उत्तर प्रदेश के चुनाव तय करेंगे राजनीतिक दलों की राष्ट्रीय भूमिका

punjabkesari.in Wednesday, Nov 24, 2021 - 05:18 AM (IST)

उत्तर प्रदेश में चुनावी माहौल गर्माता जा रहा है। प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता मतदाताओं को लुभाने में लगे हैं। अखिलेश यादव ने यह दावा करते हुए अपनी विजय यात्रा शुरू कर दी है कि लोगों ने पहले ही भाजपा के लिए फातिहा लिख दिया है और समाजवादी पार्टी की वापसी अपरिहार्य है। प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश के तूफानी दौरे पर हैं, लोगों से मिल रही हैं, पार्टी कार्यकत्र्ताओं को एकजुट होने और कांग्रेस को भाजपा के यू.पी. के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर एकमात्र विकल्प रूप में पेश करने का आह्वान कर रही हैं।

दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा नेता बैठकें कर रहे हैं, परियोजनाओं का उद्घाटन कर रहे हैं और दोहरे इंजन वाली सरकार के महत्व पर जोर दे रहे हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मुफ्त में हिंदुत्व की खुराक पिला रहे हैं। गरीबों के बीच मुफ्त राशन की योजना को मार्च 2022 तक (चुनाव खत्म होने तक) बढ़ा दिया गया है और स्कूल जाने वाले बच्चों के माता-पिता के खातों में वर्दी खरीदने के लिए पैसे भी जारी किए गए हैं। 

यह स्पष्ट है कि राजनीतिक दलों का भविष्य दांव पर है और उत्तर प्रदेश के चुनाव राष्ट्रीय राजनीति में इनकी भूमिका तय करेंगे। भाजपा नेतृत्व ने इस कटु सत्य को स्वीकार किया है, क्योंकि अमित शाह ने अपनी हालिया रैली के दौरान कहा था कि यदि आप 2024 में मोदी को सत्ता में वापस लाना चाहते हैं तो 2022 में उत्तर प्रदेश में योगी को वोट दें। अगर भाजपा उत्तर प्रदेश हारती है तो मोदी सरकार राजनीतिक कमान खो देगी। हमले तेज होंगे और प्रधानमंत्री के हर फैसले को माइक्रोस्कोप के नीचे रखा जाएगा। उत्तर प्रदेश में भी हार विपक्ष को उत्साहित करेगी और उन्हें उम्मीद देगी कि वे 2024 के आम चुनावों में भाजपा को पछाड़ सकते हैं। 

प्रियंका गांधी और कांग्रेस के लिए परिदृश्य अलग नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में बहन-भाई की जोड़ी के नेतृत्व का भाग्य दांव पर है। पिछले डेढ़ दशक में पराजयों से पार्टी का आधार कमजोर हुआ है। दलित, मुस्लिम और ऊंची जातियां, जो 80 के दशक के मध्य तक कांग्रेस के सर्वोत्कृष्ट समर्थन समूह थे, धीरे-धीरे बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और भाजपा में स्थानांतरित हो गए। 2014 तक 10 वर्षों तक भारत में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. सरकार के शासन के बावजूद, केंद्र में मनमोहन सिंह सरकार चलाने के लिए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी पर कांग्रेस की निर्भरता ने इन पार्टियों को कांग्रेस की कीमत पर उत्तर प्रदेश में लाभ उठाने का मौका दिया। ऐसे में प्रियंका गांधी के लिए पार्टी को पुनर्जीवित करना एक कठिन काम होगा। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 403 सदस्यीय विधानसभा में सिर्फ 7 सीटें जीती थीं लेकिन अब उसके पास केवल 5 सदस्य रह गए हैं। मौजूदा हालात में दो दर्जन सीटें जीतना भी पार्टी के लिए बड़ी जीत होगी। यह एक कठिन काम है और अगर प्रियंका परिणाम हासिल करने में विफल रहती हैं तो नेतृत्व में बदलाव की मांग को लेकर पार्टी के भीतर असंतोष की आवाज उठने लगेगी। 

यही हाल समाजवादी पार्टी का है। अखिलेश जानते हैं कि इस विधानसभा चुनाव में हार उन्हें और गुमनामी में धकेल देगी और उनके नेतृत्व पर सवाल उठेंगे। सपा 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव तथा 2017 के विधानसभा चुनाव हार गई थी, जो उसने अखिलेश के नेतृत्व में लड़े थे। इस बार अखिलेश ने बड़े राजनीतिक खिलाडिय़ों के साथ गठबंधन करने की बजाय छोटे दलों के साथ जाने का फैसला किया है। इससे पहले भी बसपा के पितामह कांशी राम ने अनुसूचित जाति और ओ.बी.सी. का एक बड़ा दलित-बहुजन गठबंधन बनाया था। 1993 में प्रयोग के परिणाम सामने आए जब राम मंदिर आंदोलन के चरम पर भाजपा को हराने के लिए सपा और बसपा गठबंधन सरकार बनाने के लिए एक साथ आए। 2007 में, सर्व समाज पर अपने ध्यान के माध्यम से मायावती अत्यंत पिछड़ी जातियों का समर्थन प्राप्त करने में सफल रहीं और अपने दम पर स्पष्ट बहुमत हासिल किया। 

अखिलेश यादव ने दलितों व ओ.बी.सी. के सम्मान की रक्षा करने तथा सत्ता में उनका उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए डा. बी.आर. अंबेडकर और राम मनोहर लोहिया के अनुयायियों को एक साथ आने का आह्वान किया है। यह घोषणा एक योजना के तहत की गई है क्योंकि अन्य पिछड़ी जातियां (ओ.बी.सी.) एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, जैसी कि उन्होंने 2019 के आम चुनावों और 2017 के विधानसभा चुनावों में निभाई थी। भाजपा केवल इसलिए सत्ता में आई क्योंकि वह ओ.बी.सी. का अच्छा समर्थन हासिल करने में सफल रही क्योंकि उसने छोटे लेकिन जाति-आधारित दलों के साथ प्रभावी गठबंधन किया था। चुनाव के इस संस्करण में अखिलेश पहले ही ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एस.बी.एस.पी.) जैसी छोटी पाॢटयों के साथ गठबंधन कर चुके हैं। सपा केशव प्रसाद मौर्य के नेतृत्व वाले महान दल के साथ भी गठबंधन में है और पश्चिमी यू.पी. में इसने राष्ट्रीय लोक दल के साथ गठबंधन की घोषणा की है। 

मायावती को दलितों के बीच जो समर्थन प्राप्त है, उस पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। बसपा को बट्टे खाते में डालना गलत होगा क्योंकि पार्टी 20 प्रतिशत से अधिक वोट बैंक के लिए प्रतिबद्ध है। पार्टी ने राज्य भर में ब्राह्मण सम्मेलनों का सफलतापूर्वक आयोजन किया है, लेकिन जिस तरह से विधायकों सहित पार्टी के वरिष्ठ नेता बसपा छोड़ सपा में शामिल हो गए हैं, वह उसके कमजोर आधार को दर्शाता है। मायावती ने अभी अभियान शुरू नहीं किया है लेकिन एक बार शुरू होने पर उनके एक जिले से दूसरे जिले में जाने के बाद लोगों के उनके समर्थन में उतरने से इंकार नहीं किया जा सकता।-बिस्वजीत बनर्जी


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