समाज तथा देश की रक्षा व प्रगति की जिम्मेदारी हम सब की

punjabkesari.in Wednesday, Apr 20, 2022 - 06:41 AM (IST)

हमारा ध्यान समाज में घट रही हृदय विदारक घटनाओं की ओर जाना चाहिए। गैंगस्टरों के समूह रोज खून की होली खेल रहे हैं। उनके हत्थे चढ़े युवा एक-दूसरे के मित्र या भाई बनने की बजाय ‘दुश्मन’ बनने में ज्यादा गर्व महसूस कर रहे हैं। 4 साल की बच्ची से बलात्कार, पति के हाथों पत्नी का कत्ल तथा पुत्र द्वारा मां का वध, किसी कर्जाई द्वारा की गई खुदकुशी आदि जैसे कार्य सभी की चिंता का सबब बनने चाहिएं। 

बेरोजगार या नाममात्र वेतन के परिवार 200 रुपए प्रति किलो से भी अधिक कीमत की दाल तथा अत्यंत महंगी सब्जी, घी, तेल, साबुन आदि चीजें खरीदने के लिए क्या पापड़ बेल रहे हैं या इन चीजों से वंचित रह कर जीवन कैसे बिता रहे हैं यह सोच कर ही सिर चकरा जाता है। ऊपर से महंगी बिजली, दवाएं, शिक्षा, यात्रा किराया इत्यादि मसले दुखी जनता का खून अलग चूस रहे हैं। 

जब कभी किसी बेगुनाह (चाहे गुनहगार ही सही) का दोष सिद्ध किए बिना ही थाने में की गई ‘सेवा’ से मौत हो जाती है तो विलाप करती मां-बहनें, पत्नी तथा बूढ़े बाप के पल्ले रोने-धोने के अतिरिक्त कुछ नहीं पड़ता। कातिल को पकड़वाने के लिए प्रशासन पर दबाव डालने हेतु सड़क जाम करना यदि महाजुर्म है तो फिर लोगों के पास न्याय प्राप्ति का अन्य विकल्प क्या बचा है? चंद नोटों के बदले या जमीन के छोटे से टुकड़े संबंधी झगड़ों में इंसान का गाजर-मूली की तरह टुकड़े करके कत्ल कर दिया जाता है। ये अनहोनी वारदातें पंजाब तथा देश की सीमाओं के भीतर हो रही हैं जिस ओर हमारा ध्यान अक्सर बहुत कम जाता है। सच्ची बात तो यह है कि ऐसे हालातों से छुटकारा प्राप्त करने के लिए संघर्षमयी तौर-तरीकों से मुंह नहीं फेरा जा सकता।

किसी धार्मिक व्यक्ति का सपने में कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ते कत्ल हो जाने का डर या पड़ोस में बसते दूसरे धर्म के अनुयायी द्वारा किसी हिंसक या भड़काऊ कार्रवाई का डर लगे रहना, सभ्य तथा शांतमयी समाज की निशानियां नहीं हैं। गली-मोहल्लों में सब्जी-फल आदि बेचते या गुजारे के लिए मामूली व्यापार करते किसी खास धर्म से संबंधित व्यक्ति को उसके नाम, पहरावे या बोली के आधार पर बेरहमी से पीटने की बीमार मानसिकता तथा दशकों से गांवों-शहरों में इकट्ठे बसते लोगों के मनों में पिछले कुछ वर्षों से एक-दूसरे के प्रति भय तथा शक कैसे पैदा हो गया? ये हालात  किसने बनाए यह पता लगाने की जरूरत है। बेशक सामाजिक तनाव तथा साम्प्रदायिक दंगा भड़काने का फायदा जो वर्ग या तबका ले रहा है उस पर ही इस दोष की उंगली रखी जानी चाहिए। 

दूसरी ओर कई बार जिन लोगों के घर-बार, दुकानें तथा कारोबार आग की भेंट कर दिए जाते हैं या जिन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता है, उन्हीं को दंगे भड़काने का दोषी ठहराना इंसाफ के तराजू पर खरा नहीं उतरता। मगर अब हमारे देश में हो यही रहा है। किसी धार्मिक समारोह का आयोजन करना या मर्यादा निभाना इतना खतरनाक और डरावना क्यों बनता जा रहा है, जबकि ऐसे समारोह हम सदियों से मिलजुल कर मनाते आ रहे हैं। भारत का संविधान तथा कानून इन धार्मिक आयोजनों की स्वतंत्रता भी देता है। रामनवमी के दिन जे.एन.यू. दिल्ली, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि प्रांतों में अनेकों जगहों पर हिंसक तथा साम्प्रदायिक घटनाएं होना निंदनीय कार्रवाइयां हैं जिनकी तह तक जाकर पड़ताल की जानी चाहिए ताकि दोषियों को सजा मिल सके। 

