प्रेम, मित्रता, भक्ति के शत्रु ‘अहंकार’ पर विजय

punjabkesari.in Saturday, Jan 11, 2020 - 02:10 AM (IST)

जब हमारे चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल हो, कुछ समझ में न आए कि हो क्या रहा है, जिधर नजर डालो, अलग-सा हो जो ठीक न लगे और अपनी ही अक्ल पर भरोसा न रहे तो जरूरी है कि थोड़े वक्त के लिए अक्ल को घास चरने के लिए छोड़ दिया जाए और यह गुनगुनाया जाए :
यूं तो बेहतर है कि पासबाने अक्ल साथ रहे,
बेहतर है उसे कभी-कभी तन्हा छोड़ देना। 

जिन्दगी की सौगात
कुछ और क्या चाहिए, जब जीवन में प्रेम हो, दोस्ती हो और किसी के प्रति इतना समर्पण भाव हो कि वह भक्ति तक बन जाए। निदा फाजली की रचना पर गौर कीजिए।
हम हैं कुछ अपने लिए कुछ हैं जमाने के लिए
घर से बाहर की फिजा हंसने-हंसाने के लिए।
यूं लुटाते न फिरो मोतियों वाले मौसम
ये नगीने तो हैं रातों को सजाने के लिए।
अब जहां भी हैं वहीं तक लिखो रुदादे सफर
हम तो निकले थे कहीं और ही जाने के लिए।
मेज पर ताश के पत्तों सी सजी है दुनिया
कोई खोने के लिए है कोई पाने के लिए।
तुमसे छूट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था
तुमको ही याद किया तुमको भुलाने के लिए। 

हमारे समाज में मोहब्बत और दोस्ती की ऐसी-ऐसी मिसालें हैं जिनका दुनिया भर में कोई सानी नहीं। यही नहीं, अक्सर दूसरे मुल्कों के लोग यह सोचा करते हैं कि क्या ऐसा भी हो सकता है? जंग के मैदान में एक-दूसरे के सीने में खंजर घोंपते रहे और शाम होते ही जो घायल हो उसकी तीमारदारी यही लोग करते पाए जाएं, यह दृश्य क्या कहीं और देखने को मिल सकता है ? 

कृष्ण और उद्धव की दोस्ती
प्रेम और मित्रता का उदाहरण अगर पौराणिक कथाओं में ढूंढ रहे हो तो बहुत से मिल जाएंगे। इनमें से एक कृष्ण और उनके मित्र जिन्हें वे सखा कहते थे, उद्धव थे जो  एक-दूसरे को कान्हा और उधो के नाम से पुकारते थे। कृष्ण चाहे कितने ही बड़े राजनीतिज्ञ रहे हों, युद्ध में उनके बुद्धि-कौशल का डंका बजता रहा हो, राजसी ठाठ-बाट और महलों में समस्त सुखों का भोग करते रहे हों, लेकिन कान्हा के रूप में तो वे चंचल, चपल, ठिठौली करने वाले और किसी के भी आंसुओं को मुस्कान में बदल देने वाले ही थे। दूसरी तरफ उद्धव अपने बालपन में उनकी छवि अपने मन में घड़ लेते हैं और उनसे बिना मिले व उन्हें बिना देखे ही उनका चित्र बना लेते हैं और जब युवावस्था में दोनों मिलते हैं तो दोनों ही एक-दूसरे के प्रति सखा भाव से प्रेरित होकर अश्रु सागर में हिलोरें लेने लगते हैं। अब प्रेम और मित्रता की पराकाष्ठा देखिए! कृष्ण के प्रति उद्धव का प्रेम उन्हें उनकी भक्ति तक करने की अवस्था में ले जाता है और वे उन्हें पूर्ण समर्पण भाव से चाहते हैं। 

