो वह राज्य के द्वारा ही हो सकता है। ऐसी एक रूढ़ मान्यता लोगों के मन में बस गई है। बहुत बड़े-बड़े लोग भी यही मानते हैं कि देश की समस्याओं के लिए सरकार ही एकमात्र प्रभावकारी साधन है। पर दुनिया में एक भी देश ऐसा नहीं मिलेगा, जिसका उत्थान केवल राज्य की शक्ति द्वारा ही हुआ हो। कोई भी राज्य बिना लोगों की शक्ति के देश का उत्थान नहीं कर सकता। 

तानाशाही में भी लोगों को काम में लगाना ही पड़ता है। वहां बल का, धमकी का, शासन की आज्ञा का सहारा लिया जाता है। लोकशाही में यह काम नहीं आता। आजादी के 75 वर्षों में देश ने तरक्की की जिन बुलंदियों को छुआ, हमारे नौकरशाहों व राजनेताओं ने उसके बराबर, बल्कि उनसे कहीं ऊंची भ्रष्टाचार की मीनारें खड़ी की हैं। कई राज्यों में मंत्रियों ने जिस तरह से सत्ता के बल पर जनता को लूटा उसकी कोई मिसाल नही मिलती है। लेकिन दुखद आश्चर्य यह है कि भ्रष्टाचार में संलिप्त लोग अब शर्मसार नहीं होते। 

ऐसे में, यदि उससे जुड़ी खबरें हमारी संवेदना का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं बन पाती हैं, तो यकीनन यह समाज के क्षयग्रस्त होने का ही परिचायक है। दरअसल भ्रष्टाचार की विषबेल राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों की छत्रछाया में ही पल्लवित हुई है। दोनों ने इसकी जड़ों में खाद-पानी डाले हैं। यही वजह है कि दोनों एक-दूसरे का संरक्षण करते रहे हैं। वरना दागी अधिकारियों के शीर्ष पदों पर पहुंचने की और क्या वजह हो सकती है? राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के इस गठजोड़ ने देश की व्यवस्था और उसके आत्मबल को खोखला किया है।

आजादी के 75 वर्षों में हमारी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली पतन की उस पराकाष्ठा पर पहुंच गई है जहां कई राज्यों में राजनीतिक सत्ता का मतलब सिर्फ स्वार्थ की पूर्ति हो गया है। सरकारी कर्मचारियों की तैनाती और तबादले रिश्वत के बल पर किए गए इससे पूरी प्रशासनिक व्यवस्था ध्वस्त हो गई। सच को दबाने के लिए पत्रकारों तक को भी जेल में डाल दिया गया। हमारे लोग अपने नैतिक सिद्धांत और रीति-रिवाज अपने नेताओं से ग्रहण करते हैं। आज जरूरत है राज्यों में भी ऐसे गतिशील नेतृत्व की जिसने कल्पनाशक्ति, सही समझ और समर्पण भावना को आत्मसात् कर लिया हो। वह इस ऐतिहासिक संकट काल में बहुत कुछ करने में समर्थ हो सकता था। 

एक प्रधानमंत्री के रूप में हमारे पास नरेन्द्र मोदी जैसा व्यक्ति है, जो नैतिक मूल्यों और उच्च सिद्धांतों में दृढ़ विश्वास रखते हैं और उनके मंत्रिमंडल के कई सदस्य अपार क्षमता वाले और प्रतिभाशाली लोग हैं, उनमें शासन करने की योग्यता भी है। इसलिए यह आशा की जाती है कि वर्तमान सरकार ऐसे चुनाव सुधार के कानून पारित करेगी, और विधियों और आदेशों से संबंधित कोई ऐसा कार्य नहीं करेगी, जो सिर्फ वर्तमान कठिनाइयों के लिए ही हों, वरन् उसका दूरगामी संबंध देश के आने वाले अच्छे दिनों के लिए भी हो। हालांकि भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों की हाल की विजय वर्तमान चुनावी प्रणाली पर ही आधारित थी, तथापि पार्टी को राष्ट्र के आगामी हितों के मद्देनजर इस प्रणाली में सुधार लाने के प्रयास भी करने चाहिएं।-निरंकार सिंह 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News