अध्यक्ष की शक्तियों पर ‘अंकुश’ क्या राजनीतिक दल मानेंगे

punjabkesari.in Tuesday, Jan 28, 2020 - 03:54 AM (IST)

मानो या न मानो किन्तु अध्यक्ष पद पर कुछ अंकुश लगा दिया गया है। संसद का नया सत्र शुरू होने वाला है किन्तु उच्चतम न्यायालय विधान मंडलों के पीठासीन अधिकारियों की भूमिका में सुधार कर व उनकी शक्तियों पर अंकुश लगाकर एक नई शुरूआत करने का प्रयास कर रहा है। देखना यह है कि क्या हमारे राजनीतिक दल और सांसद तथा विधायक इसके लिए सहमत होंगे। 

एक दूरगामी निर्णय में उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने कहा है कि संसद और राज्य विधान मंडलों के अध्यक्ष को इस बारे में पुर्नविचार करना चाहिए कि क्या उनके पास सांसदों  और विधायकों को अयोग्य घोषित करने की शक्ति रहनी चाहिए क्योंकि वे भी किसी विशेष राजनीतिक दल से होते हैं। न्यायालय ने कहा कि सदस्यों को अयोग्य घोषित करने की याचिकाओं पर निर्णय असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर तीन माह के भीतर होना चाहिए और यदि इसमें विलम्ब होता है तो न्यायालयों को इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार है। 

संसद अध्यक्ष की सदस्यों को अयोग्य घोषित करने की शक्तियों और उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक स्वतंत्र अधिकरण के गठन के बारे में विचार कर रही है ताकि यह सुनिश्चित हो कि ऐसे विवादों का त्वरित और निष्पक्ष रूप से निर्णय हो। इस सुझाव के पीछे तर्क यह है कि अध्यक्ष भी सत्तारूढ़ पाॢटयों के सदस्य होते हैं और वे पक्षपातपूर्ण ढंग से कार्य कर सकते हैं। न्यायालय ने यह निर्णय मणिपुर में एक कांग्रेसी विधायक को अयोग्य ठहराने के बारे में दिया था जिसने 2017 के विधानसभा चुनावों के बाद भाजपा की सदस्यता ले ली थी और कांग्रेस ने विधान सभा अध्यक्ष को उसे अयोग्य घोषित करने के लिए कहा किन्तु अध्यक्ष ने ऐसा नहीं किया और यह याचिका लंबित रखी गई। 

निश्चित रूप से दल-बदल विरोधी कानून के कार्यान्वयन के बारे में बार-बार उठ रहे विवादों के मद्देनजर यह निर्णय स्वागत योग्य है। सांसद और विधायक अक्सर लालच में एक पार्टी से दूसरी पार्टी में शामिल हो जाते हैं और अध्यक्ष आंख मूंद लेते हैं या अपने माई-बाप की सहायता के लिए अपना आदेश लंबित रखते हैं और ऐसा पिछले सात दशकों से होता आ रहा है जिनमें देखने को मिला कि अध्यक्ष पक्षपातपूर्ण राजनीति करते हैं। जैसा कि लोकसभा के एक पूर्व अध्यक्ष ने कहा ‘‘हम पार्टी टिकट पर पार्टी के पैसे से चुने जाते हैं और यदि अध्यक्ष बनने पर मैं त्यागपत्र भी दे दूं तो फिर अगले चुनाव के लिए मुझे किसी न किसी पार्टी के पास जाना पड़ेगा, इसलिए मैं स्वतंत्रता का दावा कैसे कर सकता हूं? मैं अपनी पार्टी और पार्टी के हितों के खिलाफ निर्णय कैसे दे सकता हूं?’’ 