यदि हम इसे नहीं समझेंगे तथा सामूहिक दखल देकर रोकने का प्रयास नहीं करेंगे तो सारा समाज नफरत तथा हिंसा की भट्ठी में झुलस जाएगा। स्वतंत्रता संग्राम के लम्बे समय के दौरान देश की आजादी के लिए लड़ी गई शांतिपूर्ण तथा गौरवमयी लड़ाई को कमजोर करने के लिए अंग्रेजी साम्राज्य, उनके पिट्ठू रंग-बिरंगे साम्प्रदायिक तत्व हर तरह के प्रयास करते रहे हैं। 

बाहरी तौर पर चाहे उन लोगों को इस उद्देश्य में ज्यादा कामयाबी नहीं मिली मगर साम्प्रदायिक जहर का सड़ांध मारता फोड़ा भीतर ही भीतर रिसता रहा जिसका प्रकटावा 1947 में देश के धर्म के आधार पर विभाजन के समय हुए भाई-मार दंगों में हुआ। दोनों ओर 10 लाख लोगों की जानें गईं, अरबों-खरबों की सम्पत्ति लूटी गई तथा करोड़ों लोगों को हिजरत के लिए मजबूर होना पड़ा। 

आजादी मिलने के बाद जम्मू-कश्मीर, यू.पी., बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक आदि राज्यों में योजनाबद्ध साम्प्रदायिक दंगों का सिलसिला बार-बार छेड़ा गया। कहीं मुसलमान मारे गए और कहीं हिन्दुओं के कत्ल हुए। कहीं अन्य नहीं बल्कि भारत की राजधानी दिल्ली की सड़कों पर 1984 में सिखों के खून से होली खेली गई। इन सभी हृदय विदारक वारदातों के दौरान केवल पीड़ित पक्षों की तथा मानववादी रूहें ही विलाप करती रहीं जबकि समाज का बड़ा हिस्सा इन अपराधों को मूकदर्शक बन कर देखता रहा और यह भी सच है कि अनेक ‘धर्मी’ लोग भी इन वारदातों में भागीदार बने। हमारे लिए समझने की बात यह है कि इन घटनाओं के दोषी तथा पीड़ित सभी देश के आम नागरिक ही हैं जो जिंदगी की बेशुमार मुश्किलों से दो-चार हो रहे हैं। उनके पीछे खड़े असल गुनहगार हमारी नजरों से इसलिए बचते रहे या जानबूझ कर बचाए गए क्योंकि यह सारा मामला शायद ‘मेरे’ से ‘हमारा’ नहीं बन सका। 

अदालती निर्णय के बाद राम मंदिर निर्माण का कार्य शुरू होने से समझा जा रहा था कि भविष्य में कोई ऐसा विवाद फिर नहीं उठेगा परंतु अदालत के निर्णय की स्याही सूखने से पहले ही मथुरा-वृंदावन तथा अन्य कई स्थानों की निशानदेही करके धर्मस्थलों से जुड़े नए विवाद खड़े करने की तैयारी शुरू कर दी गई। एक विशेष धर्म के लोगों से ‘फूल’ न खरीदने का ढिंढोरा पीटा जा रहा है क्योंकि उन पर थूक मल कर फूलों को ‘मलिन’ करने का दोष है। 

इसे ‘थूक जेहाद’ का नाम दिया गया है ताकि भीड़ तंत्र द्वारा ठीक निशाने पर हमला करने के लिए व्यक्ति की पहचान करते समय किसी तरह की गलती की गुंजाइश ही न रहे। यह अत्यंत नैतिक, विचारधारक तथा राजनीतिक गिरावट है। एक नेता द्वारा आरोप लगाया जा रहा है कि दिल्ली स्थित कुतुबमीनार उच्च मंदिरों को गिराकर बनाया गया है। यह धर्म आधारित टकराव पैदा करने का नया पैंतरा है। 

हैदराबाद स्थित ऐतिहासिक चारमीनार से सटे एक मंदिर के संबंध में किसी भी समय किसी तरह का बड़ा बखेड़ा खड़ा किए जाने की आशंका सुहृदय हलकों द्वारा प्रकट की जा रही है। यदि यह मान भी लिया जाए कि अतीत में कुछ हुक्मरानों द्वारा दूसरे धर्मों के प्रति ज्यादतियां की गई हों, मगर इसकी सजा इन कार्रवाइयों से बिल्कुल अछूती तथा बेगानुह उसी धर्म की मौजूदा नस्लों को क्यों दी जा रही है। 

यह जो सब कुछ हो रहा है वह हमारे इतिहास, संस्कृति, मानवीय तथा धार्मिक परम्पराओं और मान्यताओं, भाईचारक सांझों के अंतिम रूप में देश की एकता तथा अखंडता के लिए बड़े खतरों का सूचक है। हमें यह भी देखने और समझने की जरूरत है कि शासक ऐसे भरोसा रहित तथा नफरत भरे माहौल बनाने के लिए बड़ी हद तक जिम्मेदार हैं तथा तमाशबीन बनकर बड़ी तबाही के मंजर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसे टालने के लिए ‘मैं’ की जगह ‘हमें’ लेनी होगी, क्योंकि समाज तथा देश की रक्षा तथा प्रगति की जिम्मेदारी ‘मेरी’ नहीं बल्कि ‘हमारी’ है।-मंगत राम पासला


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