अहंकार से पतन
अब होता यह है कि चाहे कितना भी आदर, प्रेम, भक्ति हो, मनुष्य का एकमात्र दुर्गुण अहंकार उसे समाप्त करने के लिए काफी है। लेकिन दोस्ती वही जो दोस्त को पता लगे बिना ही उसकी परेशानी हो, कोई व्यसन हो या घमंड ही क्यों न हो, उसे इस प्रकार अंजाम दे कि कानों-कान खबर भी न हो और काम भी हो जाए। उद्धव को यह अहंकार था कि संसार में उनके जैसा कोई ज्ञानी नहीं है। अब होता यह है कि कृष्ण के प्रति राधा और गोपियों का जो प्रेम था, उसकी व्याख्या करना शब्दों के भी परे की बात थी। उधो को लगा कि  कान्हा को कृष्ण बनकर राजकाज संभालना चाहिए और गोपियों का जो उनसे प्रेम है वह सत्ता चलाने के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट है। उद्धव एक सखा की तरह नहीं, एक मित्र की भांति कृष्ण को समझाते हैं कि वे गोपियों से कहें कि वे उन्हें भूल जाएं और जो प्रेम, रास, रंग, मोह था वह युवावस्था का ज्वार था, अब वे राजा हैं इसलिए उन्हें याद न किया करें क्योंकि गोपियों के याद करते ही कृष्ण सब काम छोड़कर उनके पास पहुंच जाते हैं। 

कृष्ण समझ गए कि यह उनके मित्र का अहंकार बोल रहा है और एक सखा व मित्र होने के नाते उनका कत्र्तव्य है कि उद्धव का यह दुर्गुण दूर किया जाए। कृष्ण जो रास्ता अपनाते हैं वह उद्धव को गोपियों के पास भेजकर उन्हें सांसारिक शिक्षा का ज्ञान देने का है। उद्धव अपना पूरा ज्ञान लेकर गोपियों के पास जाते हैं और उन्हें योग, ध्यान, कर्म आदि सिखाने का प्रयत्न करते हैं। अब गोपियां उद्धव की जो हालत करती हैं, वह अपने आप में किसी के लिए भी इस सीख से कम नहीं है कि इंसान को जब घमंड हो जाए तो उसे दूर करने के लिए सच्चे मित्र को क्या करना चाहिए। उद्धव के ज्ञान की गठरी तितर-बितर हो जाती है, पूरा ज्ञान धूल में मिल जाता है और वे ज्ञान के मिथ्या भार से मुक्त होकर कृष्ण के पास आते हैं और अब एक सामान्य व्यक्ति की भांति व्यवहार करते हैं। अब इस बात पर आते हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में इस प्रसंग की कितनी आवश्यकता है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे दो मित्र जिनमें सखा भाव भी है, उनमें से एक को अहंकार ने घेर लिया है कि जो वह कहता, सोचता और करता है, वही अंतिम सत्य है। 

ऐसे में उस व्यक्ति के परम मित्र, जो उनसे ऊंचे पद पर है, का यह कत्र्तव्य हो जाता है कि वह अपने मित्र का अहंकार दूर करने के लिए कुछ तो ऐसा करे जिससे प्रजा में सत्ता के प्रति अविश्वास न बढ़े। क्रोध कभी भी बिना किसी वजह के नहीं होता, घमंड कभी उत्थान का कारण नहीं बन सकता, वह केवल पतन ही करा सकता है। अगर ऐसा नहीं होता तो कृष्ण की द्वारका नगरी के समुद्र में डूब जाने का इतिहास अपने को दोहरा सकता है। इसके विपरीत इन्हें यह भी सोचना चाहिए कि यदि हनुमान को अहंकार हो जाता तो क्या वे राम के हृदय में स्थान पा सकते थे?
आज इसी बात की परीक्षा है कि अहंकार का 
अंत कब और कैसे हो? निदा फाजली की एक 
गजल की पंक्तियां हैं :
कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है।-पूरन चंद सरीन 
 


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