वी.आर.एस. प्राप्त टैलीकॉम बाबुओं पर सरकार का यू-टर्न का विचार

punjabkesari.in Sunday, Jul 04, 2021 - 05:14 AM (IST)

कोई भी इस बिल्ली के गले में घंटी नहीं बांधना चाहता। नाटक के पात्र अधिकतर वही हैं लेकिन गोपनीय यू-टर्न पर काम किया जा रहा था। यह कहना है संचार भवन के कुछ जानकारों का। जो प्रश्न अभी तक नहीं पूछा जा रहा वह यह कि सरकार ने 2019 में जल्दबाजी में काम क्यों किया? जब इसने बी.एस.एन.एल. तथा एम.टी.एन.एल. के हजारों कर्मचारियों को वी.आर.एस. (स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति) देने का फैसला किया। 2 साल बाद वह निर्णय दूरसंचार विभाग में बैठे बाबुओं को फिर से डराने वापस लौट आया है। गंभीर वित्तीय संकट में फंसी सरकार संचालित ये दो टैलीकॉम क पनियां वर्तमान में अपना संचालन बरकरार रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं क्योंकि वह भीषण सर्जरी काम नहीं आई। 

संचार भवन में इस समय निराशा बढ़ रही है तथा फुसफुसाहटें संकेत देती हैं कि बाबुओं का एक वर्ग अब उन्हीं बाबुओं को परामर्शदाताओं के तौर पर नौकरी पर लगाना चाहता है जो गोल्डन हैंडशेक के साथ सेवानिवृत्त हो गए थे। अब यह सब नियमों पर जरूरत से ज्यादा अमल करने वाले टैलीकॉम सचिव अंशु प्रकाश पर निर्भर करता है कि वे इस मामले का गंभीरतापूर्वक विचार करें। फिलहाल कुछ सूत्र बताते हैं कि अभी वे सावधानी बरत रहे हैं। 

प्रकाश ने निर्देश दिया है कि जब तक इस मामले पर ‘गहन पुनॢवचार’ न कर लिया जाए तब तक किसी भी पूर्व कर्मचारी को उन्हें नौकरी पर न बुलाया जाए। मगर यदि बी.एस.एन.एल. तथा एम.टी.एन.एल. को अस्तित्व बनाए रखना है तो उसके पास बहुत अधिक समय नहीं है। निश्चित तौर पर इसको लेकर कुछ फुसफुसाहटें हैं कि कैसे सरकार इस स्थिति से निकलेगी क्योंकि इन टैलीकॉम क पनियों में उसकी मूल्यवान हिस्सेदारी है। इसे वह कैसे न्यायोचित ठहराएगी। इसे लेकर एक अन्य विवाद पैदा हो जाएगा। 

याद रखें कि हाल ही में सरकार ने एक अन्य सरकार संचालित संगठन, आर्डीनैंस फैक्टरी बोर्ड के पुनर्गठन की घोषणा की है जिसे सात कार्पोरेट इकाईयों में विभाजित किया जा रहा है, बावजूद इसके कि बड़े ल बे समय से यह रणनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण है। इस बारे बहुत कम लोगों द्वारा प्रश्र उठाए जाने की संभावना है क्योंकि यह सशस्त्र बलों की एक चिरलिंबत मांग थी। मगर संचार भवन में मुद्दे भिन्न हैं। आखिरकार बी.एस.एन.एल. तथा एम.टी.एन.एल. का मामला अलग है जो यह बयां करता है कि क्यों दूरसंचार मंत्रालय दोहरी धार पर चल रहा है। 

गत वर्ष जब पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने देशभर में उनके मंत्रालय के 19 एकीकृत क्षेत्रीय कार्यालयों के गठन को हरी झंडी दी, उनका उद्देश्य यह था कि मंत्रालय का विस्तार करने से काम पर नजर रखने तथा तालमेल बनाने में बेहतरी आएगी। इससे उनके मंत्रालय के स्टाफ को भी बढ़ाना नहीं पड़ेगा। उनके बाबू स्पष्ट तौर पर शिकायत कर रहे थे कि उनके पास स्टाफ की कमी है और काम का बोझ अधिक है। 

भौगोलिक विस्तार के लिए बाबुओं का एक असामान्य तर्क : महीनों बाद दुखद रूप से धीमी गति से एक योजना को लागू किया जा रहा है जो कार्यकुशलता में सुधार से काफी दूर है और वास्तव में महत्वपूर्ण प्रस्तावों के ढेर लगने का कारण बन रहा है जिनमें से अभी तक बहुत से ल िबत हैं। सूत्रों का कहना है कि मंत्रालय अभी तक नवगठित क्षेत्रीय कार्यालयों के लिए स्टाफ के पदों को भरने में भी सफल नहीं हो सका। जयपुर, शिमला, जम्मू, कोलकाता तथा गांधी नगर के कुछ नए कार्यालयों में अभी तक एक भी नियुक्ति नहीं की गई है। इस योजना के गतिशील न होने के कारण मंत्रालय का कार्यभार अब वास्तव में बढ़ गया है। 

नए स्टाफ की नियुक्ति में देरी से पुराने अधिकारियों का काम और अधिक हो गया है जिनको अब वह काम भी सौंप दिया गया है जो नए कार्यालयों को दिया जाना था। गत वर्ष से दाखिल लगभग 500 प्रस्तावों में से लगभग आधों को इन परियोजनाओं के लिए मंत्रालय की स्वीकृति की जरूरत है जो वन भूमि पर हैं। जहां ये अच्छे भी हो सकते हैं, उनके पीछे एक खतरा भी है। 

मगर बड़ा प्रश्र यह है कि क्या ये सभी पुनव्र्यवस्थाएं एक ऐसे समय पर वास्तव में जरूरी थीं जब देश कोविड महामारी के दंश को झेल रहा है तथा अर्थव्यवस्था को एक बड़े उछाल की  जरूरत है? कुछ लोगों का कहना है कि  जावड़ेकर के बाबुओं के पास ल िबत उन प्रस्तावों से काफी मदद मिल सकती थी, यद्यपि प्रकृति को न चाहते हुए भी एक छोटा अवकाश मिल गया है।-दिल्ली का बाबू दिलीप चेरियन

 


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