किन्तु जब केन्द्र और राज्यों में सांसद-विधायक-अध्यक्ष की भूमिकाएं पलक झपकते ही बदल जाती हैं तो कोई आपत्ति नहीं करता है। पार्टियां संवैधानिक पद का उपयोग पार्टी कार्यकत्र्ताओं को पुरस्कृत करने के लिए करती हैं और अध्यक्ष भी इसका अपवाद नहीं है। सत्तारूढ़ पार्टी के मंत्री और सांसद अध्यक्ष पद केवल अपनी सरकार की सहायता करने के लिए स्वीकार करते हैं और इस मामले में चाहे भाजपा हो, कांग्रेस हो या कोई अन्य दल सब एक जैसे हैं। लोकसभा के वर्तमान अध्यक्ष ओम बिरला पहले राजस्थान में विधायक और फिर सांसद रह चुके हैं। इससे पूर्व कांग्रेस पार्टी से अध्यक्ष मीरा कुमार सांसद, मंत्री रह चुकी हैं। शिवराज पाटिल भी मंत्री रह चुके थे। 

वह चुनाव हार गए थे किन्तु कांग्रेस उन्हें राज्यसभा में ले आई और फिर उन्हें गृह मंत्री बनाया गया। बलराम जाखड़ ने एक कांग्रेसी नेता के रूप में अपनी पहचान कभी नहीं छिपाई और रवि राय अपनी जनता पार्टी की अपेक्षाओं पर खरे उतरे। राज्यों में स्थिति और भी खराब है जहां पर मंत्रियों का अध्यक्ष बनने और अध्यक्ष के मंत्री बनने के विषय में कोई कयास नहीं लगाया जा सकता है। चाहे कर्नाटक हो, पूर्वोत्तर के राज्य, गोवा, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु आदि हों। लोकसभा के प्रक्रिया नियम मुख्यतया ब्रिटेन के वैस्टमिंस्टर संसदीय लोकतंत्र पर आधारित हैं किन्तु इसमें एक स्वतंत्र अध्यक्ष के महत्वपूर्ण मुद्दे की अनदेखी की गई है। वैस्टमिंस्टर मॉडल में किसी सांसद के अध्यक्ष बनने पर वह सांसद पद से त्यागपत्र दे देता है और बाद के चुनावों में हाऊस ऑफ   कामंस के लिए निर्विरोध चुना जाता है। 

सदन का सेवक है अध्यक्ष
किन्तु भारत में अध्यक्ष को सभी मुद्दों का निर्णय करने के लिए परम शक्तियां दी गई हैं। चाहे वह प्रश्नों को स्वीकार करने के बारे में हों या स्थगन प्रस्ताव स्वीकार करने के बारे में हों या समितियों की रिपोर्ट के बारे में निर्णय करना हो या कौन कितने समय तक बोलेगा आदि। वास्तव में भारत में अध्यक्ष को विश्व के किसी भी अध्यक्ष से अधिक शक्तियां प्राप्त हैं इसलिए स्थिति ऐसी बन गई है कि अध्यक्ष की भूमिका और छवि बहुत बड़ी हो गई है। वह एक स्कूल के अध्यापक की तरह कक्षा का केन्द्र बिन्दू बन गया है। वह ऐसा व्यक्ति बन गया है जो कोई गलती नहीं कर सकता और जिसके कार्यों पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। किन्तु सच यह है कि अध्यक्ष सदन का सेवक है परंतु आज सदन के प्रक्रिया नियमों के कारण वह सदन का स्वामी बन गया है। 

ऐसे वातावरण में जब देश में निर्मम राजनीति का बोलबाला हो अध्यक्ष की भूमिका और भी महत्वपूर्ण बन जाती है आज भी वह महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और एसकाइनमे के अनुसार अध्यक्ष के बिना सदन का कोई संवैधानिक अस्तित्व नहीं है। नेहरू भी अध्यक्ष पद के महत्व पर बल देते थे और वह इसकी प्रतिष्ठा और शक्तियों का सम्मान करते थे। 1958 में नेहरू ने कहा था ‘‘अध्यक्ष सदन का प्रतिनिधित्व करता है। वह सदन की गरिमा और स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए यह उचित होगा कि अध्यक्ष का पद एक सम्माननीय व स्वतंत्र पद हो और इस पर हमेशा सक्षम व निष्पक्ष व्यक्ति विराजमान हो।’’ 

सरकार चाहे मनमर्जी करे किन्तु विपक्ष को बोलने का मौका मिले
समय आ गया है कि हम अपनी व्यवस्था में आई खामियों को दूर करें। नियमों में आमूल-चूल बदलाव किया जाए ताकि संसद और विधान मंडलों को वापस पटरी पर लाया जा सके। अध्यक्ष की शक्तियों के बारे में पुर्नविचार किया जाए साथ ही सदन की सर्वोच्चता स्थापित की जाए ताकि यह सुनिश्चित हो कि वह तटस्थता बनाए रखे। किन्तु उपाय आसान नहीं है। इसकी प्रक्रिया धीमी और लंबी हो सकती है। पीठासीन अधिकारियों को भी संभल कर चलना होगा। उसे अन्य बातों के साथ-साथ यह सुनिश्चित करना होगा कि चाहे सरकार अपनी मनमर्जी करे किन्तु विपक्ष को बोलने का मौका मिले। शायद आपको पता न हो अध्यक्ष को किसी भी बात को कार्रवाई वृत्तान्त से निकालने का अधिकार नहीं है बशर्ते कि वह बात असंसदीय न हो। वह यह भी नहीं कह सकता कि ‘‘यह कार्रवाई वृत्तान्त में शामिल नहीं की जाएगी’’ क्योंकि इससे सदस्यों को दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला होता है। समय आ गया है कि हम नियमों में बदलाव करें और यह सुनिश्चित करें कि अध्यक्ष सदन का सेवक हो न कि इसका स्वामी। 

एक बार अध्यक्ष तो सदा के लिए अध्यक्ष
आशा की जाती है कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद स्थिति में बदलाव आएगा और अध्यक्ष निष्पक्षता से काम करेंगे। उसे इस बात को समझना होगा कि वह भारत की लोकतांत्रिक पहचान बनाए रखने में मुख्य भूमिका निभाता है और उसे ब्रिटेन की इस कहावत को ध्यान में रखना चाहिए कि एक बार अध्यक्ष तो सदा के लिए अध्यक्ष। अध्यक्ष पद की निष्पक्षता और स्वतंत्रता सुनिश्चित करने का एक उपाय यह है कि इस पद को राजनीति से दूर रखा जाए ताकि अध्यक्ष दलीय राजनीति से अलग हो जाए। एक उपाय यह भी है कि उसे अगली बार सदन के लिए निॢवरोध चुना जाए। खुशी की बात यह है कि लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला उच्चतम न्यायालय के निर्णय से सहमत हैं और उन्होंने कहा है विधान मंडलों में पीठासीन अधिकारियों की शक्तियां सीमित होनी चाहिएं क्योंकि यह स्वस्थ लोकतंत्र की परम्परा को बनाए रखने में मदद करेगा ताकि किसी भी न्यायालय को उनके कार्यकरणों पर टिप्पणी न करनी पड़े। 

कुल मिलाकर अध्यक्ष को इंदिरा गांधी के इन शब्दों पर ध्यान देना चाहिए ‘‘संसद लोकतंत्र की प्राचीर है। इसके समक्ष एक ऐसी छवि बनाने का गुरुत्तर कार्य है जिससे लोग इसमें विश्वास रखें और उसका सम्मान करें क्योंकि अगर लोगों का विश्वास और सम्मान खो गया तो मैं नहीं जानती कि आगे क्या होगा।’’ वह विश्वास और सम्मान अध्यक्ष द्वारा एक नई पहल कर बहाल किया जाना चाहिए। क्या राजनीतिक दल इस बात को मानेंगे?-पूनम आई. कौशिश